'द कश्मीर फाइल्स' फिल्म अपनी रिलीज के समय से ही विवादों में है। कश्मीरी पंडितों के पलायन पर बनी फिल्म द कश्मीर फाइल्स मार्च में जब रिलीज हुई तो बीजेपी शासित तमाम राज्य उसे अपने-अपने ढंग से प्रमोट करने में जुट गए थे। लेकिन अधिकतर फ़िल्म समीक्षकों और विपक्षी दलों के नेताओं ने इसे प्रोपेगेंडा फ़िल्म बताया। इन आरोपों-प्रत्यारोपों पर एक समय ख़ूब हंगामा हुआ था। फिर यह विवाद धीरे-धीरे गायब हो गया। लेकिन सोमवार को एक बार फिर से यह विवाद तब खड़ा हो गया जब 53वें भारतीय अंतरराष्ट्रीय फिल्म महोत्सव यानी आईएफएफआई के समापन समारोह में महोत्सव के जूरी प्रमुख नादव लापिड ने कह दिया कि द कश्मीर फाइल्स फिल्म फेस्टिवल की स्पर्धा में शामिल भी किए जाने लायक नहीं थी। उन्होंने कहा, 'अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिता में 15 फ़िल्में देखीं। उनमें से 14 में सिनेमाई गुण थे, चूक थी और इन पर चर्चाएँ हुईं। 15वीं फिल्म द कश्मीर फाइल्स से हम सभी परेशान और हैरान थे। यह एक प्रोपेगेंडा, भद्दी फिल्म की तरह लगी, जो इस तरह के प्रतिष्ठित फिल्म समारोह के कलात्मक प्रतिस्पर्धी वर्ग के लिए अनुपयुक्त है।' तो सवाल है कि आख़िर इस फ़िल्म में ऐसा क्या है कि जूरी प्रमुख को यह कहना पड़ा?
फिल्म 1990 के दौर के उस भयावह समय पर केन्द्रित है, जब आतंकवादियों ने कश्मीरी पंडितों की हत्याएं कीं और उन्हें कश्मीर छोड़ने पर मजबूर किया गया। हजारों कश्मीरी पंडित अपने ही देश में शरणार्थी बनकर रहने पर मजबूर हो गए।
कश्मीर घाटी से 1990 के शुरुआती महीनों में कश्मीरी हिंदुओं यानी कश्मीरी पंडितों का पलायन हुआ था। हालाँकि, यह पलायन बाद तक भी जारी रहा। अनुमान है कि 90 हजार से लेकर 1 लाख तक कश्मीरी पंडित घाटी छोड़ने के लिए मजबूर हुए। कुछ रिपोर्टों में इनकी संख्या क़रीब डेढ़ लाख भी बताई जाती है। पलायन से पहले और पलायन के दौरान सैकड़ों लोग मारे गए। जम्मू-कश्मीर सरकार की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि 1989 से 2004 के बीच इस समुदाय के 219 लोग मारे गए थे। हालाँकि, कश्मीरी पंडित संघर्ष समिति का दावा रहा है कि 650 कश्मीरी पंडित मारे गए थे।
घाटी से कश्मीरी हिंदुओं के पलायन का कारण मोटे तौर पर इन हत्याओं को माना जाता है। कई कश्मीरी पंडितों ने अपने लोगों में से कुछ हाई-प्रोफाइल अधिकारियों की हत्याओं से दहशत का अनुभव किया।
बीजेपी की तरफ़ से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तक इस फ़िल्म की तारीफ़ कर चुके हैं और विरोध को साज़िश तक बता चुके हैं। बीजेपी शासित सरकारों ने तो इस फ़िल्म को टैक्स फ्री भी किया था। एमपी में पुलिस वालों को 1 दिन की छुट्टी दी गई थी।
बीजेपी समर्थक तो इस फ़िल्म की आलोचना करने वालों को 'देशद्रोही' क़रार दे रहे थे। सिनेमा हॉलों में इस फ़िल्म के प्रदर्शन के दौरान कई जगहों से नफ़रती नारे, भाषण और हंगामे की ख़बरें भी आई थीं।
अनुपम खेर की मुख्य भूमिका वाली यह फिल्म 2022 की सबसे ज्यादा कमाई करने वाली हिंदी फिल्मों में से एक है।
प्रोपेगेंडा फैलाया गया: पवार
एनसीपी के प्रमुख शरद पवार ने कहा था कि बीजेपी द कश्मीर फाइल्स फिल्म को लेकर जहरीला माहौल बना रही है। पवार ने कहा था कि बीजेपी कश्मीर घाटी से कश्मीरी पंडितों के पलायन को लेकर फर्जी प्रोपेगेंडा फैला रही है। पवार ने कहा था कि इस तरह की फिल्म को स्क्रीनिंग के लिए मंजूरी नहीं दी जानी चाहिए थी लेकिन इसे टैक्स में छूट भी दी जा रही है।
आलोचकों पर निशाना साधते हुए प्रधानमंत्री ने कहा था, 'वे गुस्से में हैं क्योंकि हाल ही में रिलीज़ हुई फिल्म उस सच्चाई को सामने ला रही है जिसे जानबूझकर छिपाया गया था। पूरी जमात जिसने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का झंडा फहराया था, 5-6 दिनों से उग्र है। तथ्यों और कला के आधार पर फिल्म की समीक्षा करने के बजाय, इसे बदनाम करने की साज़िश की जा रही है।'
इस फ़िल्म पर विवाद होने के बाद सवाल पूछा जा रहा है कि क्या कश्मीरी पंडितों के हालात में बदलाव आया? कश्मीर घाटी में अल्पसंख्यक हिंदू कश्मीरी पंडित समुदाय के पलायन के 32 साल हो गए हैं। जनवरी और मार्च 1990 के बीच घटी यह घटना ठीक उसी समय हुई थी जब बीजेपी पूरे उत्तर भारत में अपनी रफ़्तार बढ़ा रही थी। वर्षों से कश्मीरी पंडितों की दुर्दशा और उनका पलायन एक प्रबल हिंदुत्व मुद्दा बन गया है। इस मुद्दे को गाहे-बगाहे क़रीब-क़रीब हर चुनाव में उठाया जाता रहा है। लेकिन क्या उनकी स्थिति बदली? क्या वे कश्मीर घाटी में वापस लौट पाए?
कश्मीरी पंडित 32 साल से इंतज़ार में हैं कि कभी तो दशकों पुराने उनके जख्मों पर मरहम लगेगा। पर घाव भरना तो दूर, लगता है कि उन जख्मों को बार-बार कुरेदने की कोशिश ही हुई है।
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