क्या पुलिसकर्मियों को ऐसे तर्क देते सुना है कि अपराधियों के ख़िलाफ़ पुलिस सख़्ती से यानी हिंसात्मक रूप से पेश नहीं आएगी तो क्या फूल-माला पहनाएगी? या फिर ऐसा तर्क कि ख़तरनाक अपराधियों को क़ानूनी ट्रायल करने से बेहतर है कि मार दिया जाए तभी दूसरे अपराधियों में खौफ होगा? ज़ाहिर है मानवाधिकार प्रशिक्षण में ऐसे तर्क तो नहीं ही सिखाए जाते होंगे। यह भी सच है कि पुलिस कर्मियों के लिए मानवाधिकार प्रशिक्षण ज़रूरी होता है। तो क्या ऐसे पुलिसकर्मियों को यह प्रशिक्षण ही नहीं दिया जाता है या फिर उस प्रशिक्षण का उन पर कोई फर्क ही नहीं पड़ता है? क्योंकि फर्क पड़ता तो एक के बाद एक हिरासत में मौत के मामले नहीं आते। तमिलनाडु में बाप-बेटे की पुलिस हिरासत में मौत का मामला भी नहीं आता।