राष्ट्रीय जाँच एजेन्सी (एनआईए) को उस समय ज़ोरदार झटका लगा जब सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार को भीमा कोरेगाँव हिंसा-यलगार परिषद मामले में सुधार भारद्वाज की ज़मानत के ख़िलाफ़ इसकी याचिका को खारिज कर दिया।
यू. यू. ललित, रविंद्र भट्ट व बेला त्रिवेदी के खंड पीठ ने कहा कि उसे इस मामले में बंबई हाई कोर्ट के फ़ैसले में हस्तक्षेप करने की कोई वजह नहीं दिख रही है।
डिफ़ॉल्ट ज़मानत
सुधा भारद्वाज को डिफ़ॉल्ट ज़मानत मिली थी। यानी एनआईए क़ानून से तय समय के अंदर सुधा भारद्वाज के खिलाफ़ आरोपपत्र दाख़िल नहीं कर पाई थी।
बता दें कि सुधा भारद्वाज को 28 अगस्त 2018 को भीमा कोरेगाँव हिंसा मामले में गिरफ़्तार किया गया था। उन पर माओवादियों की मदद करने का आरोप लगाया गया था। वे उस समय से ही यानी लगभग तीन साल से जेल में हैं।
2018 के भीमा कोरेगाँव हिंसा मामले में सुधा भारद्वाज के अलावा वरवर राव, सोमा सेन, सुधीर धावले, रोना विल्सन, एडवोकेट सुरेंद्र गाडलिंग, महेश राउत, वरनॉन गोंजाल्विस और अरुण फ़रेरा की भी गिरफ़्तार किया गया था। लेकिन अदालत ने सुधा भारद्वाज के अलावा अन्य लोगों की ज़मानत ख़ारिज कर दी।
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क्या है भीमा कोरेगाँव का मामला?
हर साल जब 1 जनवरी को दलित समुदाय के लोग भीमा कोरेगाँव में जमा होते हैं, वे वहाँ बनाए गए 'विजय स्तम्भ' के सामने अपना सम्मान प्रकट करते हैं। वे ऐसा इसलिए करते हैं क्योंकि ऐसा माना जाता है कि 1818 में भीमा कोरेगाँव युद्ध में शामिल ईस्ट इंडिया कंपनी से जुड़ी टुकड़ी में ज़्यादातर महार समुदाय के लोग थे, जिन्हें अछूत माना जाता था। यह ‘विजय स्तम्भ’ ईस्ट इंडिया कंपनी ने उस युद्ध में शामिल होने वाले लोगों की याद में बनाया था जिसमें कंपनी के सैनिक मारे गए थे।
2018 में 200वीं वर्षगाँठ थी इस कारण बड़ी संख्या में लोग जुटे थे। इस सम्बन्ध में शिव प्रतिष्ठान हिंदुस्तान के अध्यक्ष संभाजी भिडे और समस्त हिंदू अघाड़ी के मिलिंद एकबोटे पर आरोप लगे कि उन्होंने मराठा समाज को भड़काया, जिसकी वजह से यह हिंसा हुई। लेकिन इस बीच हिंसा भड़काने के आरोप में पहले तो बड़ी संख्या में दलितों को गिरफ़्तार किया गया और बाद में 28 अगस्त, 2018 को सामाजिक कार्यकर्ताओं को। यह विवाद अभी भी जारी है।
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