महिलाओं के प्रति सरकार का जिस तरह का नज़रिया है उस पर सुप्रीम कोर्ट ने आज सरकार को आईना दिखा दिया। आईना क्या दिखाया, साफ़-साफ़ दकियानूसी कह दिया। रूढ़िवादी बता दिया। लिंग के आधार पर भेदभाव करने वाला कह दिया। भले ही अदालत की यह टिप्पणी सेना में महिला अफ़सरों को बराबरी देने के संबंध में हो लेकिन यह समाज के हर क्षेत्र में और हर जगह सटीक बैठती है। यानी महिलाओं को कमतर आँका गया और इसका नतीजा यह निकला कि महिलाओं की संख्या तक कम होने लगी। सबसे बड़ा सबूत तो यही है कि लिंगानुपात यानी 1000 पुरुषों के मुक़ाबले महिलाओं की संख्या घटकर 896 तक पहुँच गयी है। इसका एक मतलब यह भी है कि सरकार ही नहीं पूरा समाज ही रूढ़िवादी और दकियानूसी है। कुछ हद तक सामंती भी। लेकिन सरकार से तो अपेक्षा रहती है कि तरक़्क़ीपसंद रहे और दुनिया के साथ क़दम से क़दम मिलाकर चले। क्या सरकार ऐसा कर रही है? 'बेटी पढ़ाओ-बेटी बचाओ' के नारों से ही क्या सब ठीक हो जाएगा? यदि ऐसा होता तो क्या सुप्रीम कोर्ट को ऐसी टिप्पणियाँ करनी पड़तीं?