कॉलीजियम ने जस्टिस अकील कुरैशी को मध्य प्रदेश हाई कोर्ट का मुख्य न्यायाधीश बनाने की सिफ़ारिश केंद्र सरकार से की थी। यह सिफ़ारिश 10 मई को की गयी थी। केंद्र सरकार ने इस पर आपत्ति की थी। अब सुप्रीम कोर्ट कॉलीजियम ने जस्टिस अकील कुरैशी को मध्य प्रदेश हाईकोर्ट का मुख्य न्यायाधीश बनाने के बजाए उन्हें त्रिपुरा हाईकोर्ट का मुख्य न्यायाधीश बनाने की सिफ़ारिश की है। मध्य प्रदेश का हाईकोर्ट देश के सबसे बड़े हाईकोर्ट में से एक है, जबकि त्रिपुरा हाईकोर्ट सबसे छोटा।
जस्टिस अकील गुजरात हाईकोर्ट में सबसे वरिष्ठ न्यायाधीश हैं। पिछले साल गुजरात हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश सुभाष रेड्डी को सुप्रीम कोर्ट में तरक़्क़ी हुई थी तब यह माना जा रहा था कि जस्टिस अकील को मुख्य न्यायाधीश बनाया जा सकता है।
गुजरात हाईकोर्ट एडवोकेट एसोसिएशन के अध्यक्ष यतिन ओझा ने जस्टिस कुरैशी को त्रिपुरा भेजने के कॉलीजियम के फ़ैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी है। ‘द इंडियन एक्सप्रेस’ के अनुसार, उन्होंने कहा कि कॉलीजियम को जस्टिस कुरैशी को मध्य प्रदेश के मुख्य न्यायाधीश बनाने के अपने फ़ैसले पर अड़े रहना चाहिए था। बता दें कि गुजरात बार एसोसिएशन ने इस मामले में प्रदर्शन की चेतावनी दी है।
गुजरात हाई कोर्ट में रहते हुए जस्टिस कुरैशी ने कई अहम फ़ैसले सुनाए थे। उनमें से एक फ़ैसला गृह मंत्री अमित शाह से जुड़ा हुआ था। तब शोहराबुद्दीन शेख एन्काउंटर मामले में सुनवाई करते हुए जस्टिस कुरैशी ने उन्हें दो दिन की पुलिस कस्टडी में भेजा था। हालाँकि बाद में अमित शाह को इस केस में बरी कर दिया गया है।
ताहिलरमानी के मामले में कॉलीजियम का रवैया
मद्रास हाई कोर्ट की मुख्य न्यायाधीश विजया ताहिलरमानी ने अपेक्षाकृत छोटे मेघालय हाई कोर्ट भेजे जाने के फ़ैसले के ख़िलाफ़ अपने पद से इस्तीफ़ा दे दिया है। जस्टिस विजया ताहिलरमानी अक्टूबर 2020 में रिटायर होने वाली थीं। उनके तबादले के ख़िलाफ़ स्थानीय बार एसोसिएशन ने प्रदर्शन किया और उनके तबादले पर फिर से विचार करने का आग्रह किया था। कॉलीजियम इस पर राजी नहीं हुआ और बाद में एक बयान जारी कर कहा कि इसमें बदलाव संभव नहीं है।
जस्टिस विजया ताहिलरमानी ने अपने फ़ैसले पर पुनर्विचार करने के लिए कॉलीजियम से आग्रह करते हुए एक मेमोरंडम दिया था, जिसमें उन्होंने कहा था, ‘कॉलीजियम के कामकाज की शैली से ऐसा लगता है मानो हाई कोर्ट कॉलीजियम के अधीन हों। कोई भी तबादला न्यायसंगत तरीक़े से ही होना चाहिए, पर कुछ दिनों से लगने लगा है कि जजों के तबादले में इसका ख्याल नहीं रखा जाता है।’
जस्टिस ताहिलरमानी वह जज हैं, जिन्होंने बिलकीस बानो सामूहिक बलात्कार कांड के दोषियों की सज़ा को बहाल रखा था। उस बलात्कार कांड का मुक़दमा गुजरात हाई कोर्ट में चला था और उसमें 11 लोगों को सज़ा हुई थी।
बाद में इस फ़ैसले को बॉम्बे हाई कोर्ट भेजा गया था, जहाँ ताहिलरमानी कार्यवाहक मुख्य न्यायाधीश थीं। बिलकीस बानो केस 2002 गुजरात दंगे के समय हुआ था और उस समय गुजरात में नरेंद्र मोदी की सरकार थी। तब पहली बार अमित शाह मंत्री बने थे।
जस्टिस जयंत पटेल ने दिया था इस्तीफ़ा
जस्टिस जयंत पटेल का मामला और भी दिलचस्प है। कर्नाटक में वह दूसरे सबसे वरिष्ठ जज थे और दो सप्ताह के अंदर उनकी तरक्की या तो कार्यकारी मुख्य न्यायाधीश या फिर मुख्य न्यायाधीश के तौर होनी थी। लेकिन एकाएक उनको इलाहाबाद कोर्ट में तबादला कर दिया गया था जहाँ वह वरिष्ठता में तीसरे नंबर के जज होकर रह गए थे। बाद में उन्होंने इस्तीफ़ा दे दिया।
जस्टिस पटेल का तालुक गुजरात से रहा है। कॉलीजियम के इस फ़ैसले के ख़िलाफ़ बार काउंसिल ऑफ़ गुजरात ने हड़ताल की थी। जस्टिस जयंत पटेल के मामले में बार काउंसिल ऑफ़ गुजरात ने सुप्रीम कोर्ट कॉलीजियम को पत्र लिखा था- ‘यह तबादले ने न्यायपालिका की स्वतंत्रता में विश्वास को डिगा दिया है’।
जस्टिस पटेल ने इशरत जहाँ एन्काउंटर मामले की सुनवाई की थी। इशरत जहाँ एन्काउंटर का मामला 2004 में तब हुआ था जब गुजरात में मोदी की सरकार थी और कहा गया था कि मुख्यमंत्री को मारने की आतंकी साज़िश रची जा रही थी। इसी मामले में यह मुठभेड़ हुई थी।
गोपाल सुब्रमण्यम को वापस लेना पड़ा था नाम
वरिष्ठ वकील गोपाल सुब्रमण्यम देश के सबसे सम्मानित वकीलों में से एक हैं। संविधान और क़ानून की उनकी समझ काफ़ी उम्दा है। सुप्रीम कोर्ट कॉलीजियम द्वारा उनको सुप्रीम कोर्ट का जज बनाने की सिफ़ारिश की गई थी, लेकिन सरकार ने इसे नहीं माना। जब सुप्रीम कोर्ट के जज के लिए उनके नाम की सिफ़ारिश भेजी गई थी तभी गोपाल सुब्रमण्यम की छवि पर कीचड़ उछाला जाने लगा। उनकी ईमानदारी और निष्ठा को लेकर मीडिया में ख़बरें छपने लगीं।
विवाद के बाद सुब्रमण्यम ने अपना नाम वापस ले लिया और मुख्य न्यायाधीश को पत्र लिखकर आरोप लगाया कि 2005 में शोहराबुद्दीन एन्काउंटर के मामले में कोर्ट की दो बार सहायता करने में निष्ठा और स्वतंत्रता दिखाने के लिए उनको निशाने पर लिया जा रहा है।
बता दें कि तब गुजरात में नरेंद्र मोदी की सरकार थी। उनकी सरकार में मंत्री अमित शाह शोहराबुद्दीन केस में आरोपों का सामना कर रहे थे। 2010 में गोपाल सुब्रमण्यम की दलील पर सुप्रीम कोर्ट ने अमित शाह को गुजरात में प्रवेश पर रोक लगा दी थी। उनको दो साल बाद राज्य में जाने की अनुमति दी गई थी।
तब सुब्रमण्यम ने अपने पत्र में यह भी लिखा था कि उन्हें दुख है कि सुप्रीम कोर्ट उनके साथ खड़ा नहीं दिखा।
जस्टिस जोसेफ़ का विवाद
एक ऐसा ही विवाद एक साल पहले उत्तराखंड हाईकोर्ट के पूर्व चीफ़ जस्टिस के. एम. जोसेफ़ को लेकर भी हुआ था। सुप्रीम कोर्ट कॉलीजियम ने जस्टिस जोसेफ़ को सुप्रीम कोर्ट जज बनाने की सिफ़ारिश की थी। सरकार ने आपत्ति जताई। लेकिन कॉलीजियम अपनी सिफ़ारिश पर अड़ा रहा। आपत्ति की वजह के तौर पर सरकार की ओर से अलग-अलग तर्क दिए गए। हालाँकि, अंत में जस्टिस जोसेफ़ की सुप्रीम कोर्ट में नियुक्ति को केंद्र सरकार को हरी झंडी देना पड़ा। बता दें कि जस्टिस जोसेफ़ ने उत्तराखंड में राष्ट्रपति शासन लगाने के फ़ैसले को पलट दिया था और बीजेपी को तगड़ा झटका लगा था। जस्टिस जोसेफ़ ने उत्तराखंड में केंद्र के राष्ट्रपति शासन लगाने के फ़ैसले को खारिज कर हरीश रावत को फिर से मुख्यमंत्री बनने का रास्ता सुनिश्चित कर दिया था।
कॉलीजियम के इन फ़ैसलों पर काफ़ी विवाद होता रहा है। जस्टिस ताहिलरमानी के फ़ैसले पर विवाद के बाद तो सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज और रिटायर होने के पहले तक कॉलीजियम के सदस्य रहे जस्टिस मदन बी. लोकुर ने भी कॉलीजियम के तौर-तरीक़ों पर सवाल उठाए। उन्होंने लिखा, 'कॉलीजियम को विवादों की आदत रही है। लेकिन अब इसकी सिफ़ारिशों पर हमले हो रहे हैं। वे कौन-सी विवादित सिफ़ारिशें रही हैं और उनकी क्यों आलोचना हो रही है? इस पर विचार करने की ज़रूरत है क्योंकि इन सिफ़ारिशों में किसी तरह की तारतम्यता नहीं दिखायी देती है, मनमाने ज़्यादा लगते हैं।'
कॉलीजियम की सिफ़ारिशें पर लगातार विवाद होने, जस्टिस लोकुर की इस टिप्पणी और सुधार के सुझाव के बाद भी स्थिति नहीं बदली है।
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