सुप्रीम कोर्ट ने शुक्रवार को मुख्य चुनाव आयुक्त यानी सीईसी और चुनाव आयुक्तों का चयन करने वाले पैनल से भारत के मुख्य न्यायाधीश को बाहर करने वाले नए कानून पर अंतरिम रोक लगाने से इनकार कर दिया है। सरकार ने सीईसी की नियुक्ति को लेकर नया क़ानून पारित कर दिया है। यह क़ानून इसलिए बनाया गया क्योंकि पिछले साल मार्च में सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया था कि सीईसी और ईसी की नियुक्ति प्रधानमंत्री, लोकसभा में विपक्ष के नेता और भारत के मुख्य न्यायाधीश की एक समिति की सलाह पर की जाएगी।
चुनाव आयोग के फ़ैसलों पर हाल के दिनों में लगातार सवाल उठ रहे हैं और ऐसे में सरकार के इस क़ानून के बाद विपक्षी दलों ने सरकार के फ़ैसले की आलोचना की थी। इसको लेकर सुप्रीम कोर्ट में याचिकाएँ दाखिल की गईं और उस क़ानून को चुनौती दी गई।
हालाँकि न्यायमूर्ति संजीव खन्ना की अध्यक्षता वाली दो न्यायाधीशों की पीठ ने कांग्रेस नेता जया ठाकुर और संजय नारायणराव मेश्राम की याचिका पर नोटिस जारी किया। लेकिन याचिकाकर्ताओं की ओर से पेश वरिष्ठ अधिवक्ता विकास सिंह ने रोक लगाने के लिए जब दबाव डाला तो न्यायमूर्ति खन्ना ने कहा, 'हम इस तरह के क़ानून पर रोक नहीं लगा सकते।' कोर्ट इस मामले की अगली सुनवाई अप्रैल में करेगा।
बहरहाल, वकील ने न्यायमूर्ति दीपांकर दत्ता की पीठ से कहा कि नया कानून शक्तियों के पृथक्करण की अवधारणा के खिलाफ है। द इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के अनुसार उन्होंने पीठ को 2 मार्च, 2023 के संविधान पीठ के फैसले का भी हवाला दिया, जिसमें निर्देश दिया गया था कि सीईसी और ईसी की नियुक्ति प्रधानमंत्री, लोकसभा में विपक्ष के नेता और भारत के मुख्य न्यायाधीश की एक समिति की सलाह पर की जाएगी। जहां विपक्ष का कोई नेता उपलब्ध नहीं है, वहां समिति को संख्या बल के लिहाज से लोकसभा में सबसे बड़े विपक्षी दल के नेता को शामिल करना था।
मोदी सरकार के इस क़ानून को कांग्रेस नेता जया ठाकुर और मेश्राम ने सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी।
याचिकाकर्ताओं ने तर्क दिया कि नया क़ानून 2023 के सुप्रीम कोर्ट के पांच-न्यायाधीशों की पीठ के फ़ैसले के भी ख़िलाफ़ है, जिसने सीईसी और ईसी को नियुक्त करने की सरकार की शक्ति को सीमित कर दिया था। याचिका में कहा गया है कि नए कानून ने सीजेआई को चयन प्रक्रिया से बाहर रखकर सुप्रीम कोर्ट के फैसले को कमजोर कर दिया है। इसने बताया कि सुप्रीम कोर्ट ने पहले माना था कि उसके द्वारा जारी किए गए आदेश को विधायिका द्वारा खारिज नहीं किया जा सकता है और शक्ति का पृथक्करण भी संविधान की मूल संरचना है।
याचिका में यह भी कहा गया है कि चुनाव आयोग की कार्यप्रणाली शासन की गुणवत्ता और लोकतंत्र की ताकत को काफी हद तक निर्धारित करती है और चुनाव आयोग के महान संवैधानिक महत्व को देखते हुए मुख्य चुनाव की नियुक्ति की प्रक्रिया में निष्पक्षता और पारदर्शिता ज़रूरी है। आयुक्त और उसके सदस्य बहुत महत्वपूर्ण हो जाते हैं।
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