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सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को दिल्ली विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफेसर जीएन साईबाबा को बरी करने के बॉम्बे हाईकोर्ट के फ़ैसले पर रोक लगाने से इनकार कर दिया। उन्हें कथित माओवादी संबंधों के कारण गैरकानूनी गतिविधि (रोकथाम) अधिनियम यानी यूएपीए मामले में दोषी ठहराया गया था और आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई थी।
साईबाबा और पांच अन्य को 2017 में एक सत्र अदालत ने दोषी ठहराया था। उच्च न्यायालय ने 14 अक्टूबर, 2022 को 54 वर्षीय साईबाबा को बरी कर दिया था, लेकिन तब सुप्रीम कोर्ट ने उस फ़ैसले को रद्द कर दिया था और मामले को नए सिरे से सुनवाई के लिए उच्च न्यायालय में भेज दिया था। चलने-फिरने में असमर्थ साईबाबा व्हीलचेयर पर हैं।
प्रथम दृष्टया यह देखते हुए कि उच्च न्यायालय का 5 मार्च का फ़ैसला 'बहुत तर्कसंगत है, न्यायमूर्ति बी आर गवई और संदीप मेहता की पीठ ने कहा, 'कानून यह है कि निर्दोषता मानी जाए। एक बार जब बरी करने का आदेश आ जाता है, तो यह धारणा मजबूत हो जाती है।'
हाई कोर्ट के आदेश के खिलाफ महाराष्ट्र सरकार की अपील पर सुनवाई करते हुए शीर्ष अदालत ने सोमवार को कहा, 'दो अलग-अलग पीठों द्वारा बरी करने के दो आदेश हैं। प्रथम दृष्टया, हम पाते हैं कि निर्णय बहुत तर्कसंगत है। चूंकि पहले भी एक मौके पर इस अदालत ने हस्तक्षेप किया था, इसलिए हमें इसका सम्मान करना होगा। वैसे भी, यह उच्च न्यायालय का बहुत ही तर्कसंगत निर्णय है। सामान्य तौर पर, हमने इस अपील पर विचार नहीं किया होता। बरी करने के आदेश में हस्तक्षेप के पैरामीटर बहुत सीमित हैं।' जस्टिस मेहता ने कहा, 'वह बड़ी मुश्किल से बरी हुए हैं। उस व्यक्ति ने जेल में कितने साल बिताए हैं?'
सेशन कोर्ट ने कहा था कि साईबाबा और दो अन्य अभियुक्तों के पास नक्सली साहित्य था, जिसे वो गढ़चिरौली में अंडरग्राउंड नक्सलवादियों को बाँटने वाले थे और ज़िले में लोगों को बाँट कर हिंसा फैलाना चाहते थे।
सर्वोच्च न्यायालय ने साईबाबा की रिहाई के फ़ैसले को पहले रद्द कर दिया था और मामले को नए सिरे से सुनवाई के लिए उच्च न्यायालय में भेज दिया था। अब फिर से उच्च न्यायालय ने उन्हें बरी कर दिया है।
उच्च न्यायालय ने कहा कि माओवादी दर्शन के प्रति सहानुभूति रखने वाले साहित्य को रखना यूएपीए के तहत अपराध नहीं हो सकता है और केवल नक्सली सामग्री डाउनलोड करना भी अपराध नहीं होगा जब तक कि विशिष्ट सबूत प्रदान नहीं किए जाते।
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