चीन के साथ भारत के बढ़े हुए तनाव और सीमा पर दोनों तरफ से हज़ारों सैनिकों की तैनाती ने इस पूरे मामले में एक नया मोड़ ला दिया है। अब सवाल यह उठने लगा है कि क्या अमेरिका चीन की वजह से भारत को 'काट्सा' में कुछ छूट देने पर राजी हो जाएगा, या भारत-अमेरिका प्रस्तावित रक्षा समझौते के बहाने कुछ राहत देगा?
प्रमोद मल्लिक
क्या भारत-अमेरिका रिश्ते एक बार फिर ख़राब होंगे, जिसकी शुरुआत रूस से एस-400 मिसाइल प्रणाली खरीदने के कारण भारत पर प्रतिबंधों के साथ होगी? क्या जो बाइडन अपने कार्यकाल की शुरुआत में ही इससे बचने की कोशिश करेंगे और नई दिल्ली के साथ सुरक्षा संबंधों को लेकर चल रही बातचीत के बहाने भारत को इससे बचा ले जाएंगे और राहत देंगे?
क्या चीन को मिलने वाले एस-400 की वजह से अमेरिका भारत को कुछ छूट देगा या अमेरिका की आम सहमति से चलने वाली वाली सुदृढ़ रक्षा नीति भारत की बाहें एक बार फिर मरोड़ने में कामयाब होगी?
ये सवाल इसलिए उठ रहे हैं कि अमेरिका ने रूस से एस-400 मिसाइल प्रणाली खरीदने के कारण तुर्की सरकार, उसकी रक्षा खरीद एजेन्सी एसएसबी और कुछ बड़े लोगों पर प्रतिबंध लगा दिया है। लोगों को ताज्जुब इसलिए हो रहा है कि तुर्की उत्तरी अटलांटिक समझौता संगठन (नॉर्थ अटलांटिक ट्रिटी ऑर्गनाइजेशन यानी नैटो) का सदस्य होने के कारण अमेरिका का सहयोगी देश है।
प्रतिबंध का कारण?
अमेरिकी विदेश मंत्री माइक पॉम्पिओ ने प्रतिबंधों का एलान करते हुए सोमवार को कहा,
“
"अमेरिका ने तुर्की के शिखर नेतृत्व से कई बार यह कहा कि एस-400 प्रणाली खरीदने से अमेरिका की सैनिक प्रौद्योगिकी, अमेरिकी सैनिक और उसकी सुरक्षा प्रणाली ख़तरे में पड़ जाएंगी। लेकिन तुर्की ने इसकी अनदेखी करते हुए विकल्प रहने के बावजूद रूस से ही यह मिसाइल प्रणाली लेने का फ़ैसला किया।"
माइक पॉम्पिओ, अमेरिकी विदेश मंत्री
काट्सा के तहत फ़ैसला
अमेरिकी रक्षा विभाग ने अपने आधिकारिक साइट पर प्रतिबंधों का एलान करते हुए कहा कि काट्सा के तहत यह निर्णय लिया गया है। इसने कहा कि 'काउंटरिंग अमेरिक़ाज एडवर्सरीज़ थ्रू सैंक्शन्स एक्ट' (सीएएटीएटीएसए) यानी काट्सा के तहत यह कदम उठाया गया है। इसमें इस पर ज़ोर दिया गया है कि हालांकि तुर्की एक महत्वपूर्ण सहयोगी रहा है और मित्र देश है, पर काट्सा की उपेक्षा नहीं की जा सकती है।
क्या है एस-400
एस-400 रूस-निर्मित एअर डिफेन्स सिस्टम है, जिसके तहत ज़मीन से आसमान में मारने वाली छोटी दूरी की मिसाइल का इस्तेमाल किया जाता है। यह मोबाइल प्रणाली है यानी आसानी से गाड़ी पर लाद कर कहीं ले जाया जा सकता है।
इसकी दूसरी और बड़ी खूबी यह है कि इसके ज़रिए सामान्य लड़ाकू या बमवर्षक विमान ही नहीं, अनमैन्ड एरिअल वेहिकल यानू यूएवी, क्रूज़ मिसाइल, बैलिस्टिक मिसाइल, यानी हवा में मौजूद किसी भी लक्ष्य पर निशाना साधा जा सकता है। इसकी मारक क्षमता 400 किलोमीटर तक है और इसे आसमान में 30 किलोमीटर की ऊँचाई तक मारा जा सकता है। यानी मौजूदा हवाई लड़ाई में एस-400 की जद के बाहर कुछ भी नहीं है।
एस-400 प्रणाली
इसकी तुलना अमेरिका के पैट्रिऑट मिसाइल से की जा सकती है, जो इतनी सुगम है कि उसे सैनिक अपने कंधे पर रख कर छोड़ सकता है। पर पैट्रिऑट सिर्फ मिसाइल है, उसमें टोह करने या पहले ही पता लगाने की प्रणाली नहीं होती है। एस-400 की एकीकृत प्रणाली में रडार, लक्ष्य का पता लगाने, उसे लक्ष्य पर लेने, कमान्ड व कंट्रोल सिस्टम, लॉन्चर प्रणाली भी शामिल है।
रूस से क़रार
भारत ने अक्टूबर 2018 में इस रक्षा प्रणाली की खरीद के लिए रूस के साथ क़रार पर दस्तख़त किया। इसके तहत भारत पाँच एस-400 प्रणाली खरीदेगा, रूस 2020 के अंत से लेकर 2023 तक सभी प्रणाली भारत को सौंप देगा।
भारत ने नवंबर 2019 में रूस को 80 करोड़ डॉलर का भुगतान कर दिया। भारत इसके लिए लिए रूस को लगभग 4 अरब डॉलर देगा।
चीन का मामला
अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मशहूर पत्रिका 'डिप्लोमैट' के अनुसार, चीन ने भारत से पहले ही एस-400 प्रणाली खरीदने का क़रार रूस से किया था। इसके तहत रूस पीपल्स लिबरेशन आर्मी को एस-400 की पाँच प्रणालियाँ देगा। वह पहली प्रणाली दे चुका है। यह सौदा तीन अरब डॉलर का है। रूस दूसरी खेप जल्द ही देने वाला है।
पीपल्स लिबरेशन आर्मी
चीन को मिलने वाला एस-400 एअर डिफेन्स सिस्टम बिल्कुल वही है जो रूस भारत को देगा।
अब सवाल यह उठने लगा है कि क्या अमेरिका चीन की वजह से भारत को 'काट्सा' में कुछ छूट देने पर राजी हो जाएगा, या भारत-अमेरिका प्रस्तावित रक्षा समझौते के बहाने कुछ राहत देगा?
'काट्सा' की धारा 231 में साफ प्रावधान है कि जिन रक्षा सौदों से अमेरिका या उसकी रक्षा प्रणाली को किसी तरह की चुनौती मिले, उसे रोकना होगा, उस देश को अमेरिका का प्रतिद्वंद्वी (एडवर्सरी) माना जाएगा।
'काट्सा' पर अमेरिका में इतनी एकजुटता है कि इस मुद्दे पर कोई राजनीतिक विरोध नहीं है, डेमोक्रेटिक और रिपब्लिकन, दोनों की नीतियाँ एक हैं और एक के प्रस्ताव का समर्थन दूसरा करता है।
अमेरिकी प्राथमिकता चीन को रोकना
अमेरिका की प्राथमिकता अब चीन को रोकना है। वह बार- बार एशिया प्रशांत कमान्ड या हिंद प्रशांत कमान्ड की बात करता है, वह चीनी कम्युनिस्ट पार्टी को 'लोकतंत्र का दुश्मन' खुले आम क़रार देता है।
चीन के साथ तनाव के क्षणों में बीते दिनों माइक पॉम्पिओ ने यहाँ तक कह दिया कि "चीन मानवता का दुश्मन है और उसे हमने नहीं रोका तो हमारी आने पीढ़ी ग़ुलाम होगी और हमें कभी माफ़ नहीं करेगी।"
'इंडियन एक्सप्रेस' के अनुसार, अमेरिकी प्रशांत कमान्ड के प्रमुख एडमिरल हैरी हैरिस और रक्षा मंत्री जेम्स मैटिस ने सैन्य सेवाओं पर बनी सेनेट कमिटी को एक चिट्ठी लिख कर कहा था कि भारत जैसे देशों को 'काट्सा' से छूट मिलनी चाहिए।
एडमिरल हैरिस ने तर्क दिया था कि भारत अमेरिका के लिए 'रणनीतिक अवसर' है और 'काट्सा' में छूट मिलने से भारत के साथ 'रक्षा व्यापार बढ़ सकता है।'
रक्षा सेवाओं पर बनी सेनेट व हाउस ऑफ़ रिप्रेज़न्टेटिव्स की समिति ने कहा कि नैशनल डिफेन्स अथॉराइजेशन एक्ट, 2019, में बदलाव कर 'काट्सा' की धारा 231 में कुछ राहत दी जा सकती है।
इसके बाद इस क़ानून में संशोधन का प्रस्ताव रखा गया, वह सेनेट के पास पड़ा हुआ है। उसे पारित कर राष्ट्रपति के पास दस्तख़त करने भेजा जाना बाकी है।
ट्रंप करेंगे दस्तख़त?
'काट्सा' पर जिस तरह राजनीतिक आम सहमति बनी हुई है, इसकी पूरी संभावना है कि डेमोक्रेट और रिपब्लिकन दोनों ही इसका समर्थन करें। बस, मामला यह है कि अमेरिकी परंपरा के मुताबिक ट्रांजिशन प्रशासन यानी एक राष्ट्रपति के पद छोड़ने और दूसरे के पद ग्रहण करने के बीच के प्रशासन को नीतिगत फ़ैसले नहीं लेने चाहिए। लेकिन जिस तरह डोनल्ड ट्रंप प्रशासन ने मध्य पूर्व, इसरायल, मोरक्को, तुर्की और दूसरे कई मामलों में फ़ैसले लिए हैं, काट्सा पर भी फ़ैसला लिया ही जा सकता है।
भारत-चीन युद्ध की स्थिति ेमें क्या अमेरिका भारत के साथ खड़ा होगा? देखें, क्या कहते हैं वरिष्ठ पत्रकार आशुतोष।
अब क्या होगा?
'इंडियन एक्सप्रेस' के मुताबिक़, इस साल जनवरी में ट्रंप प्रशासन के एक बहुत ही वरिष्ठ अधिकारी ने कहा कि 'भारत अमेरिका का बड़ा रक्षा सहयोगी' है और "ऐसा कुछ नहीं किया जाना चाहिए जिससे उसकी सुरक्षा क्षमताएं कम हों।"
डोनल्ड ट्रंप, राष्ट्रपति, अमेरिका
यदि ट्रंप प्रशासन ने यह सवाल जो बाइडन के लिए छोड़ दिया तो क्या होगा, अहम सवाल यह है। पर्यवेक्षकों का कहना है कि जो बाइडन के राष्ट्रपति बनने से चीन के साथ तनाव कुछ कम हो जाएगा, हल्ला-गुल्ला रुक जाएगा, पर अमेरिका की चीन नीति में कोई बुनियादी बदलाव नहीं होगा। जो बाइडन चुप रहें, चीन पर हमला न बोलें, पर वे उसे कोई रियायत नहीं देंगे, यह तय है।
भारत-अमेरिका रक्षा सौदे
इस पूरे मामले का दूसरा पहलू भारत-अमेरिका रक्षा सौदे से जुड़ा हुआ है। बीते एक दशक में भारत ने अमेरिका से 15 अरब डॉलर के रक्षा उपकरण लिए हैं। इसमें सी-17 ग्लोबमास्टर, सी-30 परिवहन विमान, पी-8 नौसेना टोही प्रणाली, एम777 हाउवित्ज़र तोप, हारपून मिसाइल और अपाचे व चिनूक हेलीकॉप्टर शामिल हैं।
भारत ने 2013-14 और 2015-16 में अमेरिका के साथ 13 रक्षा समझौतों पर दस्तख़त किए, जिसका कुल मूल्य 28,895 करोड़ रुपए यानी 4.4 अरब डॉलर है।
क्या अमेरिका के साथ भारत की बढ़ रही नज़दीकियों से रूस परेशान है? वरिष्ठ पत्रकार मुकेश कुमार इस पर क्या मानते हैं, देखें।
भारत को अगले कुछ सालों में वायु सेना के लिए 110 लड़ाकू विमान, नौसेना के लिए 57 मल्टी-रोल कैरियर बोर्न फ़ाइटर और 234 हेलीकॉप्टर खरीदने हैं।
अमेरिकी कंपनियाँ लॉकहीड मार्टिन और बोइंग इन सौदों में ज़ोरदार प्रतिस्पर्द्धा कर सकती हैं। सवाल यह है कि क्या अमेरिका भारत के साथ रिश्ते ऐसे समय खराब करेगा? और वह भी तब जब उसे चीन को रोकना है और इसमें भारत का इस्तेमाल भी करना है?
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प्रमोद मल्लिक
लेखक पत्रकार हैं, आर्थिक और अंतरराष्ट्रीय विषयों पर लिखते रहते हैं। और पढ़ें »
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