संघ प्रशासित-क्षेत्र जम्मू और कश्मीर में हुए ज़िला विकास परिषद के चुनाव नतीजे कई सवाल खड़े करते हैं। भारतीय जनता पार्टी भले ही यह दावा करे कि 75 सीटों के साथ वह सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी है, सच यह है कि हिन्दू-बहुल और पारंपरिक गढ़ जम्मू में भी उसे सिर्फ 37.3 प्रतिशत वोट ही मिले हैं, जो बहुमत से काफी कम है।
क्या हुआ?
दूसरी ओर, बीजेपी के नेता भले ही गाल बजाते रहें और दावे करते रहें कि जनता ने कश्मीर के मुद्दे पर 5 अगस्त, 2019, के फ़ैसले पर मुहर लगा दी है, वे इस सच से इनकार नहीं कर सकते कि राष्ट्रवाद की बात करने वाली इस पार्टी को कश्मीर घाटी में सिर्फ 4.2 प्रतिशत वोट हासिल हुए हैं।
याद दिला दें कि नरेंद्र मोदी सरकार ने बीते साल संसद से एक प्रस्ताव आम सहमति से पारित करवा कर तत्कालीन राज्य जम्मू-कश्मीर की विशेष स्थिति को ख़त्म कर दिया। संविधान के अनुच्छेद 370 में अहम बदलाव किया गया और अनुच्छेद 35 'ए' को ख़त्म कर दिया गया। राज्य में सुरक्षा बलों के लगभग एक लाख जवानों को तैनात कर दिया गया, पूरे राज्य में लॉकडाउन लगा दिया गया और तमाम राजनीतिक दलों के लगभग सभी नेताओं को गिरफ़्तार किया गया या नज़रबंद कर दिया गया।
विशेष स्थितियों में चुनाव
यह भी अजीब विंडबना है कि 4 अगस्त, 2019 को श्रीनगर के गुपकर रोड स्थित फ़ारूक़ अब्दुल्ला के घर सात राजनीतिक दलों के शीर्ष नेताओं की बैठक हुई, जिसमें राज्य की स्वायत्तता की माँग को आगे बढाने और विशेष स्थिति को हर हाल में बरक़रार रखने का फ़ैसला किया गया, इससे जुड़ा एक घोषणापत्र जारी किया गया, जिसे 'गुपकर डेक्लेरशन' कहा गया। लेकिन उसके कुछ घंटों बाद ही उन तमाम नेताओं को जेल में डाल दिया गया। अगले ही दिन जम्मू-कश्मीर की स्वायत्तता की बात तो दूर, पहले से मौजूद विशेष स्थिति को भी ख़त्म कर दिया गया।
इसके एक साल बाद यानी 5 अगस्त, 2020 को वे तमाम नेता एक बार फिर गुपकर रोड स्थित उसी मकान में जमा हुए, गुपकर घोषणापत्र को एक बार फिर जारी किया और उसके लिए आन्दोलन शुरू करने का एलान किया। ज़िला विकास परिषद के चुनावों का एलान इस ख़ास परिस्थिति में हुआ। गुपकर डेक्लेरेशन के दलों ने पीपल्स अलायंस फ़ॉर गुपकर डेक्लेरेशन का गठन किया। इस गठबंधन ने कहा कि बीजेपी को खुला मैदान न मिले, इसलिए डीडीसी के चुनाव में वह भाग लेगा।
गुपकार डेक्लेरशेन क्यों?
जम्मू और कश्मीर के ज़िला विकास परिषद के नतीजों को इस परिप्रेक्ष्य में देखा जाना ज़रूरी है। सवाल यह है कि क्या बीजेपी का यह दावा सही है कि लोगों ने कश्मीर पर उसके फैसले को मान लिया है?
क्या बीजेपी यह दावा कर सकती है कि उसके उग्र राष्ट्रवाद को लोगों का समर्थन हासिल है? क्या अमित शाह की पार्टी यह पक्के तौर पर कह सकती है कि लोगों ने उसे विकास के नाम पर वोट दिया है?
कौन जीता, कौन हारा?
पीपल्स अलायंस फ़ॉर गुपकर डेक्लेशन चूंकि चुनाव पूर्व गठबंधन है और उसके सभी घटक दलों के बीच सीटों का बंटवारा हुआ, इससे इनकार नहीं किया जा सकता है कि उसे सबसे ज़्यादा 110 सीटें मिलीं।
नैशनल कॉन्फ्रेंस ने 168 सीटों पर चुनाव लड़ा था, उसे 67 सीटों पर जीत मिली।
किस दल ने कितनी सीटों पर चुनाव लड़ा और उसमें वह कितनी सीटों जीत पाई, यानी स्ट्राइक रेट की यदि तुलना की जाए तो बीजेपी का दावा पूरी तरह खोखला साबित होता है। पीपल्स अलायंस के कई दलों से कम स्ट्राइक रेट इस राष्ट्रवादी दल का रहा।
जम्मू कश्मीर पीपल्स कॉन्फ्रेंस की स्ट्राइक रेट 80 है, जबकि सीपीआईएम की 71.4, नैशनल कॉन्फ्रेंस की 40.9, पीडीपी की 39.7 है। इसके बाद 32.6 के सथ बीजेपी पाँचवे नंबर पर है। बीजेपी को लोग इस बात पर ज़रूर खुश हो सकते हैं कि मुख्य प्रतिद्वंद्वी पार्टी कांग्रेस की स्ट्राइक रेट उससे कम 16.3 है।
खोखला दावा
वोटों की हिस्सेदारी पर नज़र डालने से बीजेपी के प्रचार का खोखलापन ज़्यादा साफ नज़र आता है। जम्मू का इलाका बीजेपी का गढ़ माना जाता रहा है, जहां से उसके पूर्व उप मुख्यमंत्री और एक मौजूदा केंद्रीय मंत्री हैं, यह हिन्दू-बहुल भी है। तो क्या जम्मू के अधिकांश लोगों ने जम्मू-कश्मीर की विशेष स्थिति को ख़त्म करने के फ़ैसले को स्वीकार कर लिया है? जम्मू में सिर्फ 37.3 प्रतिशत वोट पाने वाली बीजेपी यह दावा कैसे कर सकती है?
बीजेपी का दावा है कि लोगों ने विकास को वोट दिया है तो क्या कश्मीर घाटी के लोगों को विकास नहीं चाहिए? कश्मीर के सिर्फ 4.2 प्रतिशत लोगों ने बीजेपी को वोट दिया है।
ज़िला विकास परिषद चुनावों के नतीजों से यह भी साफ है कि सांप्रदायिक ध्रुवीकरण अपने चरम पर है। साल 2011 की जनगणना के अनुसार, कश्मीर घाटी में 96.4 प्रतिशत मुसलमान रहते हैं। जम्मू-कश्मीर के सभी ज़िलों को तीन श्रणियों में रखा जा सकता है। ऐसे 11 ज़िले जहाँ मुसलिम आबादी 90 प्रतिशत है, ऐसे चार ज़िले जहाँ हिन्दू आबादी 90 प्रतिशत है और ऐसे पाँच ज़िले जहाँ मिश्रित आबादी है, लेकिन मुसलमानों की तादाद 50 प्रतिशत से 70 प्रतिशत के बीच है। इस तरह से बंटे हुए समाज के चार हिन्दू-बहुल ज़िलों में ही बीजेपी अपनी कामयाबी का दावा कर सकती है।
इसे हम बेहतर ढंग से समझते हैं। बीजेपी को हिन्दू-बहुल 56 सीटों से में 86 प्रतिशत सीटों पर जीत हासिल हुई, लेकिन मुसलिम- बहुल 152 सीटो में से महज 2 प्रतिशत सीटों पर वह जीती।
क्यों खुश है बीजेपी?
इन आँकड़ों से इस सवाल का जवाब मिल जाता है कि क्या कश्मीर घाटी ने बीजेपी के फ़ैसले को मान लिया है। बीजेपी इस पर फूली नहीं समा रही है कि उसने पहली बार कश्मीर घाटी में तीन सीटें जीत लीं, पर वह भूल रही है कि डीडीसी के क्षेत्र लोकसभा व विधानसभा क्षेत्रों की तुलना में बहुत ही छोटे हैं और डीडीसी के चुनाव पहली बार हुए हैं, लिहाज़ा तुलना नहीं की जा सकती है। बीजेपी के लोग इस बात पर खुश हो सकते हैं कि पार्टी को कश्मीर घाटी में दो प्रतिशत वोट मिले हैं।
जम्मू-कश्मीर के कितने मतदाताओं ने डीडीसी चुनाव में भाग लिया, इस पर विचार करने से भयावह तसवीर उभरती है और निश्चित रूप से बीजेपी ही नहीं, पूरे देश के लिए चिंता का सबब होना चाहिए।
घाटी में 1980 के दशक में आतंकवाद लौटने के बाद से चुनाव में मतदाता प्रतिशत काफी कम रहा है। यह सबसे कम 44.97 प्रतिशत 2019 के लोकसभा चुनाव में था, जो 2014 के मतदाता प्रतिशत से 4.75 प्रतिशत कम था। कुछ सीटों पर तो बेहद कम था, मसलन, श्रीनगर में 14.43 प्रतिशत तो अनंतनाग मे 8.98 प्रतिशत। हद तो शोपियां और पुलवामा में हो गई, जहां सिर्फ 2.81 प्रतिशत लोगों ने मतदान किया।
डीडीसी के चुनाव में 51 प्रतिशत लोगों ने भाग लिया। लेकिन यह इसलिए कि जम्मू में 68 प्रतिशत मतदाताओं ने वोट डाले, कश्मीर घाटी में तो 34 प्रतिशत मतदाताओं ने ही अपने मताधिकार का इस्तेमाल किया।
निष्पक्ष चुनाव!
इन तमाम आँकड़ों के परे यह भी ध्यान में रखना चाहिए कि डीडीसी चुनाव में पीपल्स अलायंस के ज़्यादातर उम्मीदवारों को ठीक से प्रचार भी नहीं करने दिया गया। अधिकतर उम्मीदवारों को सुरक्षा के नाम पर घर से निकलने ही नहीं दिया गया, हालांकि उन्होंने इसकी शिकायत की और कहा था कि उन्हें सुरक्षा नहीं चाहिए, पर उनके साथ सुरक्षा कर्मी ज़बरन लगाए गए और प्रचार नहीं करने दिया गया।
कई लोगों को यूएपीए के तहत गिरफ़्तार कर लिया गया, कई लोगों ने जेल से ही चुनाव लड़ा।
ये पार्टियाँ लगभग साल भर से निष्क्रिय पड़ी हुई थीं को उनका पूरी लीडरशिप जेल में थी।
इसके अलावा पीडीपी प्रमुख महबूबा मुफ़्ती और नैशनल कॉन्फ्रेंस के मुखिया फ़ारूक़ अब्दुल्ला ने चुनाव प्रचार में भाग नहीं लिया।
अब्दुल्ला ने 'टाइम्स ऑफ़ इंडिया' से कहा कि वे यह नहीं चाहते थे कि अलायंस को सहानुभूति के वोट मिले। वे यह भी देखना चाहते थे कि जनता गुपकर डेक्लेरेशन के बारे में क्या सोचती है।
इन चुनावों से बीजेपी राज्य विधानसभा की बहाली और उसके चुनाव को फिलहाल टालने में कामयाब रही। जब तक वे चुनाव नहीं होते, राज्य की बहाली नहीं होती, अलायंस के बड़े नेताओं की कोई विधायिका भूमिका नहीं होगी। वे तब तक अपने संगठन को मजबूत कर सकते हैं, गुपकर की मांग को लेकर घर-घर जा सकते हैं, पर लंबे समय तक विधायिका का न रहना लोकतंत्र के लिए ठीक नहीं है। बीजेपी को इस पर खुश कतई नहीं होना चाहिए, ख़ास कर तब जब केंद्र में उसकी सरकार है।
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