प्रख्यात इतिहासकार और जेएनयू में प्रोफ़ेसर इमेरिटस रोमिला थापर ने कहा है कि जेएनयू प्रशासन द्वारा सीवी यानी जीवन परिचय एक ‘मक़सद’ से माँगा गया है और इसे भाँपना कोई मुश्किल काम नहीं है। उन्होंने कहा कि प्रोफ़ेसर इमेरिटस से सीवी माँगे जाने की ज़रूरत ही नहीं होनी चाहिए। जेएनयू के प्रोफ़ेसरों ने भी प्रशासन की इस कार्रवाई को ‘राजनीति से प्रेरित’ बताया है। फ़ैकल्टी मेंबरों ने कहा है कि एक बार चुने जाने के बाद इस पद पर शिक्षक जीवन भर बना रहता है। बता दें कि रोमिला थापर जेएनयू प्रशासन के हाल के उसके काम करने के तरीक़े से असहमत रही हैं और मुखर होकर आवाज़ उठाती रही हैं। वह मोदी सरकार की नीतियों की भी आलोचक रही हैं।
यह विवाद तब उठा जब अंग्रेज़ी अख़बार ‘द टेलीग्राफ़’ ने इस पर रिपोर्ट छापी जिसमें जेएनयू के रजिस्ट्रार प्रमोद कुमार ने पिछले महीने रोमिला थापर को पत्र लिखकर उनसे सीवी जमा करने को कहा था। वह भी तब जब जेएनयू के आधिकारिक वेबसाइट पर रोमिला थापर की सीवी पहले से ही पड़ी हुई है। ‘द क्विंट’ ने रोमिला थापर से बातचीत के आधार पर एक रिपोर्ट प्रकाशित की है। इसमें उन्होंने कहा है कि विश्वविद्यालय की एक वेबसाइट है और इस पर उन सभी संकाय सदस्यों के बारे में अप-टू-डेट जानकारी रहती है जो अभी भी जीवित हैं। उन्होंने कहा, ‘मैं मानती हूँ कि उनके पास सारी जानकारी है।’
रोमिला थापर ने इमेरिटस प्रोफ़ेसर पद को लेकर जेएनयू प्रशासन की समझ पर भी सवाल उठाए। उन्होंने कहा, ‘एक इमेरिटस प्रोफ़ेसर के शैक्षणिक कार्य का पुनर्मूल्यांकन करना यह दिखाता है कि एक इमेरिटस प्रोफ़ेसर श्रेणी से क्या मतलब है, इसकी कोई समझ नहीं है। यह विश्वविद्यालय द्वारा सेवानिवृत्त प्रोफ़ेसर के जीवन-काल की अकादमिक उपलब्धियों के लिए सम्मान का पद है। यह मौजूदा उपलब्धियों को लेकर दिया जाता है न कि भविष्य के काम को लेकर।’
‘द क्विंट’ के अनुसार, रोमिला थापर ने कहा, ‘ज़िंदगी भर के लिए यह पद है, क्योंकि यह उन पत्रों के अनुसार है जो मुझे पहली बार प्रोफ़ेसर इमेरिटस बनने के समय मिले थे। पद मानद है इसलिए पद के निर्धारण के अलावा, प्रोफ़ेसर या विश्वविद्यालय की ओर से कोई दायित्व नहीं हैं।’
प्रोफ़ेसर इमेरिटस का यह पद अकादमिक के लिए कोई वित्तीय लाभ नहीं पहुँचाता है। हाँ इतना ज़रूर है कि उसे अकादमिक कार्य करने के लिए केंद्र में एक कमरा आवंटित किया जाता है। वे कभी-कभी व्याख्यान देते हैं और शोध छात्रों को सुपरवाइज़ करते हैं।
रोमिला थापर ने कहा कि संस्थान में उनके पद के अनुसार विश्वविद्यालय को उनकी सीवी और उनके काम को पुनर्मूल्यांकन करने की ज़रूरत नहीं है।
बता दें कि प्रोफ़ेसर इमेरिटस पद के लिए अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त प्रोफ़ेसरों को ही चुना जाता है। जेएनयू में जिस सेंटर से कोई प्रोफ़ेसर सेवानिवृत्त होता है वही सेंटर उसके नाम को प्रस्तावित करता है। इसके बाद संबंधित बोर्ड ऑफ़ स्टडीज़ और विश्विद्यालय के अकादमिक परिषद और कार्यकारी परिषद मंजूरी देते हैं।
क्या राजनीति से प्रेरित है कार्रवाई है?
रोमिला थापर ने कहा, ‘पुनर्मूल्यांकन के लिए यह प्रस्ताव कार्यकारी परिषद द्वारा क्यों पारित किया गया था और मेरे और संभवतः दूसरों पर इसे क्यों लागू किया जा रहा है, इसके पीछे एक मक़सद है। और यह अनुमान लगाना कठिन नहीं है कि इसका मकसद क्या हो सकता है।' उन्होंने आगे कहा, ‘जेएनयू में हममें से कई लोगों ने वर्तमान में काम करने के तरीक़े से अपनी असहमति जताई है, और हम में से कुछ इसके बारे में काफ़ी मुखर रहे हैं।’
बता दें कि विश्वविद्यालय द्वारा अपनी कार्रवाई को मानक प्रक्रिया बताकर बचाव करने के बाद जेएनयू टीचर्स एसोसिएशन यानी जेएनयूटीए ने प्रशासन की रोमिला थापर के ख़िलाफ़ इस कार्रवाई को 'राजनीति से प्रेरित' बताया है।
‘द टेलीग्राफ़’ के अनुसार, नाम उजागर नहीं करने की शर्त पर जेएनयू के एक सीनियर फ़ैकल्टी मेंबर ने कहा, ‘यह पूरी तरह से राजनीति से प्रेरित क़दम है। प्रोफ़ेसर थापर शिक्षा के निजीकरण, संस्थानों की स्वायत्तता ख़त्म करने और जेएनयू सहित कई संस्थानों के मतभेद की आवाज़ को कुचलने जैसी नीतियों की घोर आलोचक रही हैं।’
मोदी की नीतियों की आलोचक रही हैं
रोमिला थापर मोदी सरकार की नीतियों की भी आलाचक रही हैं। उनकी किताब ‘द पब्लिक इंटलेक्चुअल इन इंडिया’ में नरेंद्र मोदी सरकार के कार्यकाल में बढ़ रही असहिष्णुता का आलोचनात्मक विश्लेषण किया गया है। इससे पहले भी वह कई मुद्दों पर सरकार की नीतियों का विरोध करती रही हैं।
2019 के लोकसभा चुनाव से ऐन पहले अप्रैल में इंडियन राइटर्स फ़ोरम की ओर से जारी अपील में अलग-अलग भाषाओं के 200 से अधिक लेखकों ने 'नफ़रत की राजनीति' के ख़िलाफ़ वोट करने की अपील की थी। इसमें रोमिला थापर का भी नाम था।
अक्टूबर 2015 में भी रोमिला थापर असहिष्णुता को लेकर काफ़ी मुखर रही थीं। तब देश के जाने माने इतिहासकारों ने 'देश में बढ़ रही असहिष्णुता और उसपर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की चुप्पी' पर आवाज़ उठाई थी। तब असहिष्णुता को लेकर फ़िल्मकारों सहित कई हस्तियों ने राष्ट्रीय पुरस्कार लौटा दिए थे।
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