भारत के कई पूर्व सूचना आयुक्तों ने केंद्र सरकार के द्वारा सूचना का अधिकार क़ानून में किये गये संशोधनों को ग़लत बताया है। इनमें देश के पहले सूचना आयुक्त वजाहत हबीबुल्ला भी शामिल हैं।
इसके अलावा शैलेश गाँधी, यशोवर्धन आज़ाद, दीपक संधू, एमएम अंसारी, एम. श्रीधर आचार्युलु और अन्नपूर्णा दीक्षित ने भी क़ानून में किए गए संशोधनों का विरोध किया है। आरटीआई कार्यकर्ता और विपक्षी पार्टियाँ भी आरटीआई क़ानून में संशोधन के विरोध में हैं।
इस बदलाव के तहत केंद्र सरकार को यह ताक़त दी गई है कि वह केंद्र और राज्य स्तर पर तैनात सूचना आयुक्तों का कार्यकाल और तनख़्वाह तय करे। सभी पूर्व सूचना आयुक्तों ने इस संशोधन को उनकी स्वायत्ता और लोगों को जानकारी मिलने के मूलभूत अधिकार पर हमला बताया है। उन्होंने सरकार से इन संशोधनों को वापस लेने की अपील की है।
पत्रकारों से बात करते हुए पूर्व सूचना आयुक्त यशोवर्धन आज़ाद ने कहा कि सरकार आरटीआई क़ानून को और ज़्यादा मजबूत करने, आयुक्तों की नियुक्ति में और ज़्यादा पारदर्शिता बरते जाने के बजाय इस क़ानून में संशोधन करने पर तुली हुई है। उन्होंने कहा कि जिस तरह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ‘मन की बात’ के लिए लोगों से सुझाव माँगते हैं, उसी तरह उन्हें लोगों से आरटीआई क़ानून में संशोधन करने के लिए सुझाव माँगने चाहिए थे।
वजाहत हबीबुल्ला ने कहा कि इसका कोई कारण नज़र नहीं आता कि सरकार को क़ानून में बदलाव करना पड़े। उन्होंने कहा कि इस क़ानून में किए गए संशोधनों को पास कराने के दौरान राज्यमंत्री जितेंद्र सिंह ने संसद में चालाकी भरे जवाब दिए लेकिन उनके तथ्य बेहद कमजोर थे।
शैलेश गाँधी ने सरकार की उस दलील को दरकिनार कर दिया जिसमें सरकार ने कहा था कि सूचना आयुक्तों के फ़ैसलों को हाई कोर्ट में चुनौती दी जा सकती है और उनका पद सुप्रीम कोर्ट के जजों के बराबर है और इस वजह से क़ानूनी बाधाएँ सामने आ रही हैं। गाँधी ने कहा कि सभी प्राधिकरणों के फ़ैसलों, यहाँ तक कि राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री तक के फ़ैसलों को भी हाई कोर्ट में चुनौती दी जाती है और उनका पद कभी फ़ैसलों को चुनौती देने में आड़े नहीं आता। गाँधी ने कहा कि सरकार इसे लेकर ईमानदार नहीं है कि वह यह संशोधन क्यों कर रही है।
बता दें कि मोदी सरकार ने हाल ही में लोकसभा में सूचना का अधिकार संशोधन बिल पास करा लिया है। संशोधन का विरोध करने वालों का मानना है कि सरकार नहीं चाहती कि वह लोगों के प्रति जवाबदेह हो। इनका आरोप है कि सरकार लोगों को सूचना नहीं देना चाहती है और इसलिए इस क़ानून को कमज़ोर करने के लिए इसमें बदलाव करना चाहती है। लेकिन सवाल यह है कि पारदर्शिता की बात करने वाली मोदी सरकार ये संशोधन करके जनता से क्या छिपाना चाहती है?
आरटीआई क़ानून के इस्तेमाल से नागरिकों को सरकारी विभागों से जानकारी लेने का मौक़ा मिला और भ्रष्टाचार पर लगाम लगी। इससे निश्चित रूप से लोकतंत्र मजबूत हुआ और सत्ता की निरंकुशता पर भी कुछ हद तक रोक लगी थी। लेकिन पिछले कुछ सालों में आरटीआई कार्यकर्ताओं को जान से भी हाथ धोना पड़ा है। यह इस बात से साबित होता है कि देश में आारटीआई का इस्तेमाल करने वाले 45 से ज़्यादा लोगों की हत्या हो चुकी है।
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