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रामदेव! ऐसे फर्जी दावों से देश की छवि खराब होती है

वैज्ञानिक स्तर पर प्रामाणिकता सिद्ध किए बग़ैर रामदेव ने कोरोना की दवा को पेश तो कर दिया, पर यह देश के लिए बेहद हानिकारक है। इससे दुनिया भर में भारत की बदनामी होती है, उसका मखौल उड़ता है। सरकार ने उसके प्रचार-प्रसार पर रोक तो लगा दी है, मगर क्या यह कार्रवाई काफी है? पेश है वरिष्ठ पत्रकार मुकेश कुमार की टिप्पणी।

मुकेश कुमार
ऐसे वक़्त में जब पूरा विश्व कोरोना संकट से जूझ रहा है, अगर रामदेव ने सचमुच महामारी की दवा खोज ली होती तो यह हमारे देश के लिए कितने बड़े गर्व की बात होती! हम सब बढ़-चढ़कर उसका ढिंढोरा पीटते, बल्कि प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति उसे लाँच करने के लिए आगे आते, उसको इतना प्रचारित करते कि दुनिया भर में भारत का डंका बजने लगता। पूरा विश्व खड़े होकर तालियाँ बजाकर वाह-वाह करता। आयुर्वेद का तो झंडा बुलंद हो जाता। 
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भारत का डंका!

कोरोना की दवा खोजने का महत्व भारत और दुनिया के लिए केवल इतना ही नहीं होता कि इससे अब कोरोना के मरीज़ों का इलाज़ हो जाएगा, बल्कि यह अर्थव्यवस्था के लिए भी अच्छी ख़बर होती। बीमारी की रोकथाम ही अर्थव्यवस्था को भी बेहतर होने का मार्ग प्रशस्त करता।
यह क्रांतिकारी खोज मानी जाती, रामदेव की खोज को हाथोंहाथ लिया जाता, उनकी जय जयकार की जाती। क्या पता वह नोबल पुरस्कार के दावेदार भी बन जाते!

कोई हलचल नहीं!

मगर ऐसा कुछ नहीं हुआ। कहीं कोई हलचल नहीं है, कोई ताली नहीं बजा रहा। दूसरे देशों ने कोई बधाई संदेश नहीं भेजा। अंतरराष्ट्रीय मीडिया ने उसका ज़िक्र तक नहीं किया। ट्रम्प ने अपने दोस्त को फ़ोन तक नहीं किया, न ही कोरोनिल का मोटा ऑर्डर ही दिया।
प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति तो छोडिए, किसी एक मंत्री ने ट्वीट तक नहीं किया। बीजेपी भी चुप है। संघ प्रमुख मोहन भागवत तक चुप्पी साधे हुए हैं। देश भर के जाने माने चिकित्सा संस्थान, शोध संस्थानों से इस दवा के आने पर खुशी ज़ाहिर नहीं की जा रही। 
कोई रामदेव की पीठ नहीं ठोंक रहा। कोई नहीं कह रहा कि पतंजलि शोध संस्थान ने कमाल कर दिया है। कोई यह नहीं कह रहा कि रामदेव को अब तो भारतरत्न दे ही दिया जाना चाहिए।

दावे में दम नहीं

ज़ाहिर है कि किसी को भी रामदेव के दावे में दम नहीं दिख रहा। उनकी तथाकथित खोज संदेहों से घिरी हुई है। उन्होंने यह दावा कर दिया कि उन्होंने कोरोना की दवा ढूँढ़ निकाली है और उसे बड़ी धूमधाम से लाँच भी कर दिया।
हमारी ‘पेड मीडिया’ ने उसे उसी अंदाज में बड़े स्तर पर प्रचारित भी करना शुरू कर दिया। आख़िर पतंजलि के विज्ञापनों से पोषित मीडिया को स्वामीभक्ति तो दिखानी ही थी। लेकिन इससे संदेह तो ख़त्म नहीं होने वाले थे और न ही हुए। 

दवा के प्रचार-प्रसार पर रोक

सोचिए कि वह आयुष मंत्रालय जिसका काम आयुर्वेद को बढ़ावा देना था, उसी ने एक झटके में रामदेव की कोरोनिल दवा के प्रचार-प्रसार की बिक्री पर रोक लगा दी। हालाँकि पहले उसने यह काम इंडियन कौंसिल फ़ॉर मेडिकल रिसर्च पर डालने की कोशिश की, मगर जब उसने कहा कि यह काम उसका नहीं आयुष मंत्रालय का है तो मजबूरन उसे वह फ़ैसला लेना पड़ा जिससे वह कतरा रहा था। 
आयुष मंत्रालय ने रामदेव से कोरोनिल के ट्रायल की पूरी जानकारियाँ माँगी हैं और रामदेव का कहना है कि उन्होंने वह दे भी दी हैं। हो सकता है कि डब्ल्यूएचओ और दूसरी अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं का भी ख्याल आया हो या जगहँसाई के डर से भी आयुष मंत्रालय को यह क़दम उठाना पड़ गया हो।

नूरा कुश्ती!

वैसे आयुष मंत्रालय का कुछ भरोसा नहीं है, क्योंकि वह रामदेव के प्रभाव से परिचित है। आयुष मंत्रालय में रामदेव का अच्छा-खासा दखल है। वर्तमान सरकार उनकी मदद करती और मदद लेती रही है।
इस बात के पूरे संदेह हैं कि यह रामदेव और सरकार के बीच की नूरा कुश्ती हो और कुछ समय बाद कुछ किंतु, परंतु के साथ रामदेव को यह दवा बेचने की अनुमति दे दी जाए।

अपराध

हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि ड्रग्स एंड मैजिक रेमेडीज़ एक्ट तो इस तरह के दावों को अपराध की श्रेणी में रखता है क्योंकि बिना पक्की तरह से प्रमाणित हुए इतने बड़े दावे करना सरासर धोखाधड़ी है। इसके लिए तो रामदेव के ख़िलाफ़ एफआईआर रजिस्टर की जानी चाहिए थी। लेकिन मंत्रालय ने ऐसा कुछ नहीं किया। बताने की ज़रूरत नहीं है कि उसने ऐसा क्यों नहीं किया होगा।

फर्जी दावे

वैसे रामदेव इस तरह के फ़र्ज़ी दावे पहले भी करते रहे हैं। उन्होंने पुत्रजीवक बटी, संजीवनी बूटी और इबोला की दवा बनाने के भी दावे किए थे, लेकिन सरकार ने उनके ख़िलाफ़ कभी कोई कार्रवाई नहीं की। ज़ाहिर है कि सत्ताधारियों से निकट संबंध होने का वह भरपूर लाभ उठाते हुए अपना कारोबार बढ़ाते जा रहे हैं।
अगर कोरोना की दवा बेचने का अवसर उन्हें मिल गया तो इसी से उनकी कंपनी का टर्नओवर कई गुना बढ़ जाएगा। 

आत्मघाती

लेकिन यह एक बहुत ही आत्मघाती परंपरा है और इससे हमारा मेडिकल सिस्टम और मेडिकल रिसर्च मज़ाक बनकर रह गया है। ऐसे नीम हकीम बाबाओं की खोजों से पूरी दुनिया में देश की बदनामी होती है। वैसे भी रिसर्च के मामले में हमारा प्रदर्शन बहुत घटिया है।
भले ही हम विश्वगुरु होने का दंभ पालें, विश्व में हम इस मामले में कहीं हैं ही नहीं। शोध पत्रों के प्रकाशन से लेकर शोध पत्रों की गुणवत्ता तक, हम हर जगह फिसड्डी हैं।

बहुत आगे है चीन

पेटेंट के मामले में भी हमारा यही हाल है। चीन हमसे मीलों आगे है। रामदेव टाइप अवैज्ञानिक शोध हमारी छवि को और भी गिराते हैं। हमें साँप- सँपेरे वाले देशों की श्रेणी में ही बनाए रखते हैं।  लेकिन आप कर भी क्या कर सकते हैं। यहाँ तो कुँए में ही भाँग घुली हुई है।

हमारे प्रधानमंत्री ही दावा करने लगते हैं गणेश जी का उदाहरण देकर कि प्लास्टिक सर्जरी बहुत पहले से थी। गोमूत्र और गोबर से रोगों के इलाज़ की बातें मंत्री करते हैं। स्वास्थ्य मंत्री हर्षवर्धन कह चुके हैं कि गाजर खाकर प्रदूषण से होने वाले रोगों से बचा जा सकता है।
जब सरकार के स्तर पर ऐसी चीज़ों को बढ़ावा दिया जाता है तो वह पूरे चिकित्सा जगत को प्रभावित किए बिना नहीं रहता। यही हो भी रहा है। 

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