मध्य वर्ग, निम्न मध्य वर्ग और उससे निचले तबक़े के लिए भारतीय प्रशासनिक सेवा (आईएएस) का अधिकारी बनने का सपना सबसे बड़ा होता है। इसमें रुतबा है। जलवा है। सुविधाएँ हैं। और सबसे बढ़कर...समस्याओं से जूझ रहे मध्य वर्ग के लिए कुछ कर पाने का सपना होता है क्योंकि इसी वर्ग से वह अभ्यर्थी निकलकर आया होता है।
केंद्र सरकार ने फ़ैसला किया है कि वह नौकरशाही में बाहर के क्षेत्रों से जानकारों को लाएगी। इसके लिए नई प्रणाली लागू की गई है। इसमें अभ्यर्थी की कोई परीक्षा नहीं ली जाएगी। इसे लैटरल एंट्री का नाम दिया गया है। अब तक इस नई प्रणाली से 9 अधिकारी नियुक्त हो चुके हैं। इन्हें विभिन्न मंत्रालयों में ज्वाइंट सेक्रेटरी का पदभार संभालना है। इनके अलावा 40 और अधिकारी निदेशक और डिप्टी सेक्रेटरी स्तर पर लिए जाने हैं।
यह पद विभिन्न मंत्रालयों में नीति निर्माण के होते हैं। अब तक आईएएस में चयनित लोगों को 10-15 साल के अनुभव के बाद यह पद संभालने का मौक़ा मिलता था। आईएएस अधिकारियों में भी जो कम उम्र में चयनित और क्रीम ब्रेन माने जाते थे, उन्हें यह पद दिए जाते रहे हैं। ये अधिकारी बहुत बड़ी ज़िम्मेदारी संभालते हैं और इन्हें मंत्रालय के लिए ऐसी नीतियाँ बनानी होती हैं, जो अरबपति उद्योगपतियों और देश की वंचित-पीड़ित देश की सवा सौ करोड़ जनता के हितों के बीच तालमेल बिठा सके। इन अधिकारियों के चयन के लिए संघ लोक सेवा आयोग (यूपीएससी) और राज्यों के लोकसेवा आयोग का प्रावधान संविधान के अनुच्छेद 315 से लेकर 323 तक किया गया है।
सरदार वल्लभ भाई पटेल ने देश की स्वतंत्रता के बाद गृह मंत्रालय संभालने के बाद आईएएस अधिकारियों की अहम भूमिका का उल्लेख किया है। भारत के विभाजन पर बड़ी संख्या में अंग्रेज अधिकारी ब्रिटेन लौट गए, वहीं भारत के अधिकारियों में बड़ी संख्या में लोग पाकिस्तान चले गए थे और पटेल को प्रशासन संभालने में अधिकारियों की कमी का सामना करना पड़ा था। रियासतों के विलय में सिविल सेवा अधिकारियों की अहम भूमिका रही और शुरुआत में वे रियासतों में केंद्र के प्रतिनिधि के तौर पर नियुक्त होते थे।
इन सभी महत्वों को देखते हुए देश के स्वतंत्रता सेनानियों और संविधान निर्माताओं ने सिविल सेवकों के चयन के तरीक़े से लेकर सिविल सेवा के गठन का मक़सद बहुत साफ कर दिया था। यह परिकल्पना की गई थी कि सरकार किसी की हो, परीक्षा प्रणाली और अपनी प्रतिभा से चयनित आईएएस अधिकारी संविधान की शपथ लेंगे और संविधान के मुताबिक़ काम करेंगे। उनकी निष्ठा व प्रतिबद्धता संविधान और देश की जनता के प्रति होगी, न कि किसी उद्योग घराने या किसी दबाव समूह के प्रति।
नीति निर्माण के पदों पर ग़ैर सिविल सेवकों की नियुक्ति पहले भी सरकारें करती रही हैं, लेकिन इनकी संख्या नगण्य रही है।
मनमोहन सिंह के नेतृत्व में जब संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (संप्रग-2) की सरकार चल रही थी तो अख़बारों के माध्यम से बहुत ज़बरदस्त दबाव बनाया गया कि सरकार को निजी क्षेत्र के प्रतिभाशाली लोगों को प्रशासन और नीति निर्माण के उच्च पदों पर लिया जाना चाहिए। मनमोहन सरकार ने इस अभियान पर ध्यान नहीं दिया। वहीं, नरेंद्र मोदी सरकार ने 2019 के लोकसभा चुनाव के मतदान के दौरान ही 9 ज्वाइंट सेक्रेटरी की नियुक्ति की घोषणा कर दी और इसे तमाम अख़बारों ने बड़ा फ़ैसला बताते हुए ख़ुशी का इजहार भी किया था। अब सरकार ने निजी क्षेत्र से कर्मचारियों को लेकर सीधे उन पदों पर बैठाने का फ़ैसला किया है, जिन पर अब तक वरिष्ठ आईएएस अधिकारी ही नियुक्त होते थे।
निजी क्षेत्र से प्रतिभाएँ लाने का तर्क बेहद घटिया और लचर प्रतीत होता है। आईएएस की परीक्षा इस समय भी सबसे ज्यादा प्रतिष्ठा की परीक्षा मानी जाती है।
देश के आईआईएम, आईआईटी, एम्स सहित जितने भी क्रीम संस्थान माने जाते हैं, उनसे पढ़कर निकलने वाले विद्यार्थियों का पहला सपना आईएएस बन जाने का होता है। ऐसे में यह कहना कि आईएएस परीक्षा पास करके आए अभ्यर्थियों की तुलना में निजी क्षेत्र से अधिकारियों को रख लेना ज़्यादा योग्य लोगों को लाना है, हास्यास्पद लगता है। हाँ, यह आरोप ज़रूर लग सकते हैं कि विभिन्न कॉर्पोरेट घरानों, रेटिंग एजेंसियों, दुनिया भर के बिजनेस घरानों के लिए काम करने वाली तमाम वैश्विक एजेंसियों से लोग नीति निर्माण के काम में आएँगे, जिनकी संविधान के प्रति निष्ठा संदेह से परे नहीं रह जाएगी। बार-बार यह सवाल उठने शुरू हो सकते हैं कि अधिकारी उन उद्योग घरानों, एजेंसियों के हित में काम कर रहे हैं, जहाँ से चयनित होकर वे मंत्रालय में आए हैं।
सरकार में साल दर साल यूपीएससी से आने वाली भर्तियाँ भी कम हो रही हैं। 2014 में यूपीएससी ने 1,236 अधिकारियों के नाम नियुक्तियों के लिए सरकार के पास भेजे थे जबकि 2018 में इनकी संख्या घटकर 759 रह गई। यानी सरकार का रुख पहले से ही साफ़ था कि आईएएस अधिकारियों की संख्या कम की जाए और निजी क्षेत्र से लोगों को लाकर भर्ती की जाए। ऐसे में प्रतिस्पर्धी परीक्षाओं की तैयारी कर रहे अभ्यर्थियों को कम मौक़ा मिलेगा।
यह मध्य वर्ग के सपने टूटने जैसा होगा। यह गाँवों में संघर्ष कर रहे किसानों, ग़रीबों, मजदूरों के बच्चों के सपनों की हत्या होगी, जो यह कल्पना करते थे कि उनका बेटा भी प्रतिस्पर्धा के बल पर नीति निर्माण करने वाले उच्चतम स्थानों पर पहुँच सकता है।
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