भारत की स्वास्थ्य व्यवस्था में सुधार पर मेडिकल जर्नल लांसेट से जुड़े सिटिज़न कमीशन ने भारत की वैक्सीन नीति में बदलाव के सुझाव दिए हैं। इसने कोरोना संक्रमण के ख़तरनाक स्तर तक फैलने से रोकने के लिए 8 सुझाव दिए हैं। इन प्रमुख सुझावों में से एक यह भी है कि कोरोना वैक्सीन को मुफ्त में लगाने के लिए खरीदने और बाँटने की एक केंद्रीय स्तर की व्यवस्था होनी चाहिए। यह भारत में मौजूदा व्यवस्था से अलग है। फ़िलहाल ख़रीदने और बांटने की ज़िम्मेदारी राज्यों पर डाली हुई है और मुफ़्त टीके का प्रावधान भी नहीं है।
पिछले 20 दिनों में यह दूसरी बार है कि लांसेट की ओर से भारत में कोरोना संकट को लेकर टिप्पणी की गई है। लांसेट ने इस महीने की शुरुआत में ही कोरोना से निपटने के प्रधानमंत्री मोदी के प्रयासों को लेकर तीखा आलोचनात्मक संपादकीय छापा था। पत्रिका ने लिखा था कि प्रधानमंत्री मोदी की सरकार कोरोना महामारी से निपटने से ज़्यादा आलोचनाओं को दबाने में लगी हुई दिखी।
अब लांसेट से जुड़े जिस सिटिज़न कमीशन ने सुझाव दिए हैं उसके लेखकों में 21 विशेषज्ञ हैं। इनमें क्रिश्चियन मेडिकल कॉलेज के गैस्ट्रोइंटेस्टाइनल साइंसेज विभाग में प्रोफेसर गगनदीप कांग, नारायण हृदयालय लिमिटेड बेंगलुरु के अध्यक्ष देवी शेट्टी, यूएसए के कैम्ब्रिज के हार्वर्ड टी.एच. चैन स्कूल ऑफ़ पब्लिक हेल्थ में प्रोफेसर विक्रम पटेल जैसे विशेषज्ञ शामिल हैं। उन्होंने कहा है कि भारत में कोरोना से तबाह हो रही ज़िंदगियों को बचाने का अभी भी समय है। सिटिज़न कमीशन ने जो सबसे अहम सुझाव दिया है उसमें से एक यह है कि कोरोना वैक्सीन को खरीदने और बांटने की ज़िम्मेदारी केंद्रीय स्तर पर होने और वैक्सीन मुफ़्त होने से राज्यों के बीच असमानता नहीं रहेगी।
लेख में कहा गया है कि 19 मई तक भारत की आबादी के सिर्फ़ 3 फ़ीसदी लोगों को ही संपूर्ण टीके लग पाये हैं। एक अनुमान के अनुसार हर महीने 25 करोड़ टीके की ज़रूरत है जबकि हर महीने सिर्फ़ 7-8 करोड़ ही देश में उपलब्ध हैं।
अन्य सिफारिशों में कहा गया है कि सामुदायिक जुड़ाव और सार्वजनिक भागीदारी हो, संसाधनों तक पहुँचने के लिए नागरिक समाज संगठनों पर कोई प्रतिबंध नहीं हो; संभावित संक्रमण के प्रति जिलों को सक्रिय रूप से तैयार करने और सक्षम बनाने के लिए आँकड़ों में पारदर्शिता होनी चाहिए और निगरानी के लिहाज से जीनोमिक सिक्वेंसिंग यानी जीनोम अनुक्रमण में तत्काल निवेश की ज़रूरत है।
कमीशन के लेखकों ने द लैंसेट में प्रकाशित लेख में लिखा है कि हम केंद्र और राज्य सरकारों से आह्वान करते हैं कि वे देश की आज़ादी के बाद सबसे बड़े मानवीय संकटों में से एक से निपटने के लिए एक-दूसरे के साथ और सभी क्षेत्रों में तत्परता और एकजुटता से काम करें।
बता दें कि लांसेट ने इस महीने की शुरुआत में लिखे अपने लेख में साफ़ तौर पर उस मामले का ज़िक्र किया था जिसमें कोरोना की स्थिति से निपटने के लिए कई लोगों ने ट्विटर पर प्रधानमंत्री मोदी की आलोचना की थी जिसे सरकार ने ट्विटर से हटवा दिया था।
पत्रिका ने लिखा था, 'कई बार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सरकार महामारी को नियंत्रित करने की कोशिश करने की तुलना में ट्विटर पर आलोचना को हटाने के लिए अधिक इरादे प्रकट करती दिखी है।'
कुंभ मेले और पाँच राज्यों में चुनाव के दौरान प्रचार रैलियों में कोरोना प्रोटोकॉल की धज्जियाँ उड़ाए जाने का ज़िक्र किया था। पत्रिका ने लिखा था, 'सुपरस्प्रेडर घटनाओं के जोखिमों के बारे में चेतावनी के बावजूद सरकार ने धार्मिक उत्सवों को आगे बढ़ने की अनुमति दी, जिसमें देश भर के लाखों लोग शामिल हुए। इसके साथ-साथ विशाल राजनीतिक रैलियाँ हुईं जिसमें कोरोना को नियंत्रित करने के उपायों की पालना नहीं हुई।'
पत्रिका ने यह भी कहा था कि जब कोरोना की पहली लहर धीमी पड़ गई और कोरोना के मामले कम आने लगे तो ढिलाई बरती गई। ऐसा तब हुआ जब कोरोना की दूसरी लहर की चेतावनी दी गई और नये स्ट्रेन के मामले सामने आने लगे थे।
संपादकीय में यह भी लिखा गया था कि अपनाए गए मॉडल से लगा कि ग़लती से यह मान बैठा गया कि भारत हर्ड इम्युनिटी के स्तर पर पहुँच गया है और इसलिए कोरोना के ख़िलाफ़ तैयारी नहीं की गई। जबकि हालात ये थे कि इंडियन काउंसिल ऑफ़ मेडिकल रिसर्च ने सीरो सर्वे से जनवरी में बताया था कि सिर्फ़ 21 फ़ीसदी जनसंख्या कोरोना के ख़िलाफ़ एंटी बॉडी विकसित कर पाई थी।
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