देश भर में एक के बाद एक मस्जिदों पर मुकदमे दायर किए जाने से रोकने के लिए सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश जस्टिस रोहिंटन नरीमन ने एक रास्ता बताया है। उन्होंने गुरुवार को कहा कि हालाँकि अयोध्या मामले में सुप्रीम कोर्ट का फ़ैसला धर्मनिरपेक्षता के लिए न्याय का मजाक था, लेकिन 1991 के पूजा स्थल अधिनियम की पुष्टि करने वाले फैसले के पांच पन्ने एक उम्मीद की किरण थे। उन्होंने कहा कि फ़ैसले के उन पाँच पन्नों को देश भर की निचली अदालतों और हाईकोर्टों में पढ़ाया जाना चाहिए।
जस्टिस नरीमन ने आगे कहा कि अयोध्या विवाद पर संविधान पीठ के फैसले के वे पांच पन्ने देश भर में चल रहे मुकदमे का जवाब हैं, जिसमें पहले कथित तौर पर मंदिरों के ऊपर बनाई गई मस्जिदों का सर्वेक्षण करने की मांग की गई है। बार एंड बेंच की रिपोर्ट के अनुसार जस्टिस नरीमन ने कहा, 'और यही संविधान पीठ इस पर पांच पन्ने खर्च करती है और कहती है कि धर्मनिरपेक्षता में यह सही है, जो मूल ढांचे का हिस्सा है कि आप पीछे नहीं देख सकते, आपको आगे देखना होगा।'
जस्टिस नरीमन अहमदी फाउंडेशन के उद्घाटन व्याख्यान में बोल रहे थे, जिसकी स्थापना भारत के 26वें मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति अजीज मुशब्बर अहमदी की स्मृति में की गई है। रिपोर्ट के अनुसार उन्होंने आगे कहा कि विभिन्न धार्मिक संरचनाओं के खिलाफ इस तरह के दावों को रोकने के लिए देश के हर जिला न्यायालय और उच्च न्यायालय में उन पांच पन्नों को पढ़ा जाना चाहिए।
मस्जिदों के नीचे मंदिर होने के दावे करने के मामले लगातार आ रहे हैं। अजमेर में ऐतिहासिक 'अढ़ाई दिन का झोंपड़ा' के लिए भी इसी तरह की मांग फिर से उठाई गई है। यह राज्य और देश की सबसे पुरानी मस्जिदों में से एक है। अजमेर के उप महापौर नीरज जैन ने दावा किया है कि यहाँ एक संस्कृत महाविद्यालय और मंदिर होने के साक्ष्य मिले हैं।
उत्तर प्रदेश के संभल में पहले मंदिर को कथित तौर पर तोड़कर मस्जिद बनाए जाने के दावे के बाद अदालत ने तो सर्वे का आदेश भी दे दिया था। इस पर हिंसा भी हो गई है। संभल में तनाव है। इससे पहले काशी और मथुरा में भी मस्जिदों को लेकर ऐसे ही दावे किए गए हैं।
मस्जिदों के निर्माण के लिए कथित तौर पर पहले नष्ट किए गए मंदिरों की 'पुनर्स्थापना' की मांग करने के लिए 2019 से सिविल अदालतों, विशेष रूप से उत्तर भारत में कई मामले दायर किए गए हैं।
पूजा स्थल अधिनियम - वह कानून जो 15 अगस्त 1947 को किसी भी पूजा स्थल को उसकी स्थिति से बदलने पर रोक लगाता है - फिलहाल शीर्ष अदालत के समक्ष चुनौती के अधीन है। जबकि 2019 में अयोध्या विवाद पर अपने महत्वपूर्ण फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने 1991 के कानून की सराहना की थी।
संविधान पीठ ने कहा था, 'सार्वजनिक पूजा स्थलों के धार्मिक चरित्र को 15 अगस्त 1947 को जिस रूप में वे मौजूद थे, उसके संरक्षण की गारंटी देने और सार्वजनिक पूजा स्थलों के रूपांतरण के खिलाफ संसद ने तय किया है कि औपनिवेशिक शासन से स्वतंत्रता प्रत्येक धार्मिक समुदाय को यह विश्वास दिलाकर अतीत के अन्याय को ठीक करने के लिए एक संवैधानिक आधार देती है कि उनके पूजा स्थलों को संरक्षित किया जाएगा और उनके चरित्र में कोई बदलाव नहीं किया जाएगा।' न्यायालय ने आगे कहा, 'यह न्यायालय हिंदू पूजा स्थलों के खिलाफ मुगल शासकों की कार्रवाई से उपजे दावों पर आज कानून की अदालत में विचार नहीं कर सकता। किसी भी व्यक्ति के लिए जो किसी भी प्राचीन शासकों की कार्रवाई के खिलाफ सांत्वना या सहारा चाहता है, कानून इसका जवाब नहीं है'।
संविधान पीठ ने कहा था, 'पूजा स्थल अधिनियम भारतीय संविधान के तहत धर्मनिरपेक्षता के प्रति हमारी प्रतिबद्धता को लागू करने के लिए एक अपरिवर्तनीय दायित्व बताता है। इसलिए यह कानून भारतीय राजनीति की धर्मनिरपेक्ष विशेषताओं की रक्षा के लिए बनाया गया एक विधायी साधन है, जो संविधान की मूल विशेषताओं में से एक है....।' न्यायमूर्ति नरीमन ने फैसले के इस पहलू की सराहना की।
बार एंड बेंच की रिपोर्ट के अनुसार जस्टिस नरीमन ने अपने संबोधन में बताया कि 1991 का कानून पूजा स्थलों को 15 अगस्त, 1947 के समय की स्थिति में स्थिर रखता है। उन्होंने कहा, 'आज हम देखते हैं कि जैसे पूरे देश में हाइड्रा हेड्स उभर रहे हैं, वैसे ही हर जगह मुकदमे दायर हो रहे हैं, न केवल मस्जिदों के संबंध में बल्कि दरगाहों के संबंध में भी। इन सभी को रोकने और इन सभी हाइड्रा हेड्स को जलाने का एकमात्र तरीका इसी निर्णय में इन पांच पृष्ठों को लागू करना और प्रत्येक जिला न्यायालय और उच्च न्यायालय के समक्ष इसे पढ़ना है। क्योंकि ये पांच पृष्ठ सर्वोच्च न्यायालय द्वारा कानून की घोषणा है जो उन सभी के लिए बाध्यकारी है।'
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