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जस्टिस नज़ीर पर हंगामा क्यों; क्या कांग्रेस सरकार में ऐसा नहीं हुआ?

कांग्रेस ने सुप्रीम कोर्ट के सेवानिवृत्त न्यायाधीश एस अब्दुल नज़ीर की राज्यपाल के रूप में नियुक्ति को लेकर सरकार पर हमला बोला है। इसने इस क़दम को न्यायपालिका की स्वतंत्रता के लिए एक बड़ा ख़तरा बताया। इसने ऐसी नियुक्तियों के ख़िलाफ़ दिवंगत बीजेपी नेता अरुण जेटली की उस टिप्पणी का हवाला दिया जिसमें उन्होंने कहा था कि 'सेवानिवृत्ति से पहले के निर्णय सेवानिवृत्ति के बाद की नौकरियों से प्रभावित होते हैं'।

कांग्रेस प्रवक्ता अभिषेक मनु सिंघवी ने एक संवाददाता सम्मेलन में रविवार को कहा था कि, "दुख की बात है कि आपके (भाजपा) नेताओं में से एक, जो अब हमारे बीच नहीं रहे, अरुण जेटली ने 5 सितंबर, 2013 को सदन में और बाहर कई बार कहा कि 'सेवानिवृत्ति के बाद की नौकरी की इच्छा सेवानिवृत्ति से पहले के निर्णयों को प्रभावित करती है। यह न्यायपालिका की स्वतंत्रता के लिए ख़तरा है।' जयराम रमेश ने तो जेटली के उस वीडियो बयान को साझा भी किया।

तो सवाल है कि कांग्रेस जिस तरह से बीजेपी नेता के बयान का हवाला देकर हमला कर रही है, क्या उसकी सरकार में कभी ऐसा नहीं हुआ। क्या सुप्रीम कोर्ट से रिटायर हुए जजों को कांग्रेस सरकार के दौरान कोई भी ऐसा पद नहीं दिया गया? 

इस सवाल के जवाब से पहले यह जान लें कि मौजूदा समय में सेवानिवृत्ति के बाद नियुक्ति का यह मामला आख़िर क्यों विवादों में है। दरअसल, मौजूदा सरकार ने रविवार को छह नए चेहरों को राज्यपाल के रूप में नियुक्त किया है, जिसमें 4 जनवरी को सेवानिवृत्त हुए जस्टिस एस ए नज़ीर नज़ीर भी शामिल हैं। वह 2019 के ऐतिहासिक अयोध्या का फैसला देने वाली सुप्रीम कोर्ट की बेंच का हिस्सा थे। जस्टिस नज़ीर 2017 के ट्रिपल तलाक फ़ैसले में 3: 2 अल्पसंख्यक राय का भी हिस्सा थे जिसमें उन्होंने कहा था कि यह प्रथा क़ानूनी रूप से वैध थी।

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अब सवाल है कि कांग्रेस के कार्यकाल में इस तरह से सुप्रीम कोर्ट से सेवानिवृत्त हुए जजों को क्या कोई पद नहीं दिया गया? 

इस सवाल का जवाब है- ऐसे पद देश की आज़ादी के तुरंत बाद से ही दिए जाते रहे हैं। यह चलन आजादी के तुरंत बाद ही शुरू हो गया था। 

एस. फ़ज़ल अली सर्वोच्च न्यायालय के पहले न्यायाधीश थे जो 1952 में अपनी सेवानिवृत्ति के ठीक एक सप्ताह बाद ओडिशा के राज्यपाल बने थे। 30 मई 1952 को वह सुप्रीम कोर्ट से सेवानिवृत्त हुए थे और 7 जून 1952 को राज्यपाल नियुक्त कर दिए गए थे।

इसके बाद 1958 में एक जज को नियुक्त किया गया था। बॉम्बे हाई कोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश एम.सी. छागला को संयुक्त राज्य अमेरिका में भारत का राजदूत बनाया गया था। बाद में वह यूके में उच्चायुक्त नियुक्त किये गये थे। उन्होंने तत्कालीन पीएम जवाहर लाल नेहरू, कार्यकारी पीएम गुलजारी लाल नंदा, लाल बहादुर शास्त्री और इंदिरा गांधी सरकार में शिक्षा मंत्री और विदेश मंत्री के रूप में भी काम किया।

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सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस बहरुल इस्लाम को सेवानिवृत्ति के बाद 1983 में इंदिरा गांधी सरकार में राज्यसभा के लिए नामांकित किया गया था। पूर्व सीजेआई जस्टिस रंगनाथ मिश्रा 1998 में कांग्रेस के टिकट पर राज्यसभा के सदस्य बने थे। सेवानिवृत्ति के तुरंत बाद न्यायमूर्ति रंगनाथ मिश्रा को नरसिम्हा राव सरकार ने NHRC की अध्यक्षता सौंप दी। जब केंद्र में एचडी देवेगौड़ा की सरकार थी तब सुप्रीम कोर्ट की पूर्व न्यायाधीश फातिमा बीवी 1997 में तमिलनाडु की राज्यपाल बनाई गईं। एचडी देवेगौड़ा की सरकार ग़ैर-कांग्रेसी और ग़ैर बीजेपी वाली, क्षेत्रीय दलों की सरकार थी।

जब 2014 में मोदी के नेतृत्व वाली बीजेपी सरकार आई तो उसने भी इस परंपरा को आगे बढ़ाया। इसने पूर्व सीजेआई पी सदाशिवम को सेवानिवृत्ति के बाद केरल का राज्यपाल बनाया। अब इसी मोदी सरकार ने जस्टिस एस ए नज़ीर को आंध्र प्रदेश का राज्यपाल बनाया है।
अयोध्या पर फ़ैसला देने वाली बेंच का नेतृत्व करने वाले पूर्व सीजेआई रंजन गोगोई को बीजेपी सरकार ने राज्यसभा के सदस्य के रूप में नामित किया था, न्यायमूर्ति अशोक भूषण को उनकी सेवानिवृत्ति के चार महीने बाद 2021 में राष्ट्रीय कंपनी कानून अपीलीय न्यायाधिकरण का अध्यक्ष नियुक्त किया गया था। लेकिन यह वही बीजेपी है जिसने रिटायरमेंट के बाद जजों की नियुक्ति को लेकर कांग्रेस सरकारों की आलोचना करती रही थी।
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2012 में जेटली, गडकरी ने क्या तर्क दिया था

2012 में पूर्व क़ानून मंत्री अरुण जेटली ने बीजेपी के क़ानूनी प्रकोष्ठ द्वारा आयोजित एक सम्मेलन में कहा था, 'न्यायाधीश दो प्रकार के होते हैं - वे जो कानून को जानते हैं और वे जो कानून मंत्री को जानते हैं।' उन्होंने कहा था, 'भले ही सेवानिवृत्ति की आयु हो, न्यायाधीश सेवानिवृत्त होने के इच्छुक नहीं हैं। सेवानिवृत्ति से पहले के निर्णय सेवानिवृत्ति के बाद की नौकरियों से प्रभावित होते हैं।'

तब नितिन गडकरी ने सुझाव दिया था कि न्यायाधीशों के सेवानिवृत्त होने के बाद और न्यायिक आयोगों या न्यायाधिकरणों में नियुक्त होने से पहले उनके लिए दो साल का इंतजार अनिवार्य होना चाहिए।' तब उन्होंने कहा था, 'मेरा सुझाव है कि सेवानिवृत्ति के बाद दो साल के लिए एक अंतराल होना चाहिए, क्योंकि अन्यथा सरकार प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से अदालतों को प्रभावित कर सकती है और देश में एक स्वतंत्र, निष्पक्ष और निष्पक्ष न्यायपालिका का सपना कभी साकार नहीं होगा।'

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क़मर वहीद नक़वी
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