संस्कृत वांङमय में प्राचीन भारत के छात्रों के लिए कहा जाता था- “काकचेष्टा बकोध्यानम्‌ श्वाननिद्रा तथैव च:। श्वल्पाहारी गृहत्यागी विद्यार्थिति पंच लक्षणम्‌॥” अर्थात्‌ विद्यार्थी को कौव्वे की तरह जानने (ज्ञानप्राप्ति) की सतत चेष्टा करते रहना चाहिए, बगुले की तरह ध्यान केंद्रित करना (पढ़ाई में) चाहिए, कुत्ते की तरह सजग और सचेत मुद्रा में सोना चाहिए, उसे पेटू नहीं होना चाहिए और घर के मोह से मुक्त होना चाहिए।