संस्कृत वांङमय में प्राचीन भारत के छात्रों के लिए कहा जाता था- “काकचेष्टा बकोध्यानम् श्वाननिद्रा तथैव च:। श्वल्पाहारी गृहत्यागी विद्यार्थिति पंच लक्षणम्॥” अर्थात् विद्यार्थी को कौव्वे की तरह जानने (ज्ञानप्राप्ति) की सतत चेष्टा करते रहना चाहिए, बगुले की तरह ध्यान केंद्रित करना (पढ़ाई में) चाहिए, कुत्ते की तरह सजग और सचेत मुद्रा में सोना चाहिए, उसे पेटू नहीं होना चाहिए और घर के मोह से मुक्त होना चाहिए।
देश के भविष्य को तबाही की राह पर ले जाएगी विश्वविद्यालयों में हो रही हिंसा
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- 16 Jan, 2020

जेएनयू सहित देश भर के विश्वविद्यालयों में हिंसा क्यों हो रही है? छात्रों को खुलेआम ‘अर्बन नक्सल’ क़रार दिया जा रहा है? सरकार की ज़िम्मेदारी क्या है?
लेकिन वर्तमान भारत में ये सारे लक्षण शीर्षासन करने लगे हैं। उपर्युक्त श्लोक विकृत ढंग से विद्यार्थियों से अधिक प्रशासकों पर सटीक बैठ रहा है। अध्यापकों और कुलपतियों की काकचेष्टा, बकोध्यान और श्वाननिद्रा शिक्षेतर गतिविधियों पर केंद्रित होकर रह गई है। राजनीति के ओवरडोज़ ने शैक्षणिक संस्थानों को स्कोर सेटल करने के अखाड़ों में तब्दील कर दिया है और छात्र इस या उस विचारधारा का झंडा उठाने वाले कार्यकर्ता बन कर रह गए हैं!
इसे दुर्भाग्य नहीं तो और क्या कहा जाए कि भारत के जिन विश्वविद्यालय कैम्पसों को छात्रों के सर्वांगीण विकास का स्वर्ग होना चाहिए था, विभिन्न मान्यताओं, सिद्धांतों और शिक्षण-पद्धतियों का कोलाज बनना था, आज वे बदले की राजनीति, असहिष्णुता, वैचारिक सफ़ाए और दुर्भावनापूर्ण कार्रवाइयों की आश्रय-स्थली बन गए हैं! हिंसा इक्कीसवीं शताब्दी के इस दशक की अखिल विश्वविद्यालयी परिघटना रही है। अब तो छात्रों को खुलेआम ‘अर्बन नक्सल’ क़रार दिया जा रहा है और उनकी अभिभावक केंद्र सरकार तथा कुलाधिपति खामोश हैं, असंख्य पूर्व छात्रों की प्रतिष्ठा दाँव पर लगी होने के बावजूद विश्वविद्यालयों के सांस्थानिक रहनुमा धृतराष्ट्र बने बैठे हैं!
विजयशंकर चतुर्वेदी कवि और वरिष्ठ पत्रकार हैं। उन्होंने कई मीडिया संस्थानों में काम किया है। वह फ़िलहाल स्वतंत्र रूप से पत्रकारिता करते हैं।