इतिहास गवाह है कि एक कट्टर और रूढ़िवादी भारतीय समाज में हिंदू और मुसलिम महिलाएँ 1857 के पहले भारतीय स्वतंत्रता संग्राम से पहले बड़े पैमाने पर सड़कों पर कभी नहीं उतरी थीं। और अब हमारी आँखों के सामने इतिहास बन रहा है। धार्मिक भेदभाव को हवा देने वाले नागरिकता संशोधन अधिनियम यानी सीएए और राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर यानी एनआरसी के विरोध में करोड़ों भारतीय नागरिकों के साथ हिंदू-मुसलिम महिलाएँ कंधे से कंधा मिलाकर देशव्यापी आंदोलन कर रही हैं। कोलकाता में पिछले हफ़्ते एक युवती ने अपने हाथ में जो तख्ती थाम रखी थी, उस पर लिखा संदेश वर्तमान संदर्भों में बेहद मानीखेज है- ‘मेरे पिता जी को लगता है कि मैं इतिहास की पढ़ाई कर रही हूँ; वे नहीं जानते कि मैं इतिहास रचने में मुब्तिला हूँ।’
नागरिकता क़ानून: पुलिस की लाठी से भी बैख़ौफ़ महिलाएँ सड़कों पर क्यों?
- विचार
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- 4 Jan, 2020

धार्मिक भेदभाव को हवा देने वाले नागरिकता क़ानून और एनआरसी के विरोध में करोड़ों भारतीय नागरिकों के साथ हिंदू-मुसलिम महिलाएँ कंधे से कंधा मिलाकर देशव्यापी आंदोलन कर रही हैं।
दिल्ली के जामिया नगर स्थित मुसलिम बहुल मोहल्ले शाहीन बाग़ की महिलाएँ बीते दो हफ़्तों से ज़्यादा समय से सीएए और एनआरसी के ख़िलाफ़ अहिंसक प्रदर्शन करती आ रही हैं। कुछ महिलाएँ तो कई दिनों से घर ही नहीं गई हैं, अन्य महिलाएँ अपने बाल-बच्चों के साथ धरने पर बैठी हैं। अशिक्षित होने के बावजूद अनगिनत महिलाएँ इस बात से पूरी तरह वाक़िफ़ हैं कि राष्ट्रव्यापी एनआरसी लागू करने की सरकारी योजना में दाँव पर क्या लगा हुआ है। ये सभी समझती हैं कि महिलाएँ ज़्यादा असुरक्षित एवं सहज शिकार बन जाने की स्थिति में होती हैं: संपत्ति के कागजात आमतौर पर पुरुषों के नाम पर होते हैं, और कइयों के पास तो भारतीय नागरिकता साबित करने के लिए ज़रूरी दस्तावेज़ ही नहीं हैं।
विजयशंकर चतुर्वेदी कवि और वरिष्ठ पत्रकार हैं। उन्होंने कई मीडिया संस्थानों में काम किया है। वह फ़िलहाल स्वतंत्र रूप से पत्रकारिता करते हैं।