भारत और अमेरिका के बीच ‘टू प्लस टू’ वार्ता की तीसरी सालाना बैठक के नतीजों से साफ है कि भारत अब चीन के ख़िलाफ़ अमेरिकी खेमे में खुलकर आ गया है। हालांकि अमेरिका दो दशक पहले से ही काफी गम्भीरता से भारत को अपने खेमे में लाने की कोशिश कर रहा था, लेकिन भारत में इसके लिये राजनीतिक आम राय नहीं बन सकी थी। मनमोहन सिंह की अगुवाई वाली यूपीए सरकार वामदलों का समर्थन नहीं मिलने से आगे नहीं बढ़ सकी थी।
अब नरेन्द्र मोदी की अगुवाई में स्पष्ट बहुमत वाली बीजेपी सरकार के लिये यह मुमकिन हो सका है कि चीन विरोध की भारत और दुनिया में बह रही हवा के बीच वह अमेरिका के साथ दूरगामी महत्व के ऐसे सामरिक व रक्षा सहयोग समझौता कर सकी है। इससे भारत अमेरिका से आगामी कई दशकों तक के लिये तब तक जुड़ा रहेगा, जब तक चीन भारत और अमेरिका दोनों की बुनियाद हिलाने वाली हरकतें करता रहेगा।
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नया समीकरण
भारत और अमेरिका का इस तरह खुलकर साथ आना दुनिया में नये सामरिक समीकरण के उभरने का सूचक है। अमेरिका में आगामी तीन नवम्बर को हो रहे राष्ट्रपति चुनाव की व्यस्तताओं के बीच मात्र एक सप्ताह पहले इस बैठक के लिये अमेरिकी विदेश और रक्षा मंत्रियों माइक पॉम्पियो और मार्क एस्पर का नई दिल्ली आना भारत के साथ रिश्तों की चार खम्भों की बुनियाद पर एक इमारत खडी करना अमेरिकी प्रशासन की गम्भीरता का सूचक है। भारत के साथ रिश्तों को मजबूती देने को लेकर अमेरिका के दोनों दलों में आम राय विकसित हो चुकी है।माना जाना चाहिये कि अमेरिका में यदि डेमोक्रेट जो बाइडन की भी सरकार बनती है तो वह भी भारत अमेरिका के रिश्तों के चार खम्भों की बुनियाद को मजबूत करने के लिये और सीमेंट डालने से नहीं हिचकेगी।
तोक्यो बैठक
अमेरिकी अगुवाई वाले चार देशों के इस नये खेमे को खड़ा करने के लिये गत 6 अक्टूबर को ही तोक्यो में चारों देशों भारत, अमेरिका, जापान और ऑस्ट्रेलिया की बैठक हुई थी। इसके बाद ऑस्ट्रेलिया को साथ लेकर इन चार देशों की नौसेनाओं के बीच साझा नौसैनिक अभ्यास मालाबार करने का भारत द्वारा ऐलान कर यह संकेत दिया गया है कि चार देशों के गुट क्वाड का अपना सैन्य मंच भी होगा। इस नए खेमे में अमेरिका के साथी देश शामिल हैं।दूसरी ओर, चीन अकेला अपने बलबूते इन चारों देशों के साथ मुक़ाबला करता हुआ नज़र आएगा। यह बैठक चीन से नाराज़गी के विश्व माहौल और भारतीय सीमा पर चीनी सैनिकों के साथ चल रही तनातनी के बीच हुई है, इसलिये भारत में इस बैठक को लेकर आम जनता में भारी रुचि भी पैदा हुई है।
भारत में अमेरिकी दिलचस्पी
भारत और अमेरिका के बीच यहाँ हुई चौथी रक्षा व विदेश मंत्रिस्तरीय वार्ता के नतीजों का आभास पहले से था कि दोनों देशों के बीच दूरगामी महत्व का ‘बेका’ (बेसिक एक्सचेंज एंड कोऑपरेशन एग्रीमेंट) समझौता सम्पन्न हो जाएगा। भविष्य में भारत और अमेरिका के रक्षा रिश्तों की इमारत ‘बेका’ के पहले किये गए तीन समझौतों ( 2018 में सिसमोआ, 2016 में लेमोआ और 2002 में जनरल सिक्योरिटी ऑफ़ द मिलिट्री इनफॉर्मेशन एग्रीमेंट ) की बुनियाद पर खड़ी होगी।शीतयुद्ध का दौर नब्बे के दशक के शुरू में ख़त्म होने के बाद से ही अमेरिका की कोशिश थी कि वह भारत को अपने खेमे में ले आए। इसी इरादे से 1992 में भारत और अमेरिका के बीच द्विपक्षीय नौसैनिक अभ्यास मालाबार शुरू किया गया था।
'बेका'
विदेश और रक्षा मंत्रियों की साझा बैठक के बाद जारी साझा बयान की वजह से भारत और अमेरिका के बीच हालांकि कोई गठजोड़ जैसा रिश्ता बना नहीं कहा जा सकता है, लेकिन जिस तरह भारत और अमेरिका ने चौथा फाउंडेशन (बेका) समझौता कर इस इमारत के चौथे और अंतिम खम्भे को खड़ा कर इस पर सामरिक रिश्तों का ढाँचा ज़रूर प्रदान कर दिया है ।इससे चीन और पाकिस्तान का चिंतित होना उनकी कड़ी प्रतिक्रिया से पता चलता है। लेकिन जिस तरह चीन विरोध की बुनियाद पर दोनों देशों ने अपने रिश्तों की बुनियाद को मज़बूती देने की कोशिश की है, यह आभास होता है कि आने वाले सालों में चीन भारत-अमेरिका के विरोधी खेमे में खड़ा होगा। भारत, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, जापान सहित अन्य समान विचार वाले देश चीन की बुनियाद को हिलाने में एकजुट होंगे।
ताज़ा क़रार
27 अक्टूबर को नई दिल्ली में भारत अमेरिका के बीच जो चौथा फाउंडेशन अग्रीमेट किया गया है, उसमें एक दूसरे के आसमान, ज़मीनी और समुद्री इलाक़ों में सैन्य ठिकानों की अहम जानकारी एक दूसरे को प्रदान करनी होगी।इससे यह होगा कि भारतीय हमलावर ड्रोन, मिसाइलें और हमलावर विमान चीन के अहम सैनिक ठिकानों को आसानी से निशाना बना सकेंगे, क्योंकि अमेरिकी उपग्रह और सेंसरों की वजह से भारतीय शस्त्र प्रणालियों को उनके सटीक ठिकाने की जानकारी मिल सकेगी।
सिगनल पाकर भारतीय मिसाइलों से चीनी सैन्य ठिकानों पर अचूक वार किया जा सकेगा। चीन के लिये यही चिंताजनक बात होगी।
अंतरिक्ष युद्ध
चीन को सबसे बड़ी चिंता अंतरिक्ष में स्थापित अपने सैन्य और अन्य संचार उपग्रहों की सुरक्षा की होगी, जिनकी बदौलत चीन अपनी सैन्य ताक़त का विस्तार करता है। दो दशक पहले जब अमेरिका ने भारत के साथ सामरिक और रक्षा सम्बन्धों की ज़रूरत समझी थी। भारत 1998 के परमाणु परीक्षणों की वजह से लगे प्रतिबंधों की मार से उबर ही रहा था कि अमेरिका ने भारत को अपने साथ लेने का यह प्रस्ताव भेजा। तब से वह भारत और अमेरिका के बीच इन चारों फाउंडेशन समझौतों को सम्पन्न करने पर जोर देता रहा है। लेकिन भारतीय राजनयिक और राजनीतिक नेतृत्व की हिचक की वजह से इन समझौतों पर हस्ताक्षर नहीं हो सके।
वास्तव में 2004 से 2014 तक भारत में कांग्रेस अगुवाई में जो गठबंधन सरकार मनमोहन सिंह की सरकार चल रही थी, वह पहले कार्यकाल में वामपंथी दलों की वजह से अमेरिका के प्रस्तावों को मंजूर नहीं कर सकी।
लेकिन अब एनडीए की नरेन्द्र मोदी की सरकार को स्पष्ट बहुमत की सरकार को अमेरिका के साथ अमेरिका के साथ इस तरह के समझौतों को सम्पन्न करना इसलिये मुमकिन हो सका है।
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