पौराणिक कथा है कि सुरों और असुरों के बीच हुए समुद्र मंथन से निकले अमृत की छीना-झपटी में जिन चार स्थानों पर अमृत की बूँदें गिरीं और वहीं हर बारह साल बाद कुम्भ का आयोजन होने लगा। लेकिन इस कहानी की एक दार्शनिक व्याख्या यह बताती है कि मन के अंदर बसे शुभ और अशुभ विचारों के बीच होने वाले मंथन से अमृत निकलता है। यह वाद-विवाद और संवाद की परंपरा है जो ज्ञान का परिमार्जन करता है। कुम्भ इस दृष्टि से अनोखा आयोजन है कि विभिन्न मतों के व्याख्याकार एक साथ महीने भर तक प्रवास करते हैं। यह निश्चित तिथियों पर वैचारिक विमर्श का बड़ा अवसर होता है जिसके लिए किसी निमंत्रण की नहीं, एक अदद पंचांग की ज़रूरत होती है।