पौराणिक कथा है कि सुरों और असुरों के बीच हुए समुद्र मंथन से निकले अमृत की छीना-झपटी में जिन 12 स्थानों पर अमृत की बूँदें गिरीं और वहीं हर बारह साल बाद कुम्भ का आयोजन होने लगा। लेकिन इस कहानी की एक दार्शनिक व्याख्या यह बताती है कि मन के अंदर बसे शुभ और अशुभ विचारों के बीच होने वाले मंथन से अमृत निकलता है। यह वाद-विवाद और संवाद की परंपरा है जो ज्ञान का परिमार्जन करता है। कुम्भ इस दृष्टि से अनोखा आयोजन है कि विभिन्न मतों के व्याख्याकार एक साथ महीने भर तक प्रवास करते हैं। यह निश्चित तिथियों पर वैचारिक विमर्श का बड़ा अवसर होता है जिसके लिए किसी निमंत्रण की नहीं, एक अदद पंचांग की ज़रूरत होती है।
2024 के प्रयाग कुम्भ के आयोजन को भव्य बनाने में योगी आदित्यनाथ की सरकार ने कोई कसर नहीं छोड़ी है, लेकिन संवाद की यह मूल बात ही बिसरा दी गयी है। जो बात मेले में 'मुसलमानों को न घुसने देने’ से शुरू हुई थी, वह अब आर्यसमाजियों पर भी लागू की जा रही है। शंकराचार्य अविमुक्तेश्वरनंद ने एक टीवी चैनल से बात करते हुए साफ़ कहा है कि ‘गंगा स्नान से पुण्य न मिलने’ की बात करने वाले आर्यसमाजियों के लिए भी कुम्भ प्रवेश वर्जित होना चाहिए।
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शंकराचार्य अविमुक्तेश्वरानंद ने आर्यसमाज की मान्यता को लेकर जो कुछ कहा, वह तथ्य है, लेकिन उन्होंने कुम्भ-प्रवेश रोकने की बात कहकर संवाद की मूल भावना से उलट राय रखी है। शायद वे भूल गये कि आर्यसमाज के संस्थापक स्वामी दयानंद सरस्वती ने 1867 के हरिद्वार कुम्भ में ‘पाखण्ड खण्डिनी पताका’ फहराकर तमाम अवैदिक मान्यताओं को चुनौती दी थी। तब किसी ने इसे बुरा नहीं माना था, न उनके कुम्भ प्रवेश पर रोक लगाने की माँग की थी।
बहरहाल शंकराचार्य के बयान ने दयानंद सरस्वती के जीवन की इस अहम घटना को याद आने का अवसर दिया है।आर्यसमाज की स्थापना अभी नौ वर्ष दूर थी ( वेदों को एक मात्र प्रमाण मानने वाले आर्य समाज की स्थापना 1875 में बम्बई में हुई थी) स्वामी दयानंद सरस्वती कुम्भ शुरू होने से एक महीने पहले ही हरिद्वार पहुँच गये थे।उन्होंने सप्तस्रोत के पास गंगा की रेती पर कुछ छप्पर डाले और बीच में एक पताका फहराई जिस पर लिखा था ‘पाखण्ड खण्डिनी!’
अजमेर की परोपकारिणी सभा द्वारा प्रकाशित आर्यसमाज के संस्थापक स्वामी दयानंद सरस्वती के जीवन चरित में लिखा है, “स्वामी दयानंद ने मेले में एकत्र हुए हिंदू-समाज को देखा और सम्पूर्ण समाज को एक ही बीमारी का शिकार पाया। क्या शैव, क्या वैष्णव, क्या संन्यासी, क्या वैरागी, सब एक ही धुन में मस्त हैं सब एक ही लीक के राही हैं। सुधार की प्रारम्भिक दशा में स्वामी जी ने शैवों को वैष्णवों से कुछ ऊँचा ठहराया था: कुम्भ पर देखा कि सब एक ही थाली के चट्टे-बट्टे हैं। न वे पूरे ज्ञानी हैं और न ये अधिक अज्ञानी हैं। जो थोड़ा-सा साम्प्रदायिक भेद हृदय में में विद्यमान था गंगा के विमल जल में धुल गया।” (पेज 38, ‘महर्षि दयानंद’, लेखक- इंद्र विद्यावाचस्पति)
दयानंद सरस्वती द्वारा फहराई गयी यह ‘पाखण्ड खण्डिनी पताका’ कुम्भ में एकत्र हुए तमाम संत-महात्माओं को शास्त्रार्थ की चुनौती थी। उस समय स्वामी दयानंद अपने सुधार कार्यक्रम के पहले चरण में थे और घूम-घूमकर शास्त्रार्थों के ज़रिए कई प्रचलित मान्यताओं को ‘गप्प’ बताकर उनका खंडन करते थे। स्वामी दयानंद मूर्तिपूजा को ‘वेद-विरुद्ध’ बताकर उसका खंडन करते थे। यही नहीं, पुराणों को भी कपोल-कथाएँ बताते थे। उनका कहना था कि वेदों में न मूर्तिपूजा और अवतारों का कोई स्थान नहीं है और ‘ईश्वर-वाणी’ वेद ही एकमात्र प्रमाण हैं। उन्होंने ‘वेदों की और लौटो’ का नारा दिया था।
उस कुम्भ में युवा दयानंद सरस्वती के तेजस्वी और निडर प्रवचनों को सुनने के लिए भारी संख्या में भीड़ जुटी। वहीं पर काशी के प्रसिद्ध विद्वान स्वामी विशुद्धानंद के साथ ऋग्वेद के पुरुष-सूक्त को लेकर उनकी मुठभेड़ भी हुई, लेकिन न किसी ने स्वामी दयानंद पर हमला किया और न अपमान। ‘पाखण्ड खण्डिनी पताका’ शान से फहराते हुए शास्त्रार्थ की चुनौची देती रही। यह कोई अनोखी बात भी नहीं थी। कुम्भ की यही परंपरा रही है।
राजा हर्षवर्धन के समय प्रयाग में बड़े ‘धार्मिक आयोजन’ की बात चीनी यात्री ह्वेनसांग ने लिखी है। इसमें सिर्फ़ सनातनधर्मी नही बौद्धों की उपस्थिति का भी वर्णन है। तीन माह तक चलने वाले इस आयोजन का विवरण देते हुए ह्वेनसांग लिखता है- “ चौथे दिन सम्राट ने दस हज़ार बौद्ध भिक्षुओं को दान दिया। प्रत्येक भिक्षु को सोने के सौ सिक्के, एक मोती, एक सूती वस्त्र अनेक प्रकार के खाद्य-पेय, फूल और सुगंध भेंट किये गये। अगले बीस दिनों तक ब्राह्मणों को दान दिया गया।” ( पेज 219, प्राचीन भारत, लेखक-आर.सी.मजूमदार)
यह याद रखना चाहिए कि बौद्धों को वेदों को न मानने की वजह से नास्तिक कहा जाता था। यानी इस आयोजन में वेद को प्रमाण मानने वाले और न मानने वाले दोनों उपस्थित थे। किसी को पुराण आधारित ‘धार्मिक आयोजन’ में शामिल होने से रोका नहीं गया था। वाद-विवाद-संवाद की इसी परंपरा के तहत आदि शंकराचार्य भी कुमारिल भट्ट से शास्त्रार्थ करने प्रयाग कुम्भ पहुँचे थे लेकिन अपने बौद्ध गुरु के साथ विश्वासघात के पश्चाताप में भट्ट ने आत्मदाह कर लिया और शास्त्रार्थ न हो सका। आदि शंकराचार्य ने ही सन्यासियों को अखाड़ों में संगठित किया था जो आज कुम्भ की सबसे व्यवस्थित पहचान हैं।
कुम्भ में वाद-विवाद का एक संबंध मुग़ल सम्राट अकबर से भी जुड़ता है। अकबर ने सामरिक दृष्टि से महत्वपूर्ण मानते हुए 1575 में संगम पर एक मज़बूत क़िला बनवाया था। इस क़िले में उसने एक इबातख़ाना भी बनवाया था ताकि विभिन्न धर्मों के विषय में चर्चा हो सके। साथ ही यहाँ की पवित्रता को सम्मान देते हुए इलाहाबास (ईश्वर का घर) नाम से नगर भी बसाया।वह कुम्भ में होने वाली धार्मिक चर्चाओं से काफ़ी प्रभावित था।
प्रयाग का अर्थ संगम होता है। जहाँ भी दो नदियों का संगम होता है उसे प्रयाग कहा जाता है, जैसे देवप्रयाग, कर्णप्रयाग, रुद्रप्रयाग आदि उत्तराखंड में हैं। लेकिन तीर्थराज तो वही प्रयाग कहा जाता है जहाँ दो नदियों यानी गंगा-यमुना के साथ सरस्वती की त्रिवेणी है। इस संगम में सरस्वती का संगम एक रूपक है। सरस्वती को ज्ञान की देवी कहा जाता है यानी तीर्थराज बनने के लिए ज्ञान का होना भी ज़रूरी है।
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ज्ञान बिना वाद-विवाद और संवाद के संभव नहीं। लेकिन आज की स्थिति में कोई कुम्भ में पाखण्ड खण्डिनी पताका फहराने का सोच भी नहीं सकता। ऐसी किसी भी कोशिश को ‘देशद्रोह’ और ‘आतंकवाद’ से जोड़ने के लिए शासन-प्रशासन तैयार खड़ा है। भिन्न मतों का प्रवेश वर्जित करने वाले दरअसल संगम से सरस्वती का लोप करना चाहते हैं। यह कुम्भ की शास्त्रार्थ परंपरा के विरुद्ध है।
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