भारत के 25 हाईकोर्टों में वर्तमान में कार्यरत 769 न्यायाधीशों में से सिर्फ 95, यानी मात्र 12.35%, ने अपनी संपत्ति और देनदारियों को सार्वजनिक रूप से घोषित किया है। इस आंकड़े ने न्यायपालिका में पारदर्शिता और जवाबदेही के मुद्दों पर एक गंभीर बहस को जन्म दे दिया है। रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि हाल ही में सुप्रीम कोर्ट के सभी 33 जजों ने अपनी संपत्ति को सार्वजनिक करने का निर्णय लिया है, जो एक पॉजिटिव कदम है। लेकिन हाईकोर्टों में यह स्थिति चिंताजनक बनी हुई है।
एक रिपोर्ट में बताया गया है कि कुछ हाईकोर्टों ने संपत्ति घोषणा के मामले में बेहतर प्रदर्शन किया है। जिनमें केरल और हिमाचल प्रदेश प्रमुख है।
- केरल हाईकोर्ट: 44 में से 41 जजों (93.18%) ने अपनी संपत्ति घोषित की है। देश में यह एक बेहतरीन मिसाल है।
- हिमाचल प्रदेश हाईकोर्ट: 12 में से 11 जजों (91.66%) ने अपनी संपत्ति का खुलासा किया है।
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हालांकि, यह स्थिति सभी हाईकोर्टों में एकसमान नहीं है। दिल्ली हाईकोर्ट के संग्रह में 64 पूर्व जजों की संपत्ति घोषणाएं सूचीबद्ध हैं, जिनमें से कई रिटायर हो चुके हैं, ट्रांसफर हो गए हैं, या सुप्रीम कोर्ट में पदोन्नत हुए हैं। इनमें से कुछ घोषणाएं फरवरी 2010 तक की हैं, जो दर्शाता है कि वर्तमान में कार्यरत जजों की तुलना में पूर्व जजों की जानकारी अधिक उपलब्ध है।
सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में पारदर्शिता की दिशा में एक बड़ा कदम उठाया है। 1 अप्रैल, 2025 को हुई एक पूर्ण अदालत बैठक में, सभी 33 सुप्रीम कोर्ट जजों, जिसमें भारत के चीफ जस्टिस संजीव खन्ना भी शामिल हैं, ने अपनी संपत्ति को सार्वजनिक करने का फैसला किया। यह जानकारी अब सुप्रीम कोर्ट की आधिकारिक वेबसाइट पर उपलब्ध है। यह निर्णय उस प्रथा से एक महत्वपूर्ण बदलाव को दर्शाता है, जिसमें संपत्ति घोषणा पूरी तरह से जजों के विवेक पर निर्भर थी।
अगस्त 2023 में, संसद की एक स्थायी समिति ने "न्यायिक प्रक्रियाएं और उनके सुधार" शीर्षक से एक रिपोर्ट पेश की थी। इस रिपोर्ट में सरकार से हाईकोर्टों और सुप्रीम कोर्ट के सभी जजों के लिए वार्षिक संपत्ति घोषणा को अनिवार्य करने के लिए विधायी बदलाव करने का आह्वान किया गया था। समिति का मानना था कि इससे न्यायपालिका में पारदर्शिता और जवाबदेही बढ़ेगी। हालांकि, अभी तक इस दिशा में कोई ठोस कदम नहीं उठाया गया है।
भारत में अन्य सार्वजनिक सेवकों के विपरीत, जजों पर अपनी संपत्ति को सार्वजनिक करने की कोई कानूनी बाध्यता नहीं है। 1997 में तत्कालीन सीजेआई जे.एस. वर्मा की अध्यक्षता में हुई एक बैठक में सुप्रीम कोर्ट ने एक प्रस्ताव पारित किया था, जिसमें कहा गया था कि हर जज को अपनी संपत्ति, अपने जीवनसाथी की संपत्ति, और आश्रितों की संपत्ति की घोषणा चीफ जस्टिस को करनी चाहिए। हालांकि, यह सार्वजनिक घोषणा के लिए नहीं था।
2009 में, सुप्रीम कोर्ट ने यह निर्णय लिया कि जजों की संपत्ति उनकी सहमति से वेबसाइट पर प्रकाशित की जा सकती है, लेकिन यह पूरी तरह स्वैच्छिक होगा। इसके बाद कुछ हाईकोर्टों ने भी इस प्रथा को अपनाया, लेकिन यह व्यापक रूप से लागू नहीं हुआ।
दिल्ली हाईकोर्ट में वर्तमान में 39 जज कार्यरत हैं, लेकिन केवल 7 ने ही अपनी संपत्ति घोषित की है। हाल ही में दिल्ली हाईकोर्ट के जज यशवंत वर्मा के मामले ने इस मुद्दे को और गंभीर बना दिया है। उनके आवास पर नकदी की बोरियां मिलने की खबरों के बाद पारदर्शिता और भ्रष्टाचार के आरोपों पर बहस तेज हो गई है। हालांकि, सुप्रीम कोर्ट ने उनका ट्रांसफर अब इलाहाबाद हाईकोर्ट में कर दिया है। जहां उन्होंने पद संभाल लिया है लेकिन अदालत ने उन्हें कोई काम या सुनवाई के लिए केस नहीं सौंपे हैं।
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हाईकोर्टों में सिर्फ 12.35% जजों द्वारा संपत्ति घोषणा करना यह दर्शाता है कि न्यायपालिका में पारदर्शिता अभी भी एक चुनौती है। सुप्रीम कोर्ट का हालिया निर्णय इस दिशा में एक पॉजिटिव कदम है, लेकिन हाईकोर्टों में इसे लागू करने के लिए मजबूत नीतियों और कानूनों की जरूरत है। संसदीय समिति की सिफारिशों को लागू करना और संपत्ति घोषणा को अनिवार्य बनाना इस दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम हो सकता है। यह न केवल जनता का विश्वास बढ़ाएगा, बल्कि न्यायिक प्रणाली की निष्पक्षता को भी मजबूत करेगा।
सरकार चाहे तो इसके लिए तीन कदम फौरन उठा सकती है। सरकार को संसदीय समिति की सिफारिशों पर तुरंत कार्रवाई करनी चाहिए। सभी हाईकोर्टों में एक समान नीति लागू की जानी चाहिए। संपत्ति घोषणा को स्वैच्छिक के बजाय अनिवार्य बनाया जाना चाहिए। जब कुछ हाईकोर्टों के जजों ने अपनी संपत्ति घोषित कर दी है तो बाकी क्यों नहीं कर रहे हैं। उन्हें इसके लिए निर्देश देने का काम सुप्रीम कोर्ट करे।
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