अगर वर्तमान जनसंख्या नीति जारी रहती है और इसमें किसी किस्म का बदलाव नहीं होता है तो इस सदी के अंत तक यानी 2100 आते-आते भारत की जनसंख्या 1 अरब 9 करोड़ रह जाएगी, यानी अभी के मुक़ाबले क़रीब 30 करोड़ कम।
कम होगी जनसंख्या?
इंस्टीच्यूट ऑफ हेल्थ मैट्रिक्स एंड इवैल्यूएशन के मुताबिक़ भारत की आबादी 2048 में अधिकतम 1.61 अरब होगी। किन्तु, उसके बाद जनसंख्या में गिरावट का दौर शुरू हो जाएगा। सदी के अंत में फ़र्टिलिटी रेट यानी एक महिला में अपने जीवनकाल में जन्म देने की दर 1.29 रह जाएगी।
वास्तव में भारत ऐसा देश है जहाँ फ़र्टिलिटी रेट दुनिया के बड़े देशों के मुक़ाबले बहुत तेज़ी से घटी है और आज यह 2.2 रह गयी है। भारत में 1977 में फ़र्टिलिटी रेट 5.03 थी, जो 2005 में 3 से कम के स्तर पर आ गयी और यह 2.97 हो गयी। भारत ने यह उपलब्धि महज 28 साल में हासिल कर ली थी, जबकि ब्रिटेन को यही उपलब्धि हासिल करने में 82 साल लग गये थे।
कम फ़र्टिलिटी रेट
ब्रिटेन में 1828 में फ़र्टिलिटी रेट 5.23 थी जो 1910 में 2.99 के स्तर पर आ गयी थी। अमेरिका को भी फर्टिलिटी रेट 5 से कम कर 3 करने में 56 साल लग गये यानी भारत से दुगुना समय।
इस पृष्ठभूमि में अगर आज देश में जनसंख्या को रोकने के लिए नीति लाए जाने की बात हो रही हो तो वह व्यावहारिक होगी? अगर नहीं, तो क्या इसे देश के हित में कहा जा सकता है?
इसे हम इस रूप में भी ले सकते हैं कि संभव है कि नयी जनसंख्या नीति प्रदेशवार जनसंख्या वृद्धि दर को नियंत्रित करने या इसके समानुपातिक वितरण को सुनिश्चित करने के लिए हो। ऐसा होता है तो निश्चित रूप से यह प्रगतिशील सोच होगी और देश के व्यापक हित में भी।
फ़र्टिलिटी रेट में और कमी ख़तरनाक
किसी देश में या प्रदेश में फ़र्टिलिटी रेट 2.1 हो तो इसका मतलब होता है कि वर्तमान जनसंख्या खुद को समान गति से बदलने में सक्षम है। यह फ़र्टिलिटी रेट जितनी अधिक होती जाएगी, जनसंख्या में वृद्धि की दर भी बढ़ती चली जाएगी। वहीं, फ़र्टिलिटी रेट 2.1 से जितनी कम होती जाएगी, जनसंख्या में गिरावट उसी हिसाब से तेज़ होगी। भारत में 2020 में नैशनल फर्टिलिटी रेट 2.2 है।
बड़े राज्यों की अगर बात करें तो देश में 8 प्रदेश ऐसे हैं, जहाँ फ़र्टिलिटी रेट 2.2 या उससे अधिक है - राजस्थान (2.5), हरियाणा (2.2), मध्य प्रदेश (2.7), छत्तीसगढ़ (2.4), झारखण्ड (2.5), उत्तर प्रदेश (2.9), असम (3.2)और बिहार (3.2)।
चिंताजनक फ़र्टिलिटी रेट
ऊँची फर्टिलिटी रेट वाले प्रदेशों में जनसंख्या की दर को कम करने की संभावनाएँ निश्चित रूप से हैं। मगर, यह चिन्ता भी बनी रहेगी कि फर्टिलिटी रेट इतनी भी कम न हो जाए कि वह चिंताजनक स्तर पर पहुँच जाए।
चिंताजनक स्तर से मतलब यह है कि फ़र्टिलिटी रेट इतनी कम न हो जाए कि जन्म लेने वाली आबादी बुजुर्ग होती आबादी के मुक़ाबले कम हो।
भारत में डिपेंडेंसी रेशियो यानी निर्भरता का अनुपात 52.2 है। यह आबादी शेष आबादी पर निर्भर करती है। सुकून की बात यह है कि इसमें बुजुर्गों का हिस्सा महज 8.6 है। वहीं चीन में 13.3 फीसदी बुजुर्ग हैं जो वर्कफ़ोर्स पर जीवन यापन के लिए निर्भर करते हैं।
जनसंख्या में कमी शुरू होगी?
जम्मू-कश्मीर में फ़र्टिलिटी रेट पर सीईआईसी का आँकड़ा कहता है कि 2005 में यहाँ 2.4 था जो 2015 में 1.6 और 2016 में 1.7 हो गया। गुजरात में फ़र्टिलिटी रेट 2.1 है, जो आदर्श है। मतलब यह कि इस रेट पर जनसंख्या न घटती है और न ही बढ़ती है। तो क्या भारत में 9 प्रदेशो को छोड़कर बाकी प्रदेशों में जनसंख्या उस स्तर पर आ गयी है, जहाँ से जनसंख्या में गिरावट का दौर शुरू होने वाला है?
यह प्रश्न चिन्ताजनक है। क्योंकि, ऐसे प्रदेशों में वही परेशानी पैदा होगी जिस वजह से चीन को अपनी जनसंख्या नीति में सुधार करना पड़ा। एक ऐसी स्थिति पैदा होने लगी जब वर्क फोर्स पर निर्भर रहने वाली आबादी में बच्चों की तादाद घटने लगी और बुजुर्गों की बढ़ने लगी।
वार्षिक वृद्धि दर
फ़र्टिलिटी दर के साथ-साथ जनसंख्या में वार्षिक वृद्धि दर के नज़रिए से भी राष्ट्रीय स्तर पर जनसंख्या पर लगाम लगती दिख रही है। वर्ल्डोमीटर के आँकड़े के अनुसार 1965 में भारत में जनसंख्या वृद्धि की वार्षिक दर 2.07 प्रतिशत थी जो 1985 में अधिकतम 2.33 प्रतिशत हो गयी।उसके बाद वार्षिक वृद्धि दर में गिरावट का दौर शुरू हुआ। साल 2000 में यह 1.67 प्रतिशत, 2010 में 1.47 और 2020 में 0.99 प्रतिशत के स्तर पर पहुँच चुकी है।
जनसंख्या नियंत्रण के उपाय कारगर
समग्रता में देखा जाए तो भारत में जनसंख्या को नियंत्रण करने के लिए जो कदम 70 के दशक में उठाए गये थे, उसके अपेक्षित परिणाम सामने आए हैं। आज़ादी के तुरंत बाद ही परिवार नियोजन कार्यक्रम बना जो 1950 के दशक में लागू कर दिया गया। जनसंख्या नियंत्रण की विश्वव्यापी कोशिशों में एक बात आम तौर पर देखी गयी है कि आर्थिक समृद्धि और शिक्षा के विकास के साथ-साथ जनसंख्या में कमी आने लगती है। ग़रीब परिवार में जनसंख्या की दर अधिक होती है। इसी तरह जो माताएँ क्रमश: शिक्षित होती जाती हैं, उनमें अपने जीवनकाल में बच्चों को जन्म देने की बारंबारता भी कम होने लगती है।
कहने का अर्थ यह है कि नयी जनसंख्या नीति के बारे में सोचने के बजाए अगर आर्थिक समृद्धि और शिक्षा को दुरुस्त करने के लिए कदम उठाए जाएँ, तो उसके शुभ नतीजे देश के स्वास्थ्य को बेहतर करेंगे।
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