क्या फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की नज़्म पढ़ना ग़ुनाह है? क्या किसी की भावनाएँ आहत होंगी तो कबीर की रचनाएँ और रामायण के दोहे पढ़ने पर भी पाबंदी लगा दी जाएगी? क्या महाभारत को पढ़ने के लिए भी समय और जगह ठीक होनी चाहिए? यदि ऐसा है तो फिर ऐसे समाज-देश को दकियानूसी सोच में जकड़ा हुआ नहीं कहेंगे तो क्या कहेंगे? जिन फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की नज़्मों को पढ़कर पीढ़ी दर पीढ़ी पली-बढ़ी है, जो कालजयी रचनाएँ हैं, क्या उन्हें समय और जगह की पाबंदी में कैद किया जाना चाहिए?