आशुतोष - हाथरस में जो लड़की के साथ हादसा हुआ वह क्यों हुआ? क्या इसलिये कि वह दलित थी या वह बस एक महिला थी?
चंद्रभान प्रसाद - वो दलित भी थी और महिला भी थी।
आशुतोष - आप उसे किस संदर्भ में देखना चाहेंगे?
चंद्रभान प्रसाद - हाथरस की घटना कोई आइसोलेशन में नहीं है। अभी बलरामपुर में घटना हुई, लखीमपुर खीरी में हुई। देश के तमाम हिस्सों में घटनायें हो रही हैं। अगर आप नेशनल रिकॉर्ड ब्यूरो को देखेंगे तो जैसे-जैसे देश आगे बढ़ रहा है वैसे-वैसे दलितों पर सीरियस असॉल्ट जैसे कि मर्डर, रेप की घटनायें बढ़ रही हैं। रेप में भी सिंपल रेप नहीं। रेप पहले भी होते थे। अब रेप होने के बाद महिला के तमाम अंगों पर भी हमले हो रहे हैं। ये मात्र रेप नहीं हैं। ऐसा लगता है कि जैसे कोई ग़ुस्सा है जो दशकों से मन में पनप रहा है और उसका ‘एक्सप्रेशन’ हो रहा है। पहले दलित को ‘ह्युमिलियेट’ करते थे। सत्तर के दशक में एक छड़ी से दलितों को उच्च जातियाँ कंट्रोल कर लेती थीं। अब उसे बंदूक़ उठानी पड़ रही है। जिस अनुपात में दलित समाज प्रगति कर रहा है उसी अनुपात में दलित समाज पर हमले बढ़ते जा रहे हैं।
आशुतोष - इसका कारण आप क्या समझते हैं?
चंद्रभान प्रसाद - इसको इस तरह से समझते हैं। लॉकडाउन के पहले हम और हमारे एक साथी डी. श्याम बाबू रिसर्च पर गये थे, आज़मगढ़ के एक गाँव में। हमें सवर्ण जाति का एक नौजवान लड़का मिल गया। हम उससे बात करने लगे। ‘बेटा क्या तुम्हारे घर पर आम के बाग़ थे।’ ‘हाँ हमारे पास आम के बाग़ थे।’ हमने पूछा ‘आपके खेत पर कौन लोग हलवाहे करते थे।’ ‘हाँ हमें मालूम है कौन लोग करते थे।’ हम सोचने लगे। श्याम बाबू ने कहा- चलें किसी दलित लड़के से पूछते हैं। तो हमने एक दलित लड़का खोजा। पूछा बेटा- ‘आपके गाँव में आम के बाग़ थे।’ वो बोला ‘ नहीं। हमने तो कभी नहीं देखा है।’ ‘आपके पिता जी किस ज़मींदार के घर पर हलवाह थे।’ ‘हमारे पिता जी तो कहीं नहीं काम करते थे।’
जब हम दिल्ली वापस आए तो इस पर चिंतन करने लगे कि उसी उम्र के दलित बच्चे को यह नहीं मालूम कि उसके गाँव में आम के बाग़ थे। उसे यह भी नहीं मालूम कि उसके दादा किस ज़मींदार के घर पर काम करते थे। लेकिन ज़मींदार के बच्चे को ये पता है कि उसके पास आम के बाग़ थे। कटहल के पेड़ थे, जामुन के पेड़ थे। और फलाँ-फलाँ के बाप-दादा हमारे यहाँ मज़दूरी करते थे। तो कहीं ऐसा तो नहीं कि सवर्ण समाज के लोग अपने अतीत के बारे में अपने बच्चों को बताते हैं और दलित समाज के लोग अपने अतीत की बातों को भूल जाने को कहते हैं। पिछले सत्तर सालों में अपर कास्ट में एक अंडर क्लास पैदा हुआ है। जिसका ख़्याल किसी राजनीतिक दल ने नहीं किया। वो अपने को ‘अबंडंड’ (त्याज्य) फ़ील कर रहा था। 2014 में जब बीजेपी का शासन आता है तो हमें यह लगता है कि कहीं न कहीं किसी ने वादा किया कि वो पुराना सपना लायेंगे। अन्यथा जितने दलित समाज पर अत्याचारों का जो मैंने अध्ययन किया है, उसमें एक पैटर्न नज़र आता है। अपर कास्ट है अत्याचारी, दलित है ‘विक्टिम’ और इनमें पहले से कोई झगड़ा नहीं था। आपस में कोई ज़मीन का झगड़ा नहीं है, कोई मुक़दमा नहीं है, कोई राइवलरी नहीं है। कोई बिज़नेस राइवलरी नहीं है। बस मन किया और पीट दिया। तो अपर कास्ट में जो एक कुंठा पैदा हुई है, कि हम कभी इन पर राज करते थे। इनकी माँ तो हमारे यहाँ काम करती थी। सवर्ण समाज से पूछिये कि आपका क्या-क्या नाश हुआ है? क्या-क्या खोया है आपने? वो कहेंगे हमारे घर दलित आते नहीं हैं। हमारी बारात में वो प्रजा के रूप में आते थे, अब आते नहीं हैं। उनकी महिलायें रात में शादी का बचा हुआ खाना जो ले जाती थीं अब वो आती नहीं हैं। हमारी ओर देखती नहीं हैं। मूँछ बढ़ा के घूमता है। उनका लड़का हीरो बाइक लेकर घूमता है। देखिये हमारी दलित बस्ती में चालीस बाइक हैं। तो ये दलित समाज पर जो क्रूरता हो रही है वो ये देश में एक बड़ी ‘सोशल साइकोलॉजिकल’ उथल-पुथल चल रही है, कि हमारे हाथ से ये लोग निकल गये हैं, बीजेपी ने जो वादा किया था पुराना अतीत कुछ न कुछ हद तक वापस लायेंगे, वो वापस नहीं हो रहा है तो ये ग़ुस्सा फूट रहा है दलितों पर।
आशुतोष - इसको आप क्या कहेंगे? प्रति क्रांति सवर्ण जातियों की तरफ़ से या फिर जो समाज का एक तबक़ा, जो संविधान की वजह से समानता का अधिकार पा ऊपर आ रहा है, वो सवर्ण जातियों को पसंद नहीं आ रहा है?
चंद्रभान प्रसाद - बिल्कुल। बिल्कुल। 2014 के चुनाव में हम गये थे अपर कास्ट के गाँव में। सीतापुर में एक ठाकुर बाहुल्य गाँव है, हम वहाँ गये। बड़े-बड़े घर होते थे। हाथी होते थे। हमने नौजवानों से पूछा ‘आपका भविष्य क्या है?’ उसने बताया- ‘इस गाँव में पिछले पंद्रह साल में पुलिस में एक भी नौजवान भर्ती नहीं हुआ है।’ हमने कहा- ‘आप क्या करेंगे, आपका भविष्य क्या है।’ बोले ‘हम आतंकी बन जायेंगे।’
तो दिल्ली आने के बाद हम सोचने लगे। हमने जीवन में पहला लेख नवभारत टाइम्स में लिखा ठाकुरों के पक्ष में। ठाकुर जो गाँव में रह गये हैं वो बर्बादी की तरफ़ जा रहे हैं और सरकारों को कुछ करना चाहिये। इसी तरह हमने नोटबंदी के समय बनियों के समर्थन में लिखा। दलित समाज के लोग नाराज़ हो गये थे। हमने समझाया कि नेल्सन मंडेला जब जेल से बाहर आये तो कहा कि अतीत भूल जाओ, सब लोग मिल कर रहो। आगे बढ़ो मिलकर। अब ठाकुर समाज में समाज सुधार आंदोलन हो या उनके नेता उन्हें अतीत की याद दिलाते रहें। सत्तर साल में जो हुआ है, उसको उलट देना है, एक ड्रीम है, कहीं किसी ने एक स्वप्न दिया है। ये किसने अपर कास्ट को आश्वासन दिया होगा कि हम सिस्टम को रिवर्स करेंगे।
आशुतोष - क्या आपको लगता है कि हिंदुत्व ने उनके सपनों को ज़िंदा कर दिया है, हिंदू राष्ट्र के सपने ने ज़िंदा कर दिया है? मेमोरी को रिवाइव कर दिया है?
चंद्रभान प्रसाद - आज़ादी के बाद जो अस्सी साल के ऊपर के दलितों से पूछ रहे हैं कि क्या खाना खाते थे, कैश घर में होता था कि नहीं, बकरी घर में होती थी कि नहीं। दूध किसका पीते थे। सुबह कितने बजे उठ जाते थे, ज़मींदारों के घर कितना वक़्त बिताते थे आदि। उनका यह कहना है उनके बुजुर्ग आज भी कहते हैं कि तुम्हारा तो राज आ गया। हमारा तो सब कुछ चला गया। तो मन में कहीं न कहीं है। अन्यथा रेप कर दिया। पोस्ट सेक्सुअल प्लेजर हो गया तो बाड़ी पर क्यों हमले कर रहे हो। बलरामपुर में ऐसा हुआ। आज़मगढ़ में हुआ। लखीमपुर खीरी में हुआ। एक नहीं कई हैं। कहीं न कहीं लगता है कि ये सोच है कि क्रांति हो गयी है अब हमें प्रति क्रांति करनी है।
आशुतोष - कहीं ऐसा तो नहीं कि रेप के मसले पर जो यह माँग उठी है कि बलात्कारियों को फाँसी की सज़ा दी जाए, उनकी वजह से भी तो ये हो सकता है कि जान से मार दो, अगर बच गयी तो जान से जाना पड़ेगा। यह कारण भी तो हो सकता है? इसलिये ये ‘एनस्योर’ भी करते हैं कि मार दो?
चंद्रभान प्रसाद - यह हो सकता है। लेकिन अगर जान लेनी है तो गोली मार दो। आजकल पाँच सौ रुपये में कट्टा आता है। शरीर को क्षत-विक्षत करना यह अलग बात है।
आशुतोष - लेकिन दिल्ली में निर्भया के साथ भी तो इतनी ही बर्बरता बरती गयी थी?
चंद्रभान प्रसाद - किसी भी जाति की महिला हो समाज उस पर अपना अधिकार समझता है। दूसरी जगह बाहर भी काफ़ी हद तक ऐसा है। लेकिन इस तरह की बर्बरता देखने को कम मिलती है। मैं आपसे यह भी कहना चाहता हूँ कि 2014 के बाद से समाज में वायलेंस एक फ़ैशन बनता जा रहा है।
आशुतोष - और उसको जस्टीफाई भी किया जा रहा है।
चंद्रभान प्रसाद - जी हाँ ।
आशुतोष - पहले अगर किसी को कहा जाता कि वो कम्यूनल है या हिंदुत्ववादी है तो अपने को छिपाने की कोशिश करता था। आज अगर ऐसा कहें तो ऐसा नहीं है। उलटे जो अपने को सेकुलर है वो अपने को छिपाने की कोशिश करते हैं? और वो अपने को पहले की तरह प्रकट नहीं करते, जैसे पहले करते थे।
चंद्रभान प्रसाद - आप सही कह रहे हैं। इस समय अगर आप किसी सवर्ण समाज के आदमी से बात करिये तो वो अपने को एक ‘विक्टिम’ के तौर पर पेश करता है। पहले समाज में लोग मान चुके थे कि आरक्षण होना ज़रूरी है। इनके साथ अत्याचार हुआ है, कुछ ‘इम्पैथी’ थी। वो ‘इम्पैथी’ मंडल के बाद कुछ टूटी। वो जैसे-जैसे ‘ओबीसी, दलित समाज भाई-भाई हैं’ हुआ, वैसे-वैसे दलित समाज का सवर्ण समाज से रिश्ता ही अलग हो गया। सवर्ण समाज में जो ‘अंडरक्लास’ पैदा हुआ है वो अपने को ‘विक्टिम’ के तौर पर पेश करता है। जैसे पहले अस्सी के दौर में था कि दलित पुलिस कांस्टेबल, दलित अफ़सर एक तरह से सोचता था, ग्रुप थिंकिंग थी। अब दलितों में तमाम तरह की धारायें हैं। अभी जैसे देखा जा रहा है कि सवर्ण समाज में कोई सिपाही हो, कोई प्रोफ़ेसर हो, कोई डेटा साइंटिस्ट हो, सुप्रीम कोर्ट का जज हो, डीजीपी हो, आईजी हो, एक ही तरह से सोच रहे हैं। सवर्ण समाज में जो अंडर क्लास पैदा हुआ है, उसकी वजह आरक्षण है।
आशुतोष - यूपी में दलितों के बड़े तबक़े ने बीजेपी को वोट क्यों दिया?
चंद्रभान प्रसाद - दलितों ने कुल नहीं, कुछ हद तक दिया है। बड़े तबक़े तो नहीं कह सकते। दलितों में से वाल्मीकि, धोबी, सोनकर, खटिक कुछ हद तक पासी ने वोट दिया है। नॉर्थ इंडिया में जो मेनस्ट्रीन कास्ट है जिसने ऐतिहासिक रूप से सिस्टम को रेजिस्ट किया है वो है चमार जाति और वही आंबेडकरवादी है। वो बीजेपी के साथ नहीं है। वो बीजेपी के साथ कभी नहीं आयेगा।
आशुतोष - मायावती का क्या भविष्य है?
चंद्रभान प्रसाद - मायावती ने एवरेस्ट की चढ़ाई कर ली है, उन्हें अब नीचे ही जाना है। अब उस पर चढ़ाई कर रहा है चंद्रशेखर रावण, अब देखिये क्या होता है।
आशुतोष - क्या भविष्य रावण का दिखता है?
चंद्रभान प्रसाद - वो भविष्य का नेता है। उसकी सोच को मैंने देखा है। आप सहारनपुर जाइये उसकी आंबेडकर भीम पाठशालाओं को देखें। वो गणित पढ़ा रहे हैं, फ़िज़िक्स पढ़ा रहे हैं, अंग्रेज़ी पढ़ा रहे हैं, जो दलित बच्चे एमएससी कर रहे हैं वो बीएससी को पढ़ा रहे हैं। इस तरह का विजन, मैं तो सोच रहा था कि मैं ही विजनरी हूँ। रावण की पाठशालाओं में अंग्रेज़ी, गणित, फ़िज़िक्स की पढ़ाई की जाती है। उन्होंने इसकी मार्केटिंग नहीं की। लोग इतना ही जानते हैं कि जहाँ अत्याचार है वो वहाँ पहुँच जाते हैं।
आशुतोष - दलित मुसलिम में कोई एलांयस हो सकता है? दोनों ही ‘विक्टिम’ महसूस करते हैं।
चंद्रभान प्रसाद - विक्टिम तो अपर कास्ट भी महसूस कर रहा है। अगर 1970 के पास चले जाइये तो दलितों का जो स्वाभाविक दोस्त है न वो अपर कास्ट है और न वो ओबीसी है। न मुस्लिम है। अगर रावण के साथ चमार समाज खड़ा हो जाता है तो अपनी सेफ़्टी के लिये मुसलिम समाज आयेगा। दलित का कोई नेचुरल एलाई नहीं है।
आशुतोष - बातचीत के लिये धन्यवाद।
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