इलेक्टोरल बॉन्ड अवैध था। अपारदर्शी था। असंवैधानिक था। सुप्रीम कोर्ट ने ही इसपर मुहर लगा दी। वैसे, बीजेपी सरकार द्वारा लाए गए इस इलेक्टोरल बॉन्ड पर सरकार को छोड़कर सबको कभी न कभी आपत्ति रही। 2019 में चुनाव आयोग ने भी कड़ी आपत्ति थी। सुप्रीम कोर्ट में जब मामला गया तो इसने भी लगातार सवाल पूछे। विपक्षी पार्टियाँ गड़बड़ी का आरोप लगाती रहीं। चुनाव सुधार से जुड़े लोग इसको पीछे जाने वाला क़दम बताते रहे। तो सवाल है कि इतने विरोध के बावजूद यह अस्तित्व में क्यों और कैसे आ गया?
इलेक्टोरल बॉन्ड अपारदर्शी, कालेधन को बढ़ावा देने वाला?
- देश
- |
- 15 Feb, 2024
सरकार द्वारा इलेक्टोरल बॉन्ड लॉन्च किए जाने के साथ ही इस पर गंभीर सवाल उठते रहे हैं। विपक्षी दलों से लेकर चुनाव आयोग और सुप्रीम कोर्ट तक ने सवाल उठाए। जानिए, क्या-क्या आपत्तियाँ उठती रहीं।

सबसे पहले इस विवादास्पद इलेक्टोरल बॉन्ड की व्यवस्था का प्रावधान 2017 के बजट के ज़रिये सामने लाया गया था। तब के वित्त मंत्री अरुण जेटली ने दावा किया था कि इससे हमारा लोकतंत्र मज़बूत होगा, दलों को होने वाली फ़ंडिंग और समुची चुनाव व्यवस्था में पारदर्शिता आएगी और कालेधन पर अंकुश लगेगा। लेकिन क्या ऐसा हुआ? क्या इन मक़सद में यह कामयाब होता दिखा या फिर इलेक्टोरल बॉन्ड के प्रावधान क्या ऐसे थे?