संविधान सर्वोच्च या संसद और इसमें सुप्रीम कोर्ट कहाँ खड़ा है? इस सवाल का जवाब भले ही कुछ लोगों के दिमाग में स्पष्ट हो, लेकिन कुछ लोगों का कुछ और ही कहना है। उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने हाल ही में संसद के कामों में सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप पर नाराजगी जताई थी। पूर्व क़ानून मंत्री किरेन रिजिजू भी कुछ इसी तरह के विचार रखते दिखे थे। अब पूर्व सीजेआई और मौजूदा राज्यसभा सदस्य रंजन गोगोई ने संविधान के मूलभूत सिद्धांत पर बड़ा बयान दिया है। उन्होंने कहा, 'मेरा विचार है कि संविधान की मूल संरचना के सिद्धांत का एक बहुत ही विवादास्पद न्यायिक आधार है।' यह बात जब मौजूदा सीजेआई डीवाई चंद्रचूड़ के सामने रखी गई तो उन्होंने कहा कि 'एक बार न्यायाधीश पद छोड़ने के बाद जो कुछ भी कहते हैं वह सिर्फ राय है और बाध्यकारी नहीं है'। तो सवाल है कि आख़िर संविधान के मूल ढाँचा के सिद्धांत पर ऐसी स्थिति क्यों है?
संविधान के मूल ढाँचा का सिद्धांत क्या है, यह कैसे अस्तित्व में आया और इसपर इतनी बहस क्यों, इस पर चर्चा बाद में, पहले यह जान लें कि हाल में यह चर्चा में क्यों रहा है।
दरअसल, संविधान के मूल ढाँचा का सिद्धांत या संविधान की मूल भावना पर बहस तब तेज हो गई जब पूर्व सीजेआई और मौजूदा राज्यसभा सदस्य रंजन गोगोई ने संसद में कहा कि '...मेरा विचार है कि संविधान की मूल संरचना के सिद्धांत का एक बहुत ही विवादास्पद न्यायिक आधार है। मैं इससे अधिक कुछ नहीं कहूंगा।'
जब इसका ज़िक्र अनुच्छेद 370 पर सुनवाई के दौरान वकील कपिल सिब्बल ने किया तो न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ ने मंगलवार को टिप्पणी की कि एक बार न्यायाधीश पद छोड़ने के बाद जो कुछ भी कहते हैं वह सिर्फ राय है और बाध्यकारी नहीं है। हाल ही में सीजेआई चंद्रचूड़ ने कहा था कि 'हमारे संविधान की मूल संरचना, नॉर्थ स्टार की तरह है जो संविधान के व्याख्याकारों और कार्यान्वयन करने वालों को कुछ दिशा देता है।'
उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने कहा था कि संसद कानून बनाती है और सुप्रीम कोर्ट उसे रद्द कर देता है। उन्होंने पूछा कि क्या संसद द्वारा बनाया गया कानून तभी कानून होगा जब उस पर कोर्ट की मुहर लगेगी।
उपराष्ट्रपति धनखड़ ने 1973 में केशवानंद भारती मामले में सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले का हवाला देते हुए कहा था, 'क्या हम एक लोकतांत्रिक राष्ट्र हैं', इस सवाल का जवाब देना मुश्किल होगा। केशवानंद भारती मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि संसद के पास संविधान में संशोधन करने का अधिकार है, लेकिन इसकी मूल संरचना में नहीं।
धनखड़ ने कहा था कि 1973 में एक बहुत गलत परंपरा शुरू हुई। उन्होंने कहा था कि 'केशवानंद भारती केस में सुप्रीम कोर्ट ने मूल संरचना का सिद्धांत दिया कि संसद संविधान संशोधन कर सकती है, लेकिन इसके मूल संरचना को नहीं। कोर्ट को सम्मान के साथ कहना चाहता हूँ कि इससे मैं सहमत नहीं।'
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जिस मूल संरचना के सिद्धांत की बात धनखड़ ने की, वह सबसे पहली बार 1973 में सामने आया था। ऐतिहासिक केशवानंद भारती फैसले में। इसकी व्यवस्था संविधान सभा ने नहीं की थी। शीर्ष अदालत ने 1973 में संविधान की मूल संरचना सिद्धांत को प्रतिपादित किया था और माना था कि लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता, संघवाद और कानून के शासन जैसी कुछ मूलभूत विशेषताओं को संसद द्वारा संशोधित नहीं किया जा सकता है।
क्या है केशवानंद भारती केस
संत केशवानंद भारती एक मठ के महंत थे। 1973 में केरल सरकार ने भूमि सुधार के लिए दो कानून बनाए। इन कानून के जरिए सरकार मठों की संपत्ति को जब्त करना चाहती थी। इसके ख़िलाफ़ केशवानंद भारती कोर्ट पहुँचे और दलील दी कि धार्मिक संस्थाओं की संपत्ति जब्त करने के लिए जो कानून बनाए वो संविधान के खिलाफ हैं। यह फ़ैसला केरल सरकार के साथ ही इंदिरा गांधी सरकार के लिए बड़ा झटका होता क्योंकि वह कई संशोधन कर मन मुताबिक फ़ैसले कराना चाहती थीं। इस मामले में सुप्रीम कोर्ट से उनको पहले ही बैंकों के राष्ट्रीयकरण, प्रिवी पर्स को ख़त्म करने और मूल अधिकारों में बदलाव करने को लेकर कई बड़े झटके लग चुके थे।
केशवानंद भारती केस से पहले 1971 में एक बड़ी घटना घटी थी। 1971 में इंदिरा गांधी ने संविधान में 24वाँ संशोधन कर दिया। इस संशोधन का एक बड़ा मक़सद यह भी था कि सुप्रीम कोर्ट के 1967 में सुनाए फैसले को पलटने के लिए कानून में बदलाव किया जाए। 1967 में गोलकनाथ केस में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि सरकार लोगों के मूल अधिकार में कोई बदलाव नहीं कर सकती है। इस फ़ैसले से इंदिरा गांधी खुलकर संशोधन नहीं कर पा रही थी। इस तरह इंदिरा सरकार और सुप्रीम कोर्ट आमने-सामने थे।
केशवानंद भारती केस के अहम फ़ैसले
- सरकार संविधान की मूल भावना को नहीं बदल सकती है।
- सरकार संविधान से ऊपर नहीं है।
- कोर्ट क़ानून में बदलाव की न्यायिक समीक्षा कर सकता है।
इस फ़ैसले ने इंदिरा गांधी सरकार को तगड़ा झटका दिया और यह बता दिया कि सरकार संविधान में सबकुछ नहीं बदल सकती है। मिनर्वा मिल केस में भी इस बात को और मज़बूती मिली।
मिनर्वा मिल केस
1980 में कर्नाटक की टेक्सटाइल कंपनी मिनर्वा मिल्स बनाम भारत सरकार केस में सुप्रीम कोर्ट ने फ़ैसला दिया था कि संविधान के अनुच्छेद 368 का सेक्शन (4) कानूनन सही नहीं है, क्योंकि इसे न्यायिक समीक्षा को ख़त्म करने के लिए पास किया गया था। कोर्ट ने साफ़ तौर पर बता दिया कि न्यायिक समीक्षा का सिद्धांत संविधान का आधारभूत लक्षण है। यानी संसद द्वारा बनाए गए क़ानून की समीक्षा न्यायपालिका कर सकती है।
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