छह महीने पहले हुए लोकसभा चुनाव में बीजेपी को इन तीनों ही राज्यों में बड़ी जीत मिली थी। लेकिन विधानसभा चुनाव में आख़िर ऐसा क्या हो गया कि बीजेपी को लोकसभा चुनाव जैसा जनसमर्थन नहीं मिल सका। शायद लोगों ने अपनी नाराज़गी का संकेत दिया है। इसलिए इन तीनों राज्यों के परिणाम से पार्टी और मोदी सरकार को सचेत ज़रूर हो जाना चाहिए।
विपक्षी दलों को मिली संजीवनी
महाराष्ट्र और हरियाणा के नतीजों ने विपक्षी दलों को संजीवनी दे दी थी। इन दलों के नेताओं को एक बात समझ में आ गई थी कि बीजेपी अजेय नहीं है और अगर मिलकर चुनाव लड़े तो बीजेपी को हराया जा सकता है। झारखंड में इस दिशा में काम शुरू हुआ और अंतत: झारखंड मुक्ति मोर्चा, कांग्रेस और राष्ट्रीय जनता दल ने गठबंधन कर लिया और परिणाम अब आपके सामने है।
दूसरी बात, जो झारखंड के चुनाव परिणाम से समझ में आती है, वह यह कि आने वाले जिन राज्यों में विधानसभा के चुनाव होने हैं, उन राज्यों में बीजेपी के लिए अब राजनीतिक हालात आसान नहीं रहेंगे। दो महीने के भीतर दिल्ली में विधानसभा के चुनाव होने हैं और निश्चित रूप से झारखंड की हार से बीजेपी पर एक मनोवैज्ञानिक दबाव ज़रूर बन गया है। राजनीति में मनोवैज्ञानिक दबाव से निपटना बेहद मुश्किल होता है और जिसने इस दबाव का सामना सफलतापूर्वक कर लिया, जीत उसके क़दम चूमती है।
दिल्ली में बीजेपी 1998 से ही सत्ता के वनवास पर है और उसका यह वनवास ख़त्म होने का नाम नहीं ले रहा है। इस बार उसकी पूरी कोशिश है कि वह इस वनवास को ख़त्म करे लेकिन झारखंड की हार ने उसके माथे पर बल ला दिए हैं।
दिल्ली में बीजेपी के विपक्षी दल आम आदमी पार्टी, कांग्रेस के कार्यकर्ता अब अप्रत्यक्ष रूप से यह प्रचारित करने की कोशिश करेंगे कि देखो, झारखंड की जनता ने बीजेपी को नकार दिया है और महाराष्ट्र और हरियाणा में भी जनता का अपेक्षित सहयोग उसे नहीं मिला है। ऐसे में बीजेपी के सामने इससे निपटना एक बड़ी चुनौती होगी।
झारखंड में बीजेपी की हार का सीधा मतलब यह है कि जेडीयू और एलजेपी अब बिहार में बीजेपी से सीटों के मोल-भाव में तुनकमिजाजी करेंगे। राजनीति का फलसफा यही है जब तक ताक़तवर हो सब ठीक है, जैसे ही कमजोर हुए अपने ही आंखें दिखाने लगेंगे।
बिहार में बीजेपी को जेडीयू और एलजेपी के नखरे बर्दाश्त करने होंगे और इस बात का गुरूर भी छोड़ना होगा कि लोकसभा चुनाव में वह 300 से ज़्यादा सीटें जीती है। कांग्रेस भी 1984 में 400 से ज़्यादा सीटें जीती थी लेकिन 1989 में यह सीटें आधी रह गईं थीं।
कुल मिलाकर झारखंड की हार बीजेपी के लिए आंखे खोलने वाली है। यह हार बताती है कि राज्यों के चुनाव राष्ट्रीय मुद्दों पर नहीं लड़े जा सकते। यही बात महाराष्ट्र और हरियाणा के परिणाम से भी पता चलती है। विधानसभा चुनाव लड़े जाते हैं स्थानीय मुद्दे पर लेकिन मोदी-शाह ने मानो हर विधानसभा चुनाव को राष्ट्रीय मुद्दों पर लड़ने की ठान ली है। इसलिए बीजेपी नेतृत्व को इस हार को हल्के में न लेते हुए और अपनी ग़लतियों से सबक लेते हुए आने वाले राज्यों की चुनाव रणनीति बनानी होगी, वरना एक के बाद एक कई राज्यों में जिस तरह से जनसमर्थन घट रहा है और हार भी मिल रही है, उससे लगता है कि यह सिलसिला इतनी आसानी से रुकने वाला नहीं है।
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