पूरे देश में एनआरसी लागू करने की बात कहकर दहाड़ने वाले गृह मंत्री अमित शाह अब नेशनल पॉपुलेशन रजिस्टर यानी एनपीआर पर क्यों झुक गए हैं? आख़िर संसद में उन्हें क्यों यह कहना पड़ा कि एनपीआर के लिए न तो किसी को कोई काग़ज़ दिखाने की ज़रूरत होगी और न ही किसी को संदिग्ध (डाउटफ़ुल या 'डी') श्रेणी में रखा जाएगा? क्या सरकार पर आम लोगों का दबाव है? क्या बीजेपी के ही सहयोगी दलों के विरोध का नतीजा है या इस मामले में मोदी-शाह की जोड़ी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बढ़ते दबाव को झेल नहीं पा रही है?
एनआरसी पर दहाड़ने वाले अमित शाह एनपीआर पर आख़िर क्यों झुके?
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- 13 Mar, 2020
पूरे देश भर में एनआरसी लागू करने की बात कहकर दहाड़ने वाले गृह मंत्री अमित शाह अब एनपीआर पर क्यों झुक गए हैं? आख़िर संसद में उन्हें क्यों यह कहना पड़ा कि एनपीआर पर कोई कागज दिखाने की ज़रूरत नहीं है।

इन सवालों के जवाब तब आसानी से मिल जाएँगे जब नागरिकता क़ानून यानी सीएए, राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर यानी एनआरसी व एनपीआर के ख़िलाफ़ विरोध-प्रदर्शन और सरकार के रवैये को समझ लें। सरकार दावा करती रही है कि ये तीनों आपस में जुड़े नहीं रहे हैं। लेकिन सच्चाई है कि ये आपस में जुड़े रहे हैं। गृह मंत्री के शब्दों में ही समझें तो वह पहले ही कह चुके हैं कि 'आप क्रोनोलॉजी समझिए, पहले नागरिकता क़ानून आएगा, फिर एनआरसी आएगी'। उनके इस बयान का साफ़ मतलब था कि एनआरसी और नागरिकता क़ानून जुड़े हुए हैं। यह इससे भी साफ़ है कि जब एनआरसी से लोग बाहर निकाले जाएँगे तो नागरिकता क़ानून के माध्यम से पाकिस्तान, अफ़ग़ानिस्तान और बाँग्लादेश के हिंदू, सिख, पारसी, जैन, बौद्ध और ईसाई धर्म के लोगों को भारत की नागरिकता दी जाएगी।