जिन एक्टिविस्टों या नागरिक समाज पर सख्ती करने के आरोप मोदी सरकार पर लगते रहे हैं उनको अब मोदी सरकार के ही राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार ने 'चौथी पीढ़ी की युद्ध सामग्री या मोर्चे' के तौर पर बताया है। उन्होंने साफ़ शब्दों में कहा है कि युद्ध के नए मोर्चे नागरिक समाज हैं जिन्हें किसी राष्ट्र के हितों को चोट पहुंचाने के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है। तो क्या जिस नागरिक समाज को दबाव समूह या लोकतंत्र की एक अहम कड़ी माना जाता है वह इस सरकार के लिए एक युद्ध का मोर्चा है? क्या सामाजिक मुद्दों को उठाने वाले, नागरिकों के अधिकारों की लड़ाई लड़ने वाले, मानवाधिकारों की रक्षा की बात करने वालों से युद्ध के मोर्चे की तरह निपटा जाएगा? या फिर डोभाल नागरिक समाज के इस तरह इस्तेमाल किए जाने को लेकर सशंकित हैं?
मोदी सरकार के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार यानी एनएसए अजित डोभाल के कहने का क्या मतलब है यह उनके बयान को ही पढ़कर देख लीजिए। वह हैदराबाद में शुक्रवार को सरदार वल्लभभाई पटेल राष्ट्रीय पुलिस अकादमी में आईपीएस के प्रोबेशनरी अधिकारियों को संबोधित कर रहे थे।
अजित डोभाल ने अधिकारियों से कहा, 'युद्ध के नए मोर्चे, जिसे आप चौथी पीढ़ी का युद्ध कहते हैं, वह नागरिक समाज है। युद्ध राजनीतिक या सैन्य उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए एक प्रभावी साधन नहीं रहा। वे बहुत महंगे या अप्रभावी हैं और, साथ ही, उनके परिणाम के बारे में अनिश्चितता है। लेकिन यह नागरिक समाज है जिसे किसी राष्ट्र के हितों को चोट पहुँचाने के लिए तोड़ा-मरोड़ा जा सकता है, अधीन किया जा सकता है, विभाजित किया जा सकता है और हेरफेर किया जा सकता है। आप वहां इसलिए हैं कि वे पूरी तरह से सुरक्षित रहें।'
वैसे जिस नागरिक समाज की बात एनएसए डोभाल ने की उसमें वैसे एक्टिविस्ट आते हैं जिसमें से अधिकतर मौजूदा समय में अलग-अलग आरोप झेल रहे हैं।
इनमें से कई एक्टिविस्ट तो जेलों में बंद हैं और कुछ ज़मानत पर हैं। चाहे ग़रीब आदिवासियों के लिए काम करने वाले स्टैन स्वामी, सुरेंद्र गाडलिंग और रोना विल्सन की बात हो या फिर सुधा भारद्वाज, वर वर राव, अरुण फ़रेरा, वरनों गोंजाल्विस, गौतम नवलखा जैसे सामाजिक कार्यकर्ताओं की। चाहे सामाजिक मुद्दों को उठाने वाले जेएनयू के पूर्व छात्र उमर खालिद, जामिया से जुड़ी रही कश्मीरी महिला सफूरा ज़रगर या फिर पिंजरा तोड़ से जुड़ी देवांगना कलिता और नताशा नरवाल हों। चाहे वह पर्यावरण से जुड़ी रही दिशा रवि का मामला हो या एक्टिविस्ट और पूर्व सिविल सर्वेंट हर्ष मंदर जैसे कार्यकर्ताओं का।
जिस दिल्ली दंगे मामले में उमर खालिद की गिरफ़्तारी हुई उस मामले में पुलिस ने सामाजिक कार्यकर्ता योगेंद्र यादव, मशहूर अर्थशास्त्री जयति घोष, प्रोफ़ेसर अपूर्वानंद, फ़िल्मकार राहुल राय, हर्षमंदर के नाम भी दंगों में दाखिल अपनी पूरक चार्जशीट में डाले थे।
नागरिक समाज में आने वाले इन कई एक्टिविस्टों पर अलग-अलग कार्रवाइयाँ चल रही हैं। आदिवासियों के लिए काम करने और उनके अधिकारों के लिए आवाज़ उठाने वाले भीमा कोरेगांव केस में फँसे हुए हैं। स्टैन स्वामी जैसे एक्टिविस्टों के आख़िरी दिन भी जेल में गुजरे और उनका निधन भी हो गया।
इसी साल सितंबर महीने में एक्टिविस्ट और पूर्व सिविल सर्वेंट हर्ष मंदर से जुड़े तीन जगहों पर प्रवर्तन निदेशालय यानी ईडी ने छापे मारे थे। इनमें वे आश्रय गृह- उम्मीद अमन घर और खुशी रेनबो होम भी शामिल थे जिनका वह संचालन करते हैं। इस कार्रवाई के बाद अन्य एक्टिविस्टों ने इस कार्रवाई को विरोध की आवाज़ को दबाने वाला क़रार दिया था।
सफूरा ज़रगर जब ज़मानत मिलने से पहले जेल में बंद थीं तो सुप्रीम कोर्ट के रिटायर्ड जज जस्टिस मार्कंडेय काटजू ने एक लेख में लिखा था, 'तिहाड़ जेल में बंद 27 वर्षीय कश्मीरी महिला सफूरा ज़रगर का मामला देश में लोकतंत्र और राज्य संस्थानों के पूर्णतः पतन का प्रतीक है।'
पर्यावरण से जुड़ी रहीं दिशा रवि को अंतरराष्ट्रीय साज़िश का हिस्सा बता दिया गया था, खालिस्तानियों से संबंध होने के आरोप लगाए गए थे और देश के लिए ख़तरा के तौर पर पेश किया गया था। पुलिस ने दिशा रवि को उस टूलकिट का हिस्सा बताया था जिसके बारे में आरोप लगाया गया था कि 26 जनवरी को किसानों की ट्रैक्टर रैली के दौरान हिंसा पूर्व नियोजित एक साज़िश थी और जिसका मक़सद भारत की संप्रभुता और सुरक्षा पर हमला करना था। उन पर राजद्रोह का भी मुक़दमा किया गया। लेकिन अब रिपोर्ट है कि जल्द ही पुलिस इस मामले में क्लोजर रिपोर्ट दाखिल करेगी। साफ़ तौर पर कहें तो कोई सबूत नहीं मिलने के कारण पुलस केस बंद करने की तैयारी में है।
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