जिन एक्टिविस्टों या नागरिक समाज पर सख्ती करने के आरोप मोदी सरकार पर लगते रहे हैं उनको अब मोदी सरकार के ही राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार ने 'चौथी पीढ़ी की युद्ध सामग्री या मोर्चे' के तौर पर बताया है। उन्होंने साफ़ शब्दों में कहा है कि युद्ध के नए मोर्चे नागरिक समाज हैं जिन्हें किसी राष्ट्र के हितों को चोट पहुंचाने के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है। तो क्या जिस नागरिक समाज को दबाव समूह या लोकतंत्र की एक अहम कड़ी माना जाता है वह इस सरकार के लिए एक युद्ध का मोर्चा है? क्या सामाजिक मुद्दों को उठाने वाले, नागरिकों के अधिकारों की लड़ाई लड़ने वाले, मानवाधिकारों की रक्षा की बात करने वालों से युद्ध के मोर्चे की तरह निपटा जाएगा? या फिर डोभाल नागरिक समाज के इस तरह इस्तेमाल किए जाने को लेकर सशंकित हैं?