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हिमाचल प्रदेश के विधानसभा चुनाव में ओल्ड पेंशन स्कीम यानी पुरानी पेंशन योजना की बहाली एक बड़ा मुद्दा बन चुकी है। पुरानी पेंशन योजना का मुद्दा हिमाचल प्रदेश के साथ ही गुजरात के विधानसभा चुनाव में भी बेहद अहम है और वहां पर राष्ट्रीय शैक्षिक महासंघ के द्वारा पेंशन बहाली का आंदोलन चलाया जा रहा है।
इस साल की शुरूआत में हुए उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में भी पुरानी पेंशन योजना के मुद्दे को तमाम विपक्षी राजनीतिक दलों ने जोर-शोर से उठाया था। कर्मचारी इसे लागू करने की मांग को लेकर सड़कों पर भी उतरे थे।
हिमाचल प्रदेश में कांग्रेस और आम आदमी पार्टी ने वादा किया है कि राज्य में अगर उनकी सरकार बनती है तो वह इसे लागू करेंगे। पंजाब में बनी आम आदमी पार्टी की सरकार ने पुरानी पेंशन योजना को लागू कर दिया है। इसके अलावा राजस्थान, छत्तीसगढ़ और झारखंड की सरकारों ने भी अपने-अपने राज्यों में पुरानी पेंशन योजना को लागू किया है।
हिमाचल प्रदेश में 12 नवंबर को मतदान होगा और 8 दिसंबर को चुनाव नतीजे आएंगे। पुरानी पेंशन योजना की बहाली के लिए आंदोलन कर रहे कर्मचारियों का कहना है कि वे राज्य की बीजेपी सरकार से इस संबंध में कई बार गुहार लगा चुके हैं लेकिन सरकार उनकी बात सुनने के लिए तैयार नहीं है।
कर्मचारियों के लगातार प्रदर्शन के बाद हिमाचल की बीजेपी सरकार के मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर ने एलान किया था कि उनकी सरकार इस मामले में एक कमेटी बनाएगी। लेकिन यह बीजेपी के उत्तर प्रदेश के चुनाव के दौरान लिए गए स्टैंड के बिलकुल खिलाफ है। उत्तर प्रदेश के चुनाव के दौरान बीजेपी ने कहा था कि ओल्ड पेंशन स्कीम को लागू करना संभव नहीं है लेकिन उसके बाद कुछ राज्य सरकारों ने इसे लागू किया है।
कर्मचारियों की मौजूदा पेंशन व्यवस्था में कर्मचारी के मूल वेतन और डीए के 10 प्रतिशत के बराबर कर्मचारी और इसका 14 प्रतिशत सरकार जमा करती है। इस पैसे को एबीआई, यूटीआई और एलआईसी के पास जमा किया जाता है। जब कर्मचारी रिटायर होता है तो इस जमा राशि का 60 प्रतिशत उसे नकद भुगतान कर दिया जाता है। शेष 40 प्रतिशत राशि पेंशन के लिए रोक ली जाती है। इसी पैसे से होने वाले मुनाफे को कर्मचारियों को पेंशन के रूप में दिया जाता है।
केंद्र सरकार ने 1 जनवरी, 2004 से राष्ट्रीय पेंशन प्रणाली (एनपीएस) की शुरूआत की थी। 1 जनवरी, 2004 से केंद्रीय निकायों के सभी कर्मचारी, जिनकी नियुक्ति उपरोक्त तिथि या उसके बाद हुई है, इसके तहत आते हैं। 2004 के बाद स्थाई हुए तमाम ऐसे सरकारी कर्मचारी सेवानिवृत्त हो रहे हैं, जो 2004 के पहले ठेके पर काम कर चुके थे, इन लोगों को पेंशन की राशि इतनी कम मिल रही है कि मौजूदा सरकारी कर्मचारी डरे हुए हैं कि सेवानिवृत्ति के बाद उनका क्या होगा।
एनपीएस के खिलाफ गुजरात में आंदोलन कर रहे कर्मचारियों का कहना है कि ओपीएस में कर्मचारी और उसके परिवार को कर्मचारी की अंतिम तनख्वाह का 50 फीसद पैसा पेंशन के रूप में मिलता था और उस पेंशन को महंगाई के हिसाब से लगातार अपग्रेड किया जा रहा था। लेकिन नई पेंशन स्कीम यानी एनपीएस में सरकार जनरल प्रोविडेंट फंड का 10 फ़ीसदी पैसा कर्मचारियों की तनख्वाह से हर महीने काटती है और उसी राशि के कॉन्ट्रिब्यूशन को एनपीएस ट्रस्ट में जमा कर देती है।
कर्मचारियों का कहना है कि रिटायरमेंट के बाद कर्मचारी को सरकार द्वारा अधिकृत की गई 3 संस्थाओं में से किसी एक से पेंशन प्रोडक्ट खरीदना होता है।
कर्मचारियों का कहना है कि एनपीएस में पेंशन के रूप में मिलने वाला पैसा ओपीएस की तुलना में बहुत कम होता है और महंगाई के बढ़ने का इस पर असर नहीं होता और यह फिक्स्ड बना रहता है।
कर्मचारियों का कहना है कि राज्य सरकार के सभी कर्मचारी जो 2005 के बाद नियुक्त हुए हैं उन्हें एनपीएस के अंदर डाल दिया गया है और ऐसा करके राज्य सरकार कर्मचारियों को दी जाने वाली पेंशन से अपना पीछा छुड़ाना चाहती है।
बता दें कि गुजरात में कर्मचारी संगठनों से सात लाख से ज्यादा कर्मचारी जुड़े हुए हैं और उनके परिवार के मतों को मिलाकर यह संख्या अच्छी खासी बैठती है। गुजरात में भी आम आदमी पार्टी और कांग्रेस पुरानी पेंशन योजना को बहाल करने का वादा कर चुके हैं।
हिमाचल प्रदेश और गुजरात में विधानसभा के चुनाव सामने हैं और उससे पहले पुरानी पेंशन योजना की बहाली की मांग को लेकर कर्मचारियों का प्रदर्शन निश्चित रूप से बीजेपी के लिए मुश्किलें खड़ी कर सकता है।
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