कोरोना वायरस से संक्रमित होने का ही खौफ कितना ज़्यादा है! क्या आपने वह ख़बर पढ़ी है जिसमें दिल्ली में सर्दी-जुकाम के बाद युवक ने सिर्फ़ कोरोना के संदेह में ही हॉस्पिटल की बिल्डिंग से छलांग लगा दी थी? उसके दिमाग़ में कितनी हलचल होगी! कितना तनाव होगा! कितनी मानसिक पीड़ा होगी! वह किस हद से गुजरा होगा! अब कल्पना करें कि जिसे कोरोना का संक्रमण हो जाए, वह किस तनाव से गुज़रता होगा। आइसोलेशन में यानी सबसे अलग-थलग। कोई घरवाला नहीं। ज़हन में हर पल अनहोनी का डर। और पता नहीं, क्या-क्या!
क्या ऐसी ही स्थिति में 20-30 दिन तक एक जगह पड़े रहना आसान है? क्या हो जब कोरोना से ठीक होने के बाद भी कई दिक्कतें बनी रहें। क्या मानसिक स्वास्थ्य दुरुस्त रह सकता है? क्या हो जब अस्पतालों में भर्ती होने वाले ऐसे 48 फ़ीसदी लोगों में मानसिक दिक्कतें आएँ? क्या सरकार ऐसी स्थिति से निपटने के लिए तैयार है?
कुछ दिन के लॉडडाउन ने ही मानो हर किसी को बीमार कर दिया है! ऐसे में कोरोना वायरस के संक्रमण के ख़तरे मात्र से सिहरन पैदा हो जाती है। अब यदि हज़ारों लोग कोरोना से संक्रमित हो जाएँगे तो संक्रमण के दौरान और उनके ठीक होने के बाद के हालात कैसे होंगे? इसी स्थिति से निपटने के लिए न तो भारत ने और न ही इटली, स्पेन, फ़्रांस, अमेरिका जैसे देशों ने ऐसी जानकारी दी है कि कोई योजना तैयार है या नहीं। हालाँकि, ये देश कोरोना के संक्रमण से निपटने के लिए लॉकडाउन जैसे उपाय और इसकी जानकारी हर रोज़ दे रहे हैं।
लेकिन इस मामले में चीन ने काफ़ी काम किया है। जब चीन में बड़े पैमाने पर कोरोना पॉजिटिव के मामले आने लगे थे और लोग खौफ में थे तब जैक मा फ़ाउंडेशन ने इस पर काम किया। चीन के बड़े क़ारोबारी रहे जैक मा के इस फ़ाउंडेशन ने सबसे आगे रहकर कोरोना के मरीजों का इलाज करने वाले डॉक्टरों के नोट के आधार पर रिपोर्ट तैयार की। डॉक्टरों ने इन नोट में मरीजों के इलाज के दौरान व्यवहार और कोरोना बीमारी से उबरने के बाद उनके व्यवहार में परिवर्तन और सोचने के तरीक़ों का विश्लेषण किया है। इसमें ख़ासतौर पर मनोवैज्ञानिक बदलावों को देखा गया है। इसमें पाया गया कि हॉस्पिटल भर्ती होने वाले 48 फ़ीसदी मरीजों में मनोवैज्ञानिक तनाव के लक्षण दिखे। ये लक्षण इस वायरस के संक्रमण के बाद मरीज की भावनात्मक प्रतिक्रिया के बाद आए।
अधिकतर मरीजों में दिखा कि उन्हें पछतावा है और उनमें ग़ुस्सा है। उनमें अकेलापन, बेबसी, डिप्रेशन, अत्यधिक चिंता, फ़ोबिया यानी डर, चिड़चिड़ापन, नींद नहीं आना और पैनिक अटैक की भी समस्याएँ आईं। कोरोना के गंभीर मरीजों में तो बेहोश होने जैसी दिक्कतें भी आईं।
मनोवैज्ञानिक स्तर पर देखें तो यह बहुत बड़ी समस्या है। ऐसा नहीं है कि यह समस्या एकाएक आ गई हो। ऐसे मरीजों की हॉस्पिटल में ही मानसिक स्वास्थ्य की हर हफ़्ते स्क्रीनिंग होती थी। इसके साथ ही नींद अच्छी आई या नहीं, ब्लड प्रेशर, मनोदशा कैसी है, ऐसी जाँचें भी की जाती थीं।
ऐसे मरीजों की स्थिति जानने के लिए छह मनोवैज्ञानकि टेस्ट लिए गए। इनमें से कई में डॉक्टरों के साथ मरीजों का सीधे इंटरव्यू भी शामिल है। एक टेस्ट तो विश्व स्वास्थ्य संगठन यानी डब्ल्यूएचओ के तय पैमाने पर किया गया। अधिकतर टेस्ट में उनसे पेपर पर सवाल किए गए और हाँ और नहीं में जवाब माँगे गए। इनमें कुछ ऐसे सवाल किए गए-
- क्या आपके हाथ काँपते हैं?
- क्या आपको बार-बार सिर दर्द करता है?
- क्या आप सामान्य से ज़्यादा रोते हैं?
- क्या ज़िंदगी ख़त्म करने का ख़्याल आया?
- क्या आपको लगता है कि आप बिना काम के आदमी हैं?
इसके अलावा दूसरे टेस्ट में उनसे दूसरी शारीरिक दिक्कतों की जानकारी ली गई। जैसे, भूख लगने में दिक्कत या ज़्यादा भूख लगना, न्यूज़ पेपर पढ़ने में परेशानी, टीवी देखने में समस्या। यह पता लगाने की कोशिश की गई कि कहीं मरीज को ऐसा तो नहीं लगता है कि उसके कारण उसके परिवार पर आँच आई है। एक अन्य टेस्ट में चिंता का स्तर मापा गया और यह देखा गया कि कहीं एंग्जाइटी डिसऑर्डर तो नहीं है। इसके अलावा तीन टेस्ट रिपोर्ट डॉक्टरों और मनोवैज्ञानिकों ने मरीजों के व्यवहार देखकर तैयार कीं।
जिन मरीजों में मनोवैज्ञानिक बीमारी के लक्षण दिखे उनको दवाएँ दी गईं और मन को हल्का करने और नींद अच्छी लेने के उपाय बताए गए। डॉक्टरों ने निगरानी रखी। चीन अभी भी ऐसे मरीजों को इलाज करने में लगा है।
भारत जैसे देशों को चीन से सीखने की ज़रूरत है। भारत के लिए तो ख़ासतौर पर यह काफ़ी अहम हो जाता है क्योंकि देश में मनोवैज्ञानिक मरीजों की अनदेखी की जाती रही है और इस मामले में बहुत कम ही जागरूकता है।
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