गुजरात में छात्रों को अपनी हाज़िरी दर्ज़ कराने के लिए अब से ‘येस सर/मैम’ या ‘प्रेज़ंट सर/मैम’ कहने के बजाय ‘जय हिंद’ या ‘जय भारत’ कहना होगा। फ़ैसला राज्य के शिक्षा मंत्री का है और उनका मानना है कि इससे बच्चों में राष्ट्र के प्रति प्रेम जागृत होगा। इससे पहले सुप्रीम कोर्ट ने क़रीब दो साल पहले देश भर के सिनेमा हॉल में ‘जन-गण-मन’ का बजना अनिवार्य कर दिया था। हालाँकि बाद में कोर्ट ने इसकी अनिवार्यता हटा दी थी। लेकिन उद्देश्य उसका भी यही था कि लोगों में राष्ट्रप्रेम की भावना जागृत हो।
सुप्रीम कोर्ट का आदेश हो या गुजरात के शिक्षा मंत्री का, दोनों आदेशों के मूल में यही है कि देश के छात्रों/लोगों में राष्ट्र के प्रति प्रेम नहीं है या कम है और इसे जगाना या बढ़ाना ज़रूरी है। मुझे नहीं मालूम (आपको मालूम हो तो बताएँ) कि किसी व्यक्ति के मन में राष्ट्र यानी भारत के प्रति प्रेम है या नहीं, इसका पता लगाने का तरीक़ा क्या है। क्या 15 अगस्त को घर में या कार में प्लास्टिक का तिरंगा लगाना राष्ट्रप्रेम का सबूत है?
क्या क्रिकेट मैच के दौरान गालों पर तिरंगा रंगवाना या ‘इंडिया-इंडिया’ चिल्लाना राष्ट्रप्रेम का प्रमाण है? यदि मैं अपने गाल नहीं रंगवाता या ‘इंडिया-इंडिया’ नहीं चिल्लाता तो क्या मेरे मन में राष्ट्रप्रेम नहीं है?
- क्या पतंजलि के उत्पादों का उपयोग करना राष्ट्रप्रेम है और मल्टीनैशनल कंपनियों के उत्पादों का उपयोग करना राष्ट्रप्रेम नहीं है? क्या बीजेपी को वोट देना राष्ट्रप्रेम है और किसी और को वोट देना राष्ट्रप्रेम नहीं है?
चलिए, इस सवाल को छोड़ देते हैं। हम राष्ट्रप्रेम का पता लगाने के बजाय राष्ट्रप्रेम को बढ़ाने के मुद्दे पर आते हैं जो कि सुप्रीम कोर्ट और गुजरात के शिक्षा मंत्री दोनों के आदेशों का मूल उद्देश्य है। सुप्रीम कोर्ट को लगता था कि ‘जन-गण-मन’ के दौरान खड़े होने से भारतीयों में राष्ट्रप्रेम की भावना जागृत होगी। मान लिया कि कोर्ट का अंदाज़ा सही था और पिछले दो सालों में जितने भी हिंदुस्तानी सिनेमा हॉल में गए और ‘जन-गण-मन’ के दौरान खड़े रहे, वे सबके-सब राष्ट्रप्रेम से लबालब हो गए।
- लेकिन उससे हुआ क्या? क्या वह ‘राष्ट्रप्रेमी’ व्यापारी जो अपनी काली कमाई आयकर विभाग से छुपाता था, अब नहीं छुपाता होगा? क्या वह ‘राष्ट्रप्रेमी’ कर्मचारी जो पहले फ़ाइल आगे बढ़ाने के पैसे लेता था, अब नहीं लेता होगा? क्या वह ‘राष्ट्रप्रेमी’ कार चालक जो लाल बत्ती जंप करता था, अब नहीं करता होगा?
पिछले दो सालों में न जाने कितनी बार कितने लोग सिनेमा हॉल में ‘जन-मन-गण’ के दौरान खड़े हुए होंगे और कुछ ने तो साथ-साथ राष्ट्रगान को गाया-गुनगुनाया भी होगा। लेकिन इस 52 सेकंड की ‘राष्ट्रप्रेमवर्धक मुद्रा’ से देश का नागरिक कितना बदला?
प्रतीकों या ढकोसलों से बेहतर नहीं बनता राष्ट्र
मेरे हिसाब से रत्ती भर भी नहीं। और वह इसलिए कि कोई भी राष्ट्र प्रतीकों या ढकोसलों से बेहतर नहीं बनता। वह बेहतर बनता है जब उसके नागरिक बेहतर बनते हैं। और नागरिक बेहतर बनते हैं जब वे दूसरों के लिए, ख़ासकर अपने से कमज़ोरों के लिए सोचते हैं और उनके लिए स्वेच्छा से किसी भी तरह का योगदान करते हैं। जहाँ हर कोई अपने और अपनों के लिए धन कमाने और सुविधाएँ जुटाने में लगा है, वहाँ कौन है जो दूसरों के लिए सोचेगा? और जब आप दूसरों के लिए ही नहीं सोचते तो देश और राष्ट्र के लिए सोचना तो बहुत दूर की बात है।
जैसे सुप्रीम कोर्ट का आदेश भारत के नागरिकों को बेहतर नागरिक नहीं बना सका, वैसे ही गुजरात में स्कूलों में ‘जय हिंद’ कहने से वहाँ का छात्र बेहतर छात्र नहीं बनेगा।
इसीलिए ‘जय हिंद’ कहने से छात्रों में देशभक्ति का भाव भी जागृत नहीं होगा। उनके लिए ’जय हिंद’ भी ‘येस सर’ का ही दूसरा रूप होगा। जब किसी छात्र को अपने अनुपस्थित दोस्त के लिए फ़र्ज़ी हाज़िरी लगानी होगी, तब भी वह ‘जय हिंद’ ही कहेगा। वह ’जय हिंद’ कहेगा और परीक्षा में नक़ल भी करेगा। वह ‘जय हिंद’ कहेगा और होस्टल-संबंधी या और कोई माँग न माने जाने पर तोड़फोड़ भी करेगा। वह ‘जय हिंद’ कहेगा और लड़कियों के स्कूल या कॉलेज के बाहर खड़े होकर फ़ब्तियाँ भी कसेगा।
वह 'जय हिंद' कहेगा और वैसा ही रहेगा।
अपनी राय बतायें