गुजरात में अगले साल दिसंबर में विधानसभा के चुनाव होने हैं। चुनाव में पूरा डेढ़ साल बाक़ी है। लेकिन बीजेपी ने चुनाव की तैयारियाँ ज़ोर-शोर से शुरू कर दी हैं। चुनाव को लेकर लगातार बैठकों का दौर जारी है। दिल्ली से भी बड़े नेताओं के दौरों का सिलसिला लगातार बना हुआ है। बीजेपी की चुनाव की तैयारियाँ और हाल ही में लिए गए कुछ राजनीतिक फ़ैसले इस तरफ़ इशारा कर रहे हैं कि शायद बीजेपी को अपने इस मज़बूत क़िले के दरकने का ख़तरा पैदा हो गया है?
गुजरात के विधानसभा चुनावों की तैयारियों को लेकर बीजेपी ज़रूरत से ज़्यादा ही एहतियात बरत रही है। कुछ ज़्यादा ही सजग और सक्रिय नज़र आ रही है। उत्तर प्रदेश से भी ज़्यादा। गुजरात के मुख्यमंत्री विजय रुपाणी ने अचानक अपना जनसंपर्क अभियान शुरू कर दिया है। सोमवार और मंगलवार को उन्होंने दोपहर से शाम तक आम लोगों से मुलाक़ात करके न सिर्फ़ उनकी समस्याएँ सुनीं बल्कि उनसे अपनी सरकार के बारे में फीडबैक भी लिया। हालाँकि मुख्यमंत्री हर महीने के आख़िर में 'मोकला मने' (यानी खुले दिल से) कार्यक्रम के तहत लोगों से मिलकर उनकी समस्या सुनते हैं। लेकिन यह 'जनसंवाद' लोगों से सरकार के कामकाज के बारे में फ़ीडबैक लेने के लिए किया गया।
क्यों पड़ी ज़रूरत?
सवाल यह उठ रहा है कि जब चुनाव में डेढ़ साल बाक़ी है तो अभी से मुख्यमंत्री इस तरह के 'जनसंवाद' और 'जनसंपर्क अभियान' में क्यों जुट गए हैं। दरअसल, कोरोना की दूसरी लहर के दौरान गुजरात सरकार पर मौत के आँकड़े छुपाने के गंभीर आरोप लगे हैं। ऑक्सीजन की कमी से लेकर कोरोना के इलाज में लापरवाही के भी आरोप लगे हैं। इसे लेकर सरकार कटघरे में है। मुख्यमंत्री आम जनता से बात करके यह जानने की कोशिश कर रहे हैं कि आम जनता में उनके और उनकी सरकार के ख़िलाफ़ कितना ग़ुस्सा है।
न मोदी चेहरा होंगे, न रुपाणी
पिछले हफ्ते राज्यों में चुनावों की तैयारियों को लेकर बीजेपी के वरिष्ठ नेताओं की बैठक हुई। इसमें फ़ैसला किया गया कि इस बार विधानसभा चुनाव में ना तो पीएम मोदी को चेहरा बनाया जाएगा और ना ही मुख्यमंत्री रुपाणी को अगले मुख्यमंत्री के तौर पर पेश किया जाएगा। इसके बजाय पार्टी सामूहिक नेतृत्व के नाम पर चुनाव लड़ेगी। यह बहुत अहम फ़ैसला है। ऐसा लगता है कि बीजेपी ने बहुत सोच समझकर यह क़दम उठाया है।
क्या है डर?
प्रधानमंत्री बनने से पहले नरेंद्र मोदी 13 साल तक गुजरात के मुख्यमंत्री रहे हैं। अब बीजेपी उनके चेहरे पर राज्य के विधानसभा चुनाव लड़ने से कतरा रही है। इसके पीछे यह वजह हो सकती है कि कोरोना की दूसरी लहर में केंद्र सरकार पर पूरी तरह नाकाम रहने का ठप्पा लगा है। उस पर हालात की गंभीरता को नहीं समझ पाने के गंभीर आरोप लगे हैं। पेट्रोल डीजल के लगातार बढ़ते दाम और इसकी वजह से अपने उच्चतम स्तर पर पहुँची खुदरा और थोक महंगाई दर ने आम आदमी की कमर तोड़ दी है।
मोदी सरकार के ख़िलाफ़ देशभर में पहली बार जनाक्रोश दिखाई दे रहा है। इसका ख़ामियाजा बीजेपी को गुजरात में भरना पड़ सकता है। इसी डर से यह फ़ैसला किया गया है कि न पीएम के चेहरे पर चुनाव लड़ा जाएगा और न ही सीएम के।
अमित शाह के दौरे
गृहमंत्री अमित शाह भी लगातार गुजरात के दौरे पर जा रहे हैं। हालाँकि वह गुजरात की गांधीनगर लोकसभा सीट से सांसद है। लिहाज़ा अपने संसदीय क्षेत्र में उनका आना जाना लगा रहता है। लेकिन हाल ही में उन्होंने अपनी यात्रा के दौरान विधानसभा चुनावों की तैयारियों का जायज़ा लिया। उन्होंने पार्टी के सांसदों, विधायकों और तमाम नेताओं को चुनावों के लिए पूरी तरह कमर कसने को कहा। पिछली बार वह 21-22 जून को गुजरात गए थे। इस दौरान उन्होंने कई विकास कार्यों की शुरुआत की और पुराने चल रहे कामों की भी समीक्षा की थी। अब 11-12 जुलाई को उनका फिर से गुजरात जाने का कार्यक्रम है।
प्रभारी की मैराथन बैठकें
अमित शाह की गुजरात दौरे से कुछ दिनों पहले गुजरात मामलों के प्रभारी और बीजेपी के वरिष्ठ नेता भूपेंद्र यादव भी कई दिनों के दौरे पर अहमदाबाद गए थे। वहाँ उन्होंने मुख्यमंत्री विजय रुपाणी के अलावा उपमुख्यमंत्री नितिन पटेल और बाक़ी मंत्रियों से अलग-अलग मुलाक़ात की। अक़सर ऐसी बैठक है और मुलाक़ातें गेस्ट हाउस में होती रही हैं। इस बार भूपेंद्र यादव पार्टी नेताओं से उनके घर जाकर मिले थे। गुजरात की सियासत पर पैनी नज़र रखने वाले बताते हैं कि किसी प्रभारी का इस तरह नेताओं के घर-घर जाकर मुलाक़ात करना उन्होंने पहली बार देखा है।
ज़िला स्तर पर बैठक
भूपेंद्र यादव ने ऐलान किया था कि विधानसभा चुनाव में पार्टी की जीत सुनिश्चित करने के लिए वो ख़ुद हर ज़िले में जाकर पार्टी संगठन के साथ चुनावी तैयारियों का जायज़ा लेंगे। इसके साथ ही चुनाव प्रबंधन की खामियों को दूर करेंगे। गुजरात की सियासत पर पैनी नज़र रखने वालों के मुताबिक़ गुजरात में पहली बार हो रहा है कि बीजेपी का कोई प्रभारी ज़िला स्तर पर ख़ुद जाकर चुनाव की तैयारियों का जायज़ा लेने की बात कह रहा है।
क्या कहता है चुनावी गणित?
पिछले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने बीजेपी को जबरदस्त टक्कर दी थी। हालाँकि कांग्रेस को बीजेपी से 22 सीटें कम मिली थीं लेकिन नतीजे सभी सीटों के परिणाम आने तक बीजेपी के तमाम छोटे-बड़े नेताओं की साँसें अटकी हुई थीं। क्योंकि रुझानों में बीजेपी कांग्रेस के बीच फ़ासला बहुत कम था। बीजेपी ने 99 सीटें जीती थीं और कांग्रेस ने 77 सीटें हासिल की थीं। बीजेपी को 16 सीटों का नुक़सान हुआ था और कांग्रेस को इतनी ही सीटों का फ़ायदा हुआ था।
कांग्रेस का ग्राफ़ बढ़ा
बीजेपी को एक करोड़ 47 लाख वोट मिले थे तो कांग्रेस को एक करोड़ 24 लाख। बीजेपी को कुल 49.1% और कांग्रेस को 41.4% वोट मिले थे। चुनावी रणनीतिकारों का मानना है कि कांग्रेस अगर थोड़ी गंभीर कोशिश करे तो अगले चुनाव में बीजेपी को पटकनी दे सकती है। इसका एहसास बीजेपी को भी है।
हालाँकि कांग्रेस अभी चुनाव के लिहाज़ से लगभग निष्क्रिय है। अंदरूनी उठापटक से भी जूझ रही है। कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष इस्तीफा दे चुके हैं लेकिन अभी नया अध्यक्ष नहीं बना है। कांग्रेस के प्रभारी राजेश यादव का देहांत हो चुका है। अभी कांग्रेस का नया प्रभारी भी नहीं बनाया गया है। इस बीच गुजरात की राजनीति को बदलने का दावा करने वाली आम आदमी पार्टी ने अपनी सरगर्मियाँ बढ़ा दी हैं। आम आदमी पार्टी ने जिस तरह स्थानीय निकाय के चुनावों में अपनी मौजूदगी दर्ज कराई है, उससे भी बीजेपी नेताओं के पेशानी पर बल पड़ गए हैं। लेकिन असदुद्दीन ओवैसी के भी पूरे दमख़म के साथ विधानसभा चुनाव में उतरने की चर्चा है। इससे बीजेपी नेताओं के चेहरे खिल सकते हैं।
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