सीरीज़- ताजमहल 1989
डायरेक्टर- पुष्पेंद्र नाथ मिश्रा
स्टार कास्ट- नीरज काबी, गीतांजलि कुलकर्णी, शीबा चड्ढा, दानिश हुसैन, अनुद सिंह ढाका, अंशुल चौहान, पारस प्रियदर्शन
स्ट्रीमिंग प्लेटफॉर्म- नेटफ्लिक्स
रेटिंग- 4/5
'ताजमहल 1989' सीरीज़ डिजिटल प्लेटफ़ॉर्म नेटफ्लिक्स पर 14 फ़रवरी को रिलीज़ की गई है। ताजमहल को शाहजहाँ ने अपनी बेग़म मुमताज की याद में बनवाया था और हमेशा से हम सभी ने इसे प्यार के प्रतीक के रूप में ही जाना है। ताजमहल के नाम पर बनी इस सीरीज़ में भी प्यार, मुहब्बत और नोकझोंक को दिखाया गया है लेकिन ये सब आज के समय का नहीं है। पुष्पेंद्र नाथ मिश्रा द्वारा निर्देशित सीरीज़ 'ताजमहल 1989' में दिखाई गई प्रेम कहानियाँ उस वक़्त की हैं जब न कोई मोबाइल फ़ोन होता था और न ही सोशल मीडिया। उस वक़्त चिट्ठी का दौर था। इसलिए इस सीरीज़ के नाम में 1989 जोड़ा गया है क्योंकि डायरेक्टर पुष्पेंद्र ने उस वक़्त की प्रेम कहानियों को लेकर इस सीरीज़ को बनाया है।
'ताजमहल 1989' में लखनऊ की 3 प्रेम कहानियाँ दिखाई गई हैं जो कि अलग-अलग है। पहली कहानी है अख्तर (नीरज काबी) और उनकी पत्नी सरिता (गीतांजलि कुलकर्णी) की जिनकी लव मैरिज हुई है। लखनऊ यूनिवर्सिटी में अख्तर फिलॉसफी के प्रोफ़ेसर हैं तो वहीं पत्नी सरिता फ़िजिक्स की प्रोफ़ेसर हैं। सरिता को लगने लगता है कि शादी के 22 सालों बाद उन दोनों के बीच प्यार ख़त्म हो चुका है। दूसरी कहानी है फ़िलॉसफ़ी के अच्छे जानकार सुधाकर (दानिश हुसैन) और मुमताज़ (शीबा चड्ढा) की जो कि साथ रहते हैं लेकिन शादीशुदा नहीं हैं। मुमताज एक सेक्स वर्कर थीं और वहीं उनसे सुधाकर की मुलाक़ात हुई और दोनों में प्यार हो गया। घर वालों के ख़िलाफ़ जाकर सुधाकर मुमताज़ के साथ रहने लगे।
तीसरी कहानी है रश्मि (अंशुल चौहान) और धरम (पारस प्रियदर्शन) की जो कि एक ही कॉलेज में साथ पढ़ते हैं और दोनों के बीच प्यार हो जाता है। तीनों ही प्रेम कहानियाँ अलग-अलग हैं लेकिन तीनों की अपनी अलग उलझनें, कशमकश और प्यार में बदलाव आने के डर को दिखाया गया है। कैसे उस जमाने में लोग बिना मोबाइल और सोशल मीडिया के भी प्यार और रिश्ते निभाते थे। 'ताजमहल 1989' में कई हैरान करने वाले मोड़ आएँगे जहाँ लगेगा कि अब ये रिश्ता टूट गया। तीनों प्रेम कहानियों में से कौन-सा रिश्ता अंत तक रहेगा और अंत में प्यार की असल परिभाषा जानने के लिए आप ये सीरीज़ ज़रूर देखिए।
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डायरेक्शन
पुष्पेंद्र नाथ मिश्रा ने उस वक़्त पर काफ़ी रिसर्च के बाद सीरीज़ की कहानी को लिखा है। जब मोबाइल नहीं हुआ करते थे और कोई फ़ेसबुक या व्हाट्सैप जैसे सोशल मीडिया अकाउंट नहीं होते थे। उस दौर में प्यार और उसकी परिभाषा को सीरीज़ में फ़िल्माया गया है। डायरेक्शन बेहद ख़ूबसूरती से किया गया है और इसके साथ सन् 1989 के सिनेमा थिएटर, लोगों के घर और पहनावे पर भी ग़ौर किया गया है। सीरीज़ को देखते हुए आपको ऐसा लगने लगता है कि इस किरदार की कहानी हमारी तरह है और हम इसे जी रहे हैं।
कलाकारों की अदाकारी
नीरज काबी और गीतांजलि कुलकर्णी ने अपने-अपने किरदार में बेहतरीन काम किया है। दोनों ही स्टार्स सामान्य तरीक़े से व्यक्तित्व को पर्दे पर दिखाने में कामयाब हुए हैं। तो वहीं शीबा चड्ढा और दानिश हुसैन की एक्टिंग के साथ बात करने का उनका तरीक़ा भी काफी अच्छा है। घर में आम पति-पत्नी की तरह से बात करने का लहज़ा और उसके अनुसार एक्टिंग अंत तक दिखाई दी है। अनुद सिंह ढाका की एक्टिंग की बात करें तो उन्होंने कॉलेज स्टूडेंट का किरदार निभाया है और उनकी एक्टिंग भी काफ़ी नेचुरल दिखती है। इसके अलावा अंशुल चौहान, पारस प्रियदर्शन और अन्य किरदारों ने भी अच्छी एक्टिंग की है।
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क्यों देखें?
सन् 1989 की प्रेम कहानियों को पर्दे पर उतारा गया है और इसकी कहानी को देखते हुए आप खुद को इससे जुड़ा हुआ महसूस करेंगे। इसके अलावा स्टार्स की एक्टिंग और सीरीज़ की हर एपिसोड के बाद दिलचस्पी आपको अंत तक सीरीज़ से बांधे रखेगी। बिना सोशल मीडिया और मोबाइल के उस दौर के प्यार-मुहब्बत को जानने के लिए आप ये सीरीज़ एक बार देख सकते हैं।
क्यों न देखें?
अगर आप को प्यार-मुहब्बत जैसी सीरीज़ या फ़िल्म पसंद नहीं है तो यह आपको बिल्कुल पसंद नहीं आएगी।
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