फ़िल्मी संगीत के इतिहास में मदन मोहन के अलावा रोशन एक ऐसे विरले प्रतिभाशाली संगीतकार हैं जिन्हें कम समय मिला जीने के लिए लेकिन उन्होंने कालजयी संगीत रच कर एक ऐसा मुकाम बनाया है अपने लिए जिसे हासिल करना किसी भी संगीतकार का सपना हो सकता है। यह एक विडम्बना है कि आज की पीढ़ी रोशन से ज़्यादा उनके सुपरस्टार पोते ऋतिक रोशन को जानती है। सच तो ये यह कि रोशन का एक-एक गाना उनके दोनों बेटों राकेश रोशन, राजेश रोशन और सुपरस्टार पोते के समूचे काम पर भारी है।
14 जुलाई 1917 को पैदा हुए संगीतकार रोशन की जन्म शताब्दी तीन साल पहले आकर चुपचाप गुज़र भी गयी लेकिन उनके परिवार के अलावा फ़िल्मी दुनिया में शायद ही उन्हें किसी आयोजन के ज़रिये याद किया गया हो। ऋतिक और राकेश रोशन के लिए ये अपने परिवार और सिनेमा के रिश्ते पर गर्व करने का दोहरा मौक़ा है। यही फ़िल्मी दुनिया का चलन है। रोशन को जीते जी भी फ़िल्मी दुनिया ने कामयाब संगीतकारों की फेहरिस्त में वो दर्जा नहीं दिया जिसके वो सचमुच हक़दार थे। रोशन यह बात बखूबी समझते रहे होंगे तभी तो दार्शनिकता भरा यह गीत रच गए- ‘मन रे तू कहे न धीर धरे, वो निर्मोही मोह न जाने जिनका मोह करे।’
चित्रलेखा फ़िल्म के गीत को बेहद असरदार बनाने में रोशन की संगीत रचना के साथ-साथ साहिर लुधियानवी के शब्दों और मोहम्मद रफ़ी की आवाज़ की साझेदारी बराबर की है। रोशन और साहिर की जोड़ी का जादू ‘चित्रलेखा’ के अलावा ‘बरसात की रात’, ‘बाबर’, ‘बहू बेगम’, ‘ताजमहल’ और ‘दिल ही तो है’ जैसी फ़िल्मों के गानों के माध्यम से संगीत प्रेमियों के दिलों पर हमेशा छाया रहेगा। हिंदी सिनेमा के कालजयी संगीत के ख़ज़ाने में रोशन के रचे गीत बेशक़ीमती नगीनों की तरह जगमगाते हैं।
फ़िल्मी गानों के हवाले से प्रेम की आध्यात्मिकता का आलोक रचने वाले अप्रतिम संगीतकार हैं रोशन। रोशन को सिर्फ़ पचास साल की उम्र मिली जीने के लिए और उसमें भी उनके काम के कुल जमा बीस बरस रहे। लेकिन इतने कम समय में भी उन्होंने अमर गीत रच डाले। रोशन ने एक तरफ़ चित्रलेखा के लिए 'मन रे' जैसा गहरी आध्यात्मिकता वाला गीत रचा तो दूसरी तरफ़ बरसात की रात की कव्वाली - ‘ये इश्क़ इश्क़ है इश्क़ इश्क़’ और ‘दिल ही तो है’ का शास्त्रीय संगीत में रचा गया गाना - ‘लागा चुनरी में दाग छुपाऊँ कैसे’ - कालजयी संगीत की चमकदार मिसालें हैं। ‘बाबर’, ‘बहू बेगम’, ‘ताजमहल’ में उनकी ग़ज़लों को इतने सालों बाद भी जितनी बार सुना जाए, कानों में रस घुल जाता है।
गूजराँवालाँ में 14 जुलाई 1917 को जन्मे रोशनलाल नागरथ की दिलचस्पी तो संगीत में शुरू से थी लेकिन बड़े होने के दौरान वो यह तय नहीं कर पा रहे थे कि क्या करना है- गायक या संगीतकार में से क्या बनना है। जब पूरन भगत में कुन्दनलाल सहगल को भजन गाते सुना और देखा तो दीवाने हो गए।
वो भजन था- ‘भजूं मैं तो भाव से श्री गिरधारी’। भजन ने उनका इरादा पक्का कर दिया- संगीत ही रचना है।
लखनऊ का आज का भातखण्डे संगीत महाविद्यालय उन दिनों मोरिस कॉलेज कहलाता था। रोशन यहाँ संगीत की तालीम लेने लगे। मैहर के उस्ताद अल्लाउद्दीन ख़ान की शागिर्दी भी की। एक दिन उस्ताद ने पूछा- ‘मेरे साथ सीखने के बाद कितना रियाज़ करते हो?’ रोशन साहब ने थोड़े गर्व से कहा - दो घंटे सुबह और दो घंटे शाम। उनका ख्याल था उस्ताद ख़ुश होंगे। लेकिन अल्लाउद्दीन ख़ान की त्योरियों पर बल पड़ गए- ‘बोले आठ घंटे रियाज़ कर सकते हो तो यहाँ रहो वर्ना बोरिया-बिस्तर बांधो और चलते बनो’। उनकी सिट्टी- पिट्टी गुम हो गयी। लेकिन उसका अच्छा असर यह हुआ कि रियाज़ बढ़ गया और उस तालीम ने आगे उनको संगीत रचने में बहुत मदद की।
दिल्ली रेडियो स्टेशन पर कुछ अरसा काम करने के बाद वह 1948 में बम्बई पहुँचे। अगले ही साल केदार शर्मा ने उन्हें ‘नेकी और बदी’ में मौक़ा दिया। फ़िल्म तो फ्लॉप हो गयी लेकिन केदार शर्मा ने एक और मौक़ा दिया ‘बावरे नैन में’ - हीरो थे राजकपूर और हीरोइन गीता बाली। इस फ़िल्म के गानों ने धूम मचा दी। राजकुमारी की आवाज़ में सुनो ‘बैरी बलम सच बोल रे इब क्या होगा’, इतना मीठा गाना है कि आज भी सुनो तो कानों में जैसे शहद घुल जाता है। उधर मुकेश ने राजकपूर के लिए गाया- ‘तेरी दुनिया में दिल लगता नहीं, वापस बुला ले, मैं सजदे में गिरा हूँ, मुझको ऐ मालिक बुला ले’।
ध्यान देने की बात यह है कि रोशन फ़िल्मों में म्यूजिक देने जब आये तो अनिल बिस्वास से बहुत प्रभावित थे। उनके इस गाने पर अनिल बिस्वास के गवाए मुकेश के ‘पहली नज़र’ फ़िल्म के गाने 'दिल जलता है तो जलने दे' का असर साफ़ देखा जा सकता है।
इसके बाद उन्होंने जो रफ़्तार पकड़ी वो उनकी आख़िरी फ़िल्म ‘अनोखी रात’ तक जारी रही जिसका संगीत उनके निधन के बाद लोगों तक पहुँचा था। सारंगी, दिलरुबा, इसराज ये उनके प्रिय वाद्य थे और इनका अलग-अलग तरह से इस्तेमाल करके वो अपने गानों में अलग तरह की कैफियत पैदा करते थे। ‘नौबहार’ फ़िल्म के लिए नलिनी जयवंत पर फ़िल्माया गया उनका गाना ‘हे री मैं तो प्रेम दीवानी मेरा दर्द न जाने कोय’ - आज भी बेहद लोकप्रिय फ़िल्मी भजनों में गिना जाता है।
रोशन के गाने न होते तो प्रदीप कुमार जैसे कलाकार के करियर को क्या उतनी उठान मिल पाती यह कहना मुश्किल है। रोशन ने मोहम्मद रफ़ी से प्रदीप कुमार के लिए छह फ़िल्मों में गाने गवाए और सब कामयाब रहे। ‘आरती’, ‘भीगी रात’, ‘बहू बेगम’, ‘ताज महल’, ‘नूरजहाँ’, ‘चित्रलेखा’ के गाने बरसों पुराने होने के बावजूद बेहद ताज़ा लगते हैं। मीनाकुमारी, प्रदीप कुमार और अशोक कुमार की तिकड़ी की फ़िल्मों - ‘भीगी रात’, ‘बहू बेगम’ और ‘चित्रलेखा‘ को यादगार बनाने में इन अभिनेताओं के काम के साथ-साथ रोशन के संगीत का योगदान कम नहीं है। रफ़ी और रोशन ने 32 फ़िल्मों में काम किया और 88 गाने फ़िल्म संगीत में जोड़े।
अशोक कुमार और सुचित्रा सेन की फ़िल्म ममता का गाना 'रहें न रहे हम, महका करेंगे' एक तरह से उनके अपने जीवन और संगीत के लिए ही शीर्षक गीत या श्रद्धांजलि बन गया है।
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