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गुरुदत्त की फ़िल्म ‘साहब, बीवी और ग़ुलाम’ को हिंदी सिनेमा में क्लासिक का दर्जा हासिल है। लेकिन क्या कोई सोच सकता है कि एक वक़्त गुरुदत्त फ़िल्म के त्रासदी भरे अंत को सुखांत में बदलने के बारे में सोचने लगे थे।
ऐसी सलाह गुरुदत्त को दी थी एक और बहुत मशहूर फ़िल्मकार ने जिनका शाहकार भी हिंदी सिनेमा में मील का पत्थर माना जाता है।
यह फ़िल्मकार थे ‘मुग़ल-ए-आज़म’ के निर्देशक के. आसिफ़।
क़िस्सा यूँ है कि गुरुदत्त ने बांग्ला साहित्यकार बिमल मित्र के चर्चित उपन्यास ‘साहब, बीवी और ग़ुलाम’ पर इसी नाम से फ़िल्म बनाई और जिस दिन फ़िल्म रिलीज़ हुई तो गुरुदत्त प्रीमियर की गहमागहमी से फ़ारिग़ होकर रात में के. आसिफ़ से मिलने पहुँचे। बिमल मित्र उनके साथ थे। ‘मुग़ल-ए-आज़म’ हाल ही में रिलीज़ हुई थी और उसने बॉक्स ऑफ़िस पर झंडे गाड़ दिये थे। सलीम-अनारकली की बेपनाह मोहब्बत और उनके बीच दीवार बन कर खड़े मुग़ल शहंशाह अकबर की बेहद दिलकश दास्तान। दिलीप कुमार, मधुबाला, पृथ्वीराज कपूर की अदाकारी के चौतरफ़ा चर्चे हो रहे थे। तारीफ़ और पैसा दोनों के. आसिफ़ के आँगन में बरस रहा था। महफ़िलों के बादशाह थे ही वो।
उस रात भी के. आसिफ़ के घर पर पार्टी जैसा माहौल था। बातों-बातों में के. आसिफ़ ने ‘साहब, बीवी और ग़ुलाम’ के बारे में गुरुदत्त से कहा कि फ़िल्म का अंत अच्छा नहीं है। अचकचाये गुरुदत्त ने पूछा - क्यों?
के. आसिफ़ बोले - अगर फ़िल्म का अंत ट्रेजेडी में न करके कॉमेडी में करते तो फ़िल्म अच्छा पैसा देती।
महफ़िल में सन्नाटा छा गया। दुनिया में, और ख़ास कर फ़िल्मी दुनिया में, कामयाब शख़्स की राय वैसे भी बहुत अहमियत रखती है। फिर जिस शख़्स की फ़िल्म ‘मुग़ल-ए-आज़म’ टिकट खिड़की पर जमकर कमाई कर रही हो, उसकी सलाह को अनसुना करना नासमझी होती। गुरुदत्त फ़िल्म के ट्रैजिक अंत के बारे में अपने तर्क देते रहे और बिमल मित्र के उपन्यास का हवाला भी दिया। लेकिन मन ही मन उन्हें आशंका हुई कि फ़िल्म फ्लॉप हो गई तो क्या होगा। ‘काग़ज़ के फूल’ की नाकामी से उन्हें गहरा सदमा लगा था। ‘चौदहवीं का चाँद’ की अच्छी कमाई ने उस घाटे से उबरने में उनकी मदद की थी। गुरुदत्त एक बार फिर किसी तगड़े नुक़सान के ख़याल से थोड़ा डर गये।
दो दिन बाद फिर के. आसिफ़ के घर अड्डेबाज़ी का दौर चल रहा था। ‘साहब, बीवी और ग़ुलाम’ की बॉक्स ऑफ़िस रिपोर्ट पर चर्चा होने लगी। सबने कहा - रिपोर्ट बुरी नहीं है तो अच्छी भी नहीं है। के. आसिफ़ गुरुदत्त से फिर बोले - फ़िल्म का अंत ट्रेजेडी की जगह कॉमेडी कर दो।
गुरुदत्त चकराये। पूछा - ‘कैसे करूँ, क्या करूँ?’
के. आसिफ़ बोले - ‘अंत में दिखाओ कि छोटी बहू ने पीना छोड़ दिया, मियाँ बीवी में सुलह हो गयी। उनकी गृहस्थी में खुशियाँ लौट आईं।’
गुरुदत्त बहुत परेशान होकर लौटे। तमाम सिनेमाघरों में फ़ोन करके टिकट बिक्री का हालचाल लेते रहे। सुबह फ़िल्म के निर्देशक और पटकथा लेखक अबरार अल्वी को तलब किया और बिमल मित्र की मौजूदगी में ही कहा कि फ़िल्म का अंत बदल दिया जाए। इस पर अबरार से तीखी बहस हो गई। लेकिन उधर मीना कुमारी को ख़बर भी कर दी गई कि फिर से शूटिंग होगी। तोड़ दिया जा चुका सेट दोबारा तैयार किया जाने लगा।
इस सबके बीच गुरुदत्त के दिमाग़ में लगातार कशमकश चल रही थी। दिन भर ग़ायब रहने के बाद अचानक लौटे और कहा- ‘मैं फ़िल्म का अंत नहीं बदलूँगा।’
बिमल मित्र ने गुरुदत्त से जुड़ी यादों का ज़िक्र करते हुए लिखा है कि उस शाम गुरुदत्त ने कहा, ‘के. आसिफ़ चाहे जो कहे, मैं भी आख़िर डायरेक्टर हूँ, मुझमें भी बुद्धि विवेचना है। मैं दोपहर भर सोचता रहा। फ़िल्म का अंत मैं हरग़िज़ नहीं बदलूँगा। किसी शर्त पर नहीं। भले कोई मेरी फ़िल्म न देखे, मुझे लाखों-लाख का गच्चा लगे तो लगे, मुझे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। यह फ़िल्म- इसका अंत बदलने लायक है ही नहीं। यह अलग क़िस्म की कहानी है। लोग अगर समझ सकें तो भला, अगर न समझें तो नुक़सान उनका है, मेरा नहीं।’
और इस तरह छोटी बहू की त्रासदी सुखांतिकी में बदलने से बच गई।
गुरुदत्त के इन शब्दों में किसी फ़िल्मकार का घमंड नहीं था, न कोई ठसक, न दर्शकों को कमतर समझने का कोई उलाहना। ये अपनी कृति को लेकर आत्मविश्वास की पराकाष्ठा थी, एक कलाकार का, एक सर्जक का स्वाभिमान था जिसकी अपेक्षा इतनी सी थी कि उसकी फ़िल्म देखने वालों को अपनी समझ का स्तर सामान्य से ऊँचा करना होगा।
दिलचस्प बात यह है कि ‘साहब, बीवी और ग़ुलाम’ न सिर्फ़ बॉक्स ऑफ़िस पर कामयाब रही बल्कि अवार्ड भी खूब मिले। मीना कुमारी ट्रेजेडी क्वीन के रूप में अमर हो गयीं। सामंती परिवेश में एक महिला की दुखांत कहानी पर बनी इस फ़िल्म को सर्वश्रेष्ठ हिंदी फ़िल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार तो मिला ही, चार-चार फ़िल्मफेयर अवॉर्ड भी मिले थे। मीना कुमारी को सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री के लिए, अबरार अल्वी को निर्देशन के लिए, गुरुदत्त को बतौर निर्माता सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म के लिए और वी. के. मूर्ति को सिनेमेटोग्राफ़ी के लिए।
गुरुदत्त ने ‘साहब, बीवी और ग़ुलाम’ में भूतनाथ का किरदार निभाया था। लेकिन जब फ़िल्म के लिए कलाकारों का चुनाव हो रहा था, तब इस किरदार के लिए उनकी पसंद थे शशि कपूर। एक तो शशि जी के पास एकमुश्त तारीख़ें नहीं थीं और दूसरे वो गुरुदत्त और अबरार अल्वी से मीटिंग के लिए दो-ढाई घंटे लेट पहुँचे तो गुरुदत्त उखड़ गए। इसीलिए ये यादगार किरदार उनके हाथ से निकल गया। इस रोल के लिए उन्होंने उन दिनों के रोमांटिक हीरो बिस्वजीत से भी बात की थी लेकिन बात बनी नहीं।
गुरुदत्त की पसंदीदा अभिनेत्री वहीदा रहमान ने इस फ़िल्म में जबा का रोल किया था लेकिन वो शुरू में इसके लिए बिलकुल तैयार नहीं थीं, उन्हें छोटी बहू के किरदार में ही दिलचस्पी थी। गुरुदत्त ने मना कर दिया। उनका कहना था वहीदा का चेहरा काफ़ी कमसिन है और छोटी बहू का किरदार थोड़ी प्रौढ़ता माँगता है। कैमरामैन मूर्ति ने स्क्रीन टेस्ट लिया और वहीदा से वही कहा जो गुरुदत्त ने कहा था। वहीदा को लगा, अब इस फ़िल्म का और उनका क़िस्सा ख़त्म। लेकिन फ़िल्म के डायरेक्टर अबरार अल्वी ने एक दिन जब उन्हें याद फ़रमाया तो उन्हें लगा कि शायद किस्मत ने फिर दस्तक दी है छोटी बहू के रोल के लिए। मगर आख़िरकार जबा का रोल ही उनके हिस्से में आया।
यह एक अलग कहानी है कि के. आसिफ़ गुरुदत्त को लेकर एक फ़िल्म शुरू करनेवाले थे जिसका नाम था ‘लव एंड गॉड’। लैला-मजनूं की इस कहानी को गुरुदत्त की आत्महत्या के बाद संजीव कुमार के साथ बनाया गया।
लेकिन बरसों तक लटकने के बाद जब यह फ़िल्म रिलीज़ हुई तो वो दिन देखने के लिए न के. आसिफ़ थे और न संजीव कुमार।
यह भी एक इत्तिफ़ाक़ ही है कि गुरुदत्त और संजीव कुमार दोनों का जन्म एक ही तारीख़ को हुआ था -9 जुलाई।
गुरुदत्त का काम दो हिस्सों में बँटा हुआ है। एक तो वह दौर है जब गुरुदत्त कलकत्ता (अब कोलकाता) में टेलीफ़ोन ऑपरेटर से लेकर फ़िल्मों में कोरियोग्राफ़र का काम करने के बाद मुंबई में देव आनंद से टकराते हैं और दोनों युवा प्रतिभाओं की दोस्ती के साथ ‘बाज़ी’, ‘जाल’, ‘बाज़’ और ‘सीआईडी’ जैसी हॉलीवुड स्टाइल की हल्की-फुल्की शहरी थ्रिलर क़िस्म की मनोरंजक फ़िल्में पचास के दशक के हिंदी सिनेमा के इतिहास का उल्लेखनीय हिस्सा बनती हैं। इसमें ‘आर-पार’, ‘मिस्टर एंड मिसेज़ 55’ को भी जोड़ लें तो अभिनेता और निर्देशक के तौर पर उनके काम का पहला अध्याय तैयार हो जाता है। इन हल्की-फुल्की फ़िल्मों में गुरुदत्त की अभिनय और निर्देशकीय प्रतिभा का जो रंग मिलता है वह उनके बाद वाले बाक़ी काम से काफ़ी अलग है जिसके लिए अब उनका नाम दुनिया भर के बेहतरीन फ़िल्मकारों में लिया जाता है।
गुरुदत्त ने इसी दौर में वहीदा रहमान को दक्षिण भारत की एक तेलुगु फ़िल्म के ज़रिये खोजा और ‘सीआईडी’ से उनकी हिंदी फ़िल्मों की पारी शुरू हुई। आज यह जानकर अजीब लग सकता है कि हिंदी फ़िल्मों से पहले वहीदा रहमान ने तेलुगु फ़िल्मों में मुख्यतः आइटम नंबर किये थे। गुरुदत्त ऐसी ही एक फ़िल्म की कामयाबी की पार्टी में उनसे मिले थे। बाद में वहीदा रहमान गुरुदत्त की तीन सबसे मशहूर फ़िल्मों - ‘प्यासा’, ‘काग़ज़ के फूल’ और ‘साहब, बीवी और ग़ुलाम’ का हिस्सा रहीं।
वहीदा रहमान ने हमेशा गुरुदत्त को अपना मार्गदर्शक और उस्ताद माना। हालाँकि उनसे गुरुदत्त के लगाव की कहानी फ़िल्मी दुनिया की नाकाम मोहब्बतों की सबसे चर्चित दास्तानों में गिनी जाती है। गुरुदत्त के निजी जीवन के अवसाद को इस मोर्चे से भी जोड़ा जाता है।
प्यासा बनने से पहले दिलीप कुमार की फ़िल्म ‘देवदास’ आ चुकी थी और बिमल रॉय के निर्देशन में दिलीप कुमार ने शरत चंद्र के आत्म-विध्वंसी नायक को जिस तरह परदे पर जिया था, उसने त्रासदी के अभिनय के पैमाने बहुत ऊँचे तय कर दिए थे। ‘प्यासा’ की कहानी के नायक के किरदार में देवदास की बहुत साफ़ परछाइयाँ थीं लिहाजा, गुरुदत्त दिलीप कुमार को ही ‘प्यासा’ के लिए हीरो लेना चाहते थे, बात भी हो गयी थी लेकिन फिर दिलीप कुमार के पीछे हट जाने के कारण गुरुदत्त को कैमरे के सामने भी आना पड़ा। फिर जो हुआ वह अच्छे सिनेमा का एक बहुत शानदार अध्याय है। गुरुदत्त, वहीदा रहमान, अबरार अल्वी, साहिर लुधियानवी और एस. डी. बर्मन ने हिंदी सिनेमा में मील का एक पत्थर रच दिया।
‘प्यासा’ टाइम मैगज़ीन की सार्वकालिक सौ सर्वश्रेष्ठ फ़िल्मों की सूची में शामिल है। यह फ़िल्म आज़ादी के दस साल बाद बनी थी। साहिर का लिखा गाना- ‘जिन्हे नाज़ है हिन्द पर वो कहाँ है’ - आज देश की बदहाली पर एक व्यंग्यात्मक टिप्पणी की तरह इस्तेमाल होता है लेकिन आज़ादी के महज दस साल बाद, नेहरूवादी राजनीति के दौर के बीच भी गुरुदत्त और साहिर को विकास और आशावाद की चमक के नीचे पसरा हुआ अँधेरा दिख गया था। उसकी मार्मिक, दार्शनिक अभिव्यक्ति ने गुरुदत्त को कालजयी फ़िल्मकारों की फेहरिस्त में ला खड़ा किया। ‘प्यासा’ के नायक विजय की पीड़ा दरअसल किसी एक दौर के नहीं, हर दौर के हर संवेदनशील इंसान का दर्द बयान करती है-
मेरे सामने से हटा लो ये दुनिया
तुम्हारी है तुम ही सम्भालो ये दुनिया
ये दुनिया अगर मिल भी जाये तो क्या है…
देवदास की त्रासदी गुरुदत्त पर इस कदर हावी थी कि ‘कागज़ के फूल’ में एक फ़िल्म निर्देशक के किरदार में उन्हें जो फ़िल्म निर्देशित करते दिखाया गया है, उसका नाम ही देवदास है। फ़िल्म में वहीदा रहमान एक शॉट में जिस तरह पानी की गागर अपनी कमर पर टिकाये स्क्रीन पर आती हैं, वह बिमल रॉय की देवदास की पारो सुचित्रा सेन के बिलकुल वैसे ही दृश्य की याद दिलाता है। ‘काग़ज़ के फूल’ की बॉक्स ऑफ़िस पर नाकामी के बाद गुरुदत्त इतने मायूस हो गए थे कि बाद में किसी फ़िल्म का निर्देशन नहीं किया।
‘प्यासा’ अगर एक फ़िल्मकार के तौर पर गुरुदत्त की सोच, प्रखरता और सामाजिक प्रतिबद्धता का शिखर है तो ‘काग़ज़ के फूल’ एक तरह से फ़िल्मी दुनिया के चाल-चलन, तौर तरीक़ों पर तीखी व्यंग्यात्मक टिप्पणी के साथ-साथ निजी ज़िन्दगी के उतार चढ़ाव की भी झलक देती हुई आत्मकथात्मक फ़िल्म है।
नकलीपन से भरी दुनियादारी से एक खामोश लेकिन तीखा परहेज़, दुनियादारी और कामयाबी के सब पैंतरे समझते हुए भी ख़ुद को सारे तमाशे से अलग कर लेने की एक आत्मघाती क़िस्म की ज़िद और अवसाद ‘प्यासा’ और ‘काग़ज़ के फूल’ के किरदारों का ही नहीं, कहीं न कहीं उनकी निजी शख्सियत का भी हिस्सा था। यह अकारण नहीं है कि इन दोनों फ़िल्मों में निभाए गए गुरुदत्त के किरदारों को उनकी ज़िन्दगी और सोच का अक्स भी माना जाता है।
शोहरत एक छलावा है, मरीचिका है। कागज़ के फूल का गाना है-
उड़ जा उड़ जा प्यासे भँवरे
रस न मिलेगा ख़ारों में
काग़ज़ के फूल जहाँ खिलते हैं
बैठ न उन गुलज़ारों में
एक हाथ से देती है दुनिया, सौ हाथों से लेती है;
ये खेल है कब से जारी
बिछड़े सभी, बिछड़े सभी बारी-बारी
नींद की गोलियाँ खाकर चुपचाप इस दुनिया को अलविदा कह गए गुरुदत्त। कितनी गहरी कोई मायूसी रही होगी जिसने उन जैसे संवेदनशील इंसान का मन जीवन से इतना उचाट कर दिया होगा। नाम, पैसा, कामयाबी की जानलेवा दौड़ के मौजूदा दौर में गुरुदत्त के माध्यम से मिला फलसफा एक कड़वा सच याद दिलाता रहता है-
‘ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है?’
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