“Not to have seen the cinema of Ray means existing in the world without seeing the sun or the moon." – Akira Kurosawa
एक बहुत मशहूर उपभोक्ता ब्रांड के विज्ञापन से जुड़ी लाइन है- ‘अच्छाई की एक अलग चमक होती है।’
इसे विज्ञापन से बाहर थोड़ा बदल कर यूँ भी कह सकते हैं - अच्छाई का, अच्छी चीज़ों का एक अलग जादू होता है जो देश-काल से परे होता है और कभी फीका नहीं पड़ता। यह बात कला माध्यमों के बारे में खरी उतरती है। सिनेमा में चूँकि सारे कला माध्यमों का समावेश होता है इसलिए अच्छी किताब, अच्छे संगीत और अच्छी पेंटिंग की ही तरह अच्छी फ़िल्में न सिर्फ़ हमेशा आत्मिक तृप्ति देती हैं बल्कि रुचियों को परिष्कृत करते हुए हमारे जीवन को भी जाने -अनजाने गढ़ती हैं। जीवन को गढ़ने वाले सिनेमा की जब बात होगी तो दुनिया भर के जिन चुनिंदा फ़िल्मकारों का नाम लिया जाएगा, सत्यजित राय उनमें निर्विवाद रूप से शामिल होंगे। सत्यजित राय जन्म शताब्दी वर्ष के बहाने उनकी फ़िल्मों पर ज़्यादा से ज़्यादा बात होनी चाहिए ताकि फ़िल्मों के दर्शकों की वर्तमान पीढ़ी क्लासिक सिनेमा का स्वाद ले सके, उसे समझ सके।
सत्यजित राय के समकालीन और ख़ुद दुनिया के महान फ़िल्मकारों में से एक, जापान के अकीरा कुरोसावा ने कहा था- “सत्यजित राय के सिनेमा को न देखने का मतलब है दुनिया में सूरज या चाँद को देखे बिना रहना।” मार्टिन स्कॉर्सेसी और क्रिस्टोफ़र नोलन जैसे हॉलीवुड के बेहद चर्चित निर्देशकों ने यह स्वीकार किया है कि सत्यजित राय की फ़िल्मों से उन्होंने बहुत कुछ सीखा है।
ऐसा क्या कमाल किया था सत्यजित राय ने? राय बांग्ला भाषी फ़िल्मकार थे और प्रेमचंद की दो कहानियों- ‘शतरंज के खिलाड़ी’ और ‘सद्गति’ पर हिंदी में बनायीं फिल्मों को छोड़कर उनका अधिकांश काम बांग्ला भाषा में, बंगाल के जीवन के इर्दगिर्द ही सिमटा हुआ है। सत्यजित राय ने बिना किसी लागलपेट के यह स्वीकार किया था कि वह बांग्ला में फ़िल्में इसलिए बनाते हैं क्योंकि उन्हें बांग्ला ही आती है। हिंदी में दो फ़िल्में बनाने के बावजूद उन्होंने यह भी स्वीकार किया था कि वह हिंदी में सहज नहीं हैं। एक रचनाकार का यह आत्मस्वीकार उसकी ईमानदारी और पारदर्शिता की निशानी है। राय कहते थे कि उनकी प्राथमिकता बंगाल का उनका दर्शक है। फिर पाथेर पाँचाली से लेकर आगंतुक तक उनकी तमाम फ़िल्मों को बंगाल के बाहर विदेशों में भी सराहना किसलिए मिली?
दरअसल, सत्यजित राय के सिनेमा में सत्यम्- शिवम्- सुंदरम् का पारंपरिक भारतीय सौंदर्यबोध है और पश्चिम से अपनाई आधुनिक कलादृष्टि भी। शांतिनिकेतन से पढ़े सत्यजित राय ने अपने फ़िल्मी सफ़र की शुरुआत के बारे में स्वीकार किया था कि उन पर ‘बाइसिकिल थीफ’ जैसी फ़िल्म का गहरा असर रहा।
सिनेमा के सौ साल से ज़्यादा के इतिहास में भारत में बहुत से फ़िल्मकार हुए हैं जिनकी फ़िल्मों ने बहुत गहरी छाप छोड़ी है लेकिन सत्यजित राय जैसी वैश्विक ख्याति और सम्मान बहुत कम लोगों के हिस्से में आया है।
यह गौरव भी बहुत कम फ़िल्मकारों को मिला है कि उनकी पहली ही फ़िल्म उन्हें अंतरराष्ट्रीय स्तर पर विख्यात कर दे। जैसा कि हम अब जानते हैं कि सत्यजित राय की पहली फ़िल्म “पाथेर पाँचाली” विश्व सिनेमा में क्लासिक का दर्जा हासिल कर चुकी है और उसे दुनिया भर की सार्वकालिक महान फ़िल्मों में गिना जाता है। दुनिया भर में गंभीर और सार्थक सिनेमा से लगाव रखने वालों और सिनेमा में समाज के प्रतिबिंबों का विश्लेषण करने वालों के लिए पाथेर पाँचाली अपने आप में सिर्फ़ एक फ़िल्म न रह कर अध्ययन का विषय है। उस पर हज़ारों पन्ने लिखे भी जा चुके हैं अब तक।
दो साल के थे तो पिता का साया उठ गया
1921 में जन्मे सत्यजित राय ने 1923 में अपने पिता सुकुमार राय को खो दिया था। माँ की देखरेख में बड़े हुए थे। सत्यजित राय के पिता सुकुमार राय को बांग्ला में बाल साहित्य के लिए जाना जाता है। बच्चों से जुड़े कला संस्कार एक लिहाज़ से उन्हें घुट्टी में मिले थे। उनकी फिल्में ‘गोपी गाइन बाघा बाइन’, ‘सोनार केल्ला’ और ‘जय बाबा फेलूनाथ’ इस सिलसिले में उल्लेखनीय हैं। सत्यजित राय ने बच्चों से जुड़ी पत्रिका ‘संदेश’ का संपादन भी किया। पाथेर पाँचाली की कहानी के केंद्र में भी दो बच्चे अपू और दुर्गा हैं और बालक अपू की कहानी के माध्यम से ही उनकी विश्वविख्यात त्रयी विस्तार पाती है। अपूर संसार में फिर अपू के बड़े हो जाने, शादी होने, संतान के जन्म के समय पत्नी के अकस्मात निधन और अपू की उखड़ी हुई ख़ानाबदोश ज़िंदगी आख़िरकार एक नया मोड़ लेती है अपने बेटे काजोल से मुलाक़ात के बाद जिसे उसने पहले कभी देखा ही नहीं था। ‘तीन कन्या’ में उन्होंने पोस्टमास्टर कहानी की बच्ची का चरित्र अद्भुत संवेदना के साथ प्रस्तुत किया है।
आज के दौर में फ़िल्मों के सीक्वेल यानी शृंखला की बहुत बात होती है। राय शायद उन बिरले फ़िल्मकारों में से हैं जिन्होंने जोड़े में नहीं, बल्कि तिकड़ी में फ़िल्में बनाईं। ‘पाथेर पाँचाली’, ‘अपराजितो’ और ‘अपूर संसार’ तो उनकी सबसे प्रसिद्ध त्रयी है ही, कोलकाता त्रयी के तहत उन्होंने ‘प्रतिद्वंद्वी’, ‘सीमाबद्ध’ और ‘जन अरण्य’ फ़िल्में बनाईं। रवींद्रनाथ टैगोर की तीन कहानियों पर तीन कन्या के तहत तीन छोटी-छोटी फ़िल्में बनाईं। जासूस फेलू दा का किरदार रचा और उसको केंद्र में रखकर दो फ़िल्में - ‘सोनार केल्ला’ और ‘जय बाबा फेलूनाथ’ बनाईं।
रवींद्रनाथ टैगोर के शांतिनिकेतन में सत्यजित राय को ख़ुद गुरुदेव के अलावा नंदलाल बोस और विनोद बिहारी मुकर्जी का मार्गदर्शन मिला जिसने उनके सौंदर्य बोध और अभिव्यक्तियों को निखाराI यहाँ सीखी चित्रकला की बारीकियाँ उनके बाद के जीवन में बहुत काम आईं।
विज्ञापन एजेंसी के लिए काम करने के दौरान फ़िल्मों में बढ़ती उनकी दिलचस्पी उन्हें विश्व सिनेमा के नज़दीक़ ले गई। सिनेमा के प्रति दीवानगी बढ़ी तो उन्होंने अपने दोस्तों के साथ मिलकर एक फ़िल्म सोसायटी बनाई। उन्होंने 1948 में अपने मित्र से बातों-बातों में कहा- ‘मैं एक दिन एक महान फ़िल्म बनाऊँगा।’ इस संकल्प को सच करने का रास्ता तब खुला जब किताबों के कवर डिज़ाइन करते हुए विभूति भूषण बनर्जी का उपन्यास पाथेर पाँचाली उनके हाथ लगा। उसके बाद जो हुआ, वह सारी दुनिया ने विस्मय के साथ देखा। राय ने पाथेर पाँचाली उपन्यास को 1955 में अपनी पहली फ़िल्म में ढाल कर इतिहास रच दिया।
पाथेर पाँचाली बनाने में संसाधनों की ज़बरदस्त कमी आड़े आई थी। सत्यजित राय को अपनी पत्नी के गहने तक गिरवी रखने पड़ गये थे। बाद में पश्चिम बंगाल के तत्कालीन मुख्यमंत्री बिधान चंद्र राय की कोशिशों के बाद फ़िल्म के लिए पैसा मिला। लेकिन एक बार फ़िल्म बन जाने के बाद जब दुनिया ने इसे देखा तो उसकी सादगी का जादू लोगों के सिर चढ़ कर बोला।
एक छोटे से गाँव में सुविधाओं के अभावों और ग़रीबी के बीच एक परिवार के छोटे-छोटे सुखों और दुखों की यह कहानी इतनी सार्वभौमिक और सार्वकालिक है कि इसने बांग्लाभाषी होते हुए भी विश्व भर के दर्शकों को प्रभावित किया और सिनेमा की दुनिया में सत्यजित राय की सीधी-सादी क़िस्सागोई ने तहलका मचा दिया।
इस इकलौती पाथेर पाँचाली फ़िल्म की बदौलत सत्यजित राय पूरी दुनिया के सिनेमा में अमर हो चुके हैं।
आज भी भारत के कई गाँवों समेत दुनिया के तमाम हिस्सों में बहुत ग़रीबी है, अभावग्रस्त परिवारों में उपेक्षित बूढ़े हैं, आपस की किचकिच है, आज भी बहुत से बच्चों ने रेल नहीं देखी होगी या पहली बार देखकर दुर्गा और अपू की तरह ही ख़ुश होते होंगे, आज भी हरिहर जैसे लोग अपने परिवार का पेट पालने के लिए गाँव छोड़ कर मारे-मारे फिरते हैं और आज भी गाँवों से शहरों की तरफ़ विस्थापन जारी है बल्कि पहले से बहुत ज़्यादा। इन तमाम वजहों से पाथेर पाँचाली किसी पुराने कालखंड में किसी ख़ास इलाक़े के बारे में लिखे गये एक उपन्यास पर बनी कोई पुरानी फ़िल्म नहीं रह जाती। वह अकेलेपन, अभावों, ग़रीबी से मनुष्य के सतत संघर्ष के बीच बची रह गई मासूमियत, सादगी को दर्ज करती एक सार्वकालिक कहानी बन जाती है। पीढ़ी दर पीढ़ी सिनेमा प्रेमियों के बीच पाथेर पाँचाली की लोकप्रियता का यही रहस्य है।
सत्यजित राय की ख़ासियत यह थी कि वह अपने समकालीन सिनेमाकारों की तरह गूढ़ जटिल बिम्ब रचने, तकनीक के तामझाम में नहीं उलझे। फ़िल्म निर्माण के संदर्भ में सत्यजित राय मानते थे कि सबसे अच्छी तकनीक वह है जिसका इस्तेमाल दिखाई न दे। यह कमाल उन्होंने अपनी पहली ही फ़िल्म में सीधे सादे ढंग से, कम संवादों के ज़रिये, कलाकारों से स्वाभाविक अभिनय करवा कर दिखा दिया था। हरिहर, सर्वजया, दुर्गा, अपू और परिवार की बूढ़ी महिला की रोज़मर्रा की ज़िंदगी की कहानी बहुत सादगी और बेहद असरदार तरीक़े से सामने आती है। अमरूद देखकर चमक उठी बूढ़ी दादी की आँखों को देखती बच्ची दुर्गा की आँखों का बालसुलभ कौतुहल और विस्मय बिना किसी संवाद के अद्भुत प्रभावशाली दृश्य रचता है। उसी तरह धुआँ छोड़ती रेलगाड़ी को जाते हुए खेत से देखते दुर्गा और अपू की ख़ुशी, दुर्गा की मृत्यु के बारे में जानकर हरिहर का विलाप स्मृति में हमेशा के लिए दर्ज हो जानेवाली छवियाँ हैं।
सत्यजित राय के समूचे कृतित्व को एक लेख में बांध पाना न सिर्फ़ बेहद मुश्किल है बल्कि ऐसी कोशिश उनके साथ एक तरह की नाइंसाफी भी होगी। सत्यजित राय जन्म शताब्दी वर्ष में उनके बारे में सिनेमा, साहित्य और कला प्रेमियों को अलग-अलग मंचों पर किस्तों में विस्तार से चर्चा करनी चाहिए। यह न सिर्फ़ सत्यजित राय को माकूल श्रद्धांजलि होगी बल्कि अपने आपको समृद्ध करने में भी मदद करेगी।
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