क्रिकेट के दीवानों के देश में जब आईपीएल के मैच चल रहे हों, तब सिनेमाघर में परदे पर फुटबॉल का मैच कराना हिम्मत का काम है। 'मैदान' फिल्म भारतीय फुटबॉल के स्वर्ण काल की कहानी है, लेकिन मैदान बहुत लम्बा हो गया। फुटबॉल के अंतरराष्ट्रीय मैच डेढ़ घंटे के होते हैं लेकिन यह फिल्म उससे दोगुने से भी ज्यादा समय तक चलती है। नतीजा उबासी और जम्हाई! फिल्म नहीं थकती, दर्शक थक जाता है।
हिप हिप हुर्रे, झुंड, साहेब, द गोल, धन धना धन गोल आदि भी फुटबॉल पर केंद्रित हिंदी फ़िल्में थीं, लेकिन मैदान फुटबॉल के साथ ही एक कोच सैयद अब्दुल रहीम के जीवन की कहानी भी है, वह भी ढीली पटकथा के साथ। सैयद अब्दुल रहीम ने भारतीय फुटबॉल टीम को 4-2-4 फ़ॉर्मेशन में खेलने को तैयार किया था। इसका अर्थ आक्रामक खेल और फुटबॉल पर टीम के खिलाड़ियों का नियंत्रण बनाये रखते हुए प्रदर्शन करना होता है। तीन घंटे से भी लम्बी यह फ़िल्म देश प्रेम की बात करती है और कई बार दर्शकों को ताली बजाने पर बाध्य कर देती है। फिल्म का अनअपेक्षित अंत दर्शकों की आँखों को भिगो देता है।
आज़ादी के बाद 1952 से 1962 तक भारत के फुटबॉल खिलाड़ी एशियन गेम्स और ओलम्पिक में बिना जूतों के कैसे खेलते और घायल होते रहे, फुटबॉल फेडरेशन की राजनीति कैसी होती थी और गिरोहबाजी में खेल पत्रकार कैसा तांडव करते थे, इसकी झलकियाँ इस फ़िल्म में है। छह-सात दशक पुराना कोलकाता दिखाना और पुराना माहौल चित्रित करना बेशक कठिन काम था, इसीलिए फ़िल्म के बनने और रिलीज होने में क़रीब पांच साल लग गए।
यह अजय देवगन की बेहतरीन फिल्म है। वे जुबान के बजाय आँखों से ज्यादा बोलते हैं। मनोज मुंतशिर शुक्ला के गाने भर्ती के हैं। ए आर रहमान के संगीत की लय फुटबॉल की गति से मैच नहीं पाती। संगीत वह जोश नहीं भर पाया, जो खेल में होना चाहिए। प्रियामणि ने देवगन की पत्नी की भूमिका स्वाभाविक अंदाज में की है।
खेल पत्रकार रॉय चौधरी की भूमिका में गजराज राव और (तत्कालीन 'मुंबई प्रदेश' के मुख्यमंत्री के रोल में) मोरारजी देसाई बने ज़हीर मिर्ज़ा प्रभावी हैं। फुटबॉल टीम के खिलाड़ी बने सभी कलाकार बेहद बहुत स्वाभाविक और सधे हुए लगे। किसी ने फाउल नहीं होने दिया। उन्होंने बहुत मेहनत की। निर्देशक अमित रविन्दरनाथ शर्मा और फिल्म की छायांकन टीम ने एशियन गेम्स में भारतीय फुटबॉल टीम के मैच रोमांच को सफलतापूर्वक उतार दिया।
अपनी राय बतायें