क्रिकेट के दीवानों के देश में जब आईपीएल के मैच चल रहे हों, तब सिनेमाघर में परदे पर फुटबॉल का मैच कराना हिम्मत का काम है। 'मैदान' फिल्म भारतीय फुटबॉल के स्वर्ण काल की कहानी है, लेकिन मैदान बहुत लम्बा हो गया। फुटबॉल के अंतरराष्ट्रीय मैच डेढ़ घंटे के होते हैं लेकिन यह फिल्म उससे दोगुने से भी ज्यादा समय तक चलती है। नतीजा उबासी और जम्हाई! फिल्म नहीं थकती, दर्शक थक जाता है।
फिल्म समीक्षा: आईपीएल के दौर में फुटबॉल का 'मैदान'
- सिनेमा
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- 12 Apr, 2024

आज़ादी के बाद 1952 से 1962 तक भारत के फुटबॉल खिलाड़ी एशियन गेम्स और ओलम्पिक में बिना जूतों के कैसे खेलते और घायल होते रहे, फुटबॉल फेडरेशन की राजनीति कैसी होती थी, इसको 'मैदान' फिल्म में समझा जा सकता है।
हिप हिप हुर्रे, झुंड, साहेब, द गोल, धन धना धन गोल आदि भी फुटबॉल पर केंद्रित हिंदी फ़िल्में थीं, लेकिन मैदान फुटबॉल के साथ ही एक कोच सैयद अब्दुल रहीम के जीवन की कहानी भी है, वह भी ढीली पटकथा के साथ। सैयद अब्दुल रहीम ने भारतीय फुटबॉल टीम को 4-2-4 फ़ॉर्मेशन में खेलने को तैयार किया था। इसका अर्थ आक्रामक खेल और फुटबॉल पर टीम के खिलाड़ियों का नियंत्रण बनाये रखते हुए प्रदर्शन करना होता है। तीन घंटे से भी लम्बी यह फ़िल्म देश प्रेम की बात करती है और कई बार दर्शकों को ताली बजाने पर बाध्य कर देती है। फिल्म का अनअपेक्षित अंत दर्शकों की आँखों को भिगो देता है।