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लाल सिंह चढ्ढा आख़िर क्यों नहीं देखें! कोई वजह?

लाल सिंह चड्ढा अच्छे, मनोरंजक और सार्थक सिनेमा को पसंद करने वाले हर व्यक्ति के देखने लायक एक प्यारी सी फिल्म है। संक्षेप में यह एक बच्चे जैसी मासूमियत और बेहद पवित्र हृदय वाले इनसान की कहानी है जिसका पूरा जीवन निश्छल प्रेम की ताक़त का संदेश है। फ़िल्म बुनियादी तौर पर एक साफ़-सुथरी प्रेमकथा है जिसमें युद्ध और सांप्रदायिकता के विरुद्ध संदेश भी है।

सांप्रदायिक हिंसा की हर घटना पर लाल सिंह की मां कहती है- बेटा बाहर मलेरिया फैला हुआ है। सांप्रदायिकता को भी प्रतीकात्मक तौर पर एक संक्रामक बीमारी बताया गया है। लाल सिंह चड्ढा एक संवाद बोलता है - मजहब से कदी कदी मलेरिया फैलता है।

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आमिर ख़ान ने बहुत शानदार काम किया है। किरदार पचास पार के व्यक्ति का है, युवावस्था के दृश्यों में उम्र झलकती है। आज़ादी के अमृत महोत्सव में यह देश को फिल्म इंडस्ट्री की एक बहुत सुंदर भेंट है। फॉरेस्ट गंप का रूपांतरण है लेकिन अभिनेता अतुल कुलकर्णी ने पटकथा लेखक के तौर पर भारतीय राजनीतिक सामाजिक संदर्भों को बहुत सलीके से पटकथा में बुना है।

कहानी सत्तर के दशक में पैदा हुए लाल सिंह चड्ढा की रेलयात्रा से शुरू होती है। सफर के दौरान लाल सिंह बार-बार अपने सहयात्रियों को अपने जीवन के फ्लैशबैक में ले जाता रहता है। इंदिरा गांधी की इमरजेंसी ख़त्म होने से उसके बचपन की पहली झलक मिलती है और कहानी आगे बढ़ती रहती है। जब अंतिम हिस्से तक पहुँचते हैं तो अबकी बार मोदी सरकार का पोस्टर दिखता है और स्वच्छ भारत अभियान का भी। बीच में भारतीय क्रिकेट टीम की 1983 की ऐतिहासिक विश्व कप विजय, ऑपरेशन ब्लू स्टार, इंदिरा गांधी की हत्या, सिख विरोधी दंगे, मंडल-मंदिर की राजनीति, आडवाणी की रथयात्रा, बाबरी मस्जिद गिराये जाने के बाद मुंबई के दंगे, करगिल की लड़ाई, मुंबई पर हमला, अजमल कसाब और अन्ना हज़ारे का आंदोलन आता है। इस सबके बीच गुजरात के दंगों का ज़िक्र न होना भी दिलचस्प है।

फिल्म हंसाती है, भावुक करती है, सोचने पर मजबूर करती है। करीना कपूर, मोना सिंह, नाग चैतन्य का काम बढ़िया है। मोना सिंह फॉरेस्ट गंप की सैली फील्ड की याद दिलाती हैं। फिल्म में करगिल की लड़ाई के बहाने भारत-पाकिस्तान का ज़िक्र भी आ गया है। 

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पाकिस्तानी फौजी/आतंकवादी मोहम्मद के किरदार में मानव विज को उनके करियर का बहुत अहम काम मिला है। सम्राट पृथ्वीराज में मानव मुहम्मद ग़ौरी के किरदार में दिखे थे। उनकी कथा के बहाने यह संदेश दिया गया है कि प्रेम से आप अपने दुश्मन को भी जीत सकते हैं और मारने वाले से बचाने वाला बड़ा होता है। 

 

फिल्म में वयोवृद्ध अभिनेत्री कामिनी कौशल की उपस्थिति एक सुखद आश्चर्य है। आमिर ने दिल्ली में लाल सिंह चड्ढा के बचपन से जुड़े एक दृश्य में शाहरुख़ खान की बांहें फैलाने की लोकप्रिय अदा को लाल सिंह से सीखी हुई बताकर शाहरुख़ पर भी चुटकी ली है। शायद आमिर इशारों-इशारों में यह कहना चाह रहे हों कि एक्टिंग के मामले में वह शाहरुख़ के उस्ताद हैं। अबू सलेम, मोनिका बेदी, बॉलीवुड में अंडरवर्ल्ड के दख़ल की तरफ़ भी फिल्म इशारा करती है। 

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अद्वैत चंदन का निर्देशन कसा हुआ है। अमिताभ भट्टाचार्य के गीत और प्रीतम का संगीत भी बढ़िया है। बहुत समय बाद सोनू निगम को सुनना अच्छा लगा।

मेरी राय में, अगर समय है और अच्छी सिनेमा का शौक है तो लाल सिंह चड्ढा ज़रूर देखनी चाहिए। निराश नहीं होंगे।

(साभार - अमिताभ की फ़ेसबुक वाल से)

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अमिताभ
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