सोशल मीडिया के मार्फत वाम मार्गी नेताओं ने कन्हैया कुमार का प्रचार-प्रसार करना 5 महीने पहले तब ही शुरू कर दिया था जब सीपीआई की राज्य यूनिट ने पिछले साल 25 अक्टूबर को पटना के एतिहासिक गाँधी मैदान में दमदार रैली का आयोजन किया था।
'फ़ाइट तो यही देगा'
चुनावी सभाओं में चुम्बकीय शक्ति से लैस कन्हैया कुमार की स्पीच को सुनने के लिए हर जाति और वर्ग के बेगूसरायी नर-नारी आ रहे हैं। ‘कमाल का भाषण देलथई भाई। मनवे मोह लेता है। फ़ाइट तो यही देगा। भूमिहार समाज का असली कृष्ण है। मेरी पत्नी तो इसकी बोली पर लट्टू है। कहती है कि चंदा भी देंगे’। इतनी तारीफ़ करने के बाद भी ठेकेदार धनंजय सिंह का पेट नहीं भरता है। वह गंभीरता से आगे कहते हैं कि ‘सब पर बीस है। पत्रकारों को भी अपने जवाब से पटक देता है। यह कदापि देशद्रोही नहीं हो सकता है। अगर होता तो मोदी सरकार इसे जेल में डाल देती।’ बेगूसराय के बसन्त सिंह भी इसके फ़ैन हैं। कहते हैं कि ‘बड़े ही डिप्लोमेटिक तरीके़ से प्रचार कर रहा है। सबकुछ वेल आर्गनाईज्ड भाव से चल रहा है। लेकिन मुझे डाउट है कि भगवा माइंड को यह नौजवान शिकस्त दे पाएगा। जनता के बीच अभी से ही दुष्प्रचार शुरू हो गया है कि कन्हैया कुमार को पाकिस्तान से पैसा आ रहा है।’जातीय समीकरण कन्हैया के पक्ष में
जाति व जमात का पोथी-पतरा रखने वाले बताते हैं कि बेगूसराय में सबसे अधिक भूमिहार समाज के मतदाता हैं। इनकी जनसंख्या लगभग पौने पाँच लाख है। उसके बाद मुसलिम और यादव का नम्बर है। दोनों के मिलाने के बाद भी भूमिहार भारी होंगे। आज की तिथि में सैकड़ों भूमिहार नौजवान कन्हैया के प्रशंसक होकर उनके पक्ष में झाल बजा रहे हैं। जब बीजेपी के उम्मीदवार गिरिराज सिंह 6 अप्रैल को नामांकन के वक़्त अपना ‘राष्ट्रवादी’ शंख फूँकेंगे तब इनका रूझान क्या होगा, यह देखना दिलचस्प होगा।संयोग की बात है कि बिहार में सीपीआई की सियासी एंट्री 1956 में बेगूसराय से ही हुई थी। तब इस पार्टी ने विधानसभा का उपचुनाव जीता था। इसे पुनर्जीवित करने का प्रयास भी इसी धरती से किया जा रहा है।
'बिहार का लेनिनग्राड'
सीपीआई की जीत पर पटना से प्रकाशित एक अंग्रेज़ी अख़बार ने लिखा था, ‘रेड स्टार स्पार्कल्ड इन बिहार’। इस जीत के बाद सीपीआई राज्य में फैलती चली गई। 1969 के विधानसभा चुनाव में पार्टी ने 35 सीटें जीतीं और सत्तारूढ़ कांग्रेस पार्टी के ख़िलाफ़ प्रमुख विपक्षी पार्टी बनकर उभरी। गाँव-गाँव लाल झंडा पहुँच गया। बेगूसराय को 'बिहार का लेनिनग्राड' नाम से पुकारा जाने लगा।वाम दलों के नेता भी स्वीकारते हैं कि आरक्षण का विरोध करके दोनों कम्युनिस्ट पार्टियों ने देश भर में ओबीसी का समर्थन गवाँ दिया था। पर बिहार में इनके पतन का बीज उसी दिन बो दिया गया था जिस दिन इनके नेतृत्व ने मुख्यमंत्री लालू यादव के साथ गलबहियाँ शुरू कर दी थीं।
क्यों ढहा वाम का किला?
ऊँची जातियों का सबसे दमदार तबक़ा भूमिहार, बिहार में दोनों वाम दलों के लिए रीढ़ की हड्डी का काम करता था। लालू यादव के साथ गठबंधन ने इस ज़मात को नाराज़ कर दिया। दूसरी तरफ़ मंडल अवतारी लालू ने सत्ता में बने रहने के लिए बीजेपी का डर दिखाकर दोनों वाम दलों का दोहन किया। कई बार वामपथी विधायकों को तोड़ा। नेता विहीन तथा कैडरों के बीच निराशा होने के कारण सीपीआई और सीपीएम ने अपने आप को पूरी तरह से समाप्त कर लिया। 2015 के विधानसभा चुनाव में सीपीआई ने 98 तथा सीपीएम ने 38 उम्मीदवार मैदान में उतारे थे लेकिन एक को भी जीत नहीं मिली।
छह दशक की चुनावी राजनीति में पहली बार ऐसा हुआ कि सीपीआई पूरी तरह से साफ़ हो गई। सीपीएम की सियासी पारी 2010 में हुए विधानसभा चुनाव में ही समाप्त हो गई। पिछले विधानसभा चुनाव में सीपीआई को मात्र 1.4 प्रतिशत वोट मिले।
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