पूर्णिमा दास
बीजेपी - जमशेदपुर पूर्व
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पूर्णिमा दास
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गीता कोड़ा
बीजेपी - जगन्नाथपुर
हार
टाइम्स ऑफ़ इंडिया, पटना में एक दिसंबर की ख़बर है कि बिहार में 24 घंटे के अंदर 11 हत्याएं और एक गैंग रेप की शिकायत दर्ज की गयी है। बीते रविवार को पटना के व्यस्त रहने वाले चिरैंयाटांड़ पुल पर एक दम्पति से लूटपाट में शिक्षिका की गोली मारकर हत्या कर दी गयी।
इस हत्या से एक दिन पहले मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने विधि-व्यवस्था की समीक्षा बैठक कर पुलिस अफसरों से हर हाल में अपराध पर काबू रखने की बात कही थी। उन्होंने अपराधियों में कानून का भय और रात्रि गश्ती बढ़ाने पर जोर दिया। इसी दिन गोपालगंज से यह खबर भी आयी कि जेडीयू विधायक के दो करीबी लोगों को गोलियों से भून डाला गया।
ये उदाहरण यह बताने के लिए हैं कि बिहार में अपराध के बारे में 2005 से पहले और इसके बाद के काल को कैसे बताया-समझाया जाता है। अगर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को लगता है कि अपराधियों में कानून का भय और रात्रि गश्ती बढ़ाने की ज़रूरत है तो यह सोलहवें साल में पहुंचे उनके शासन काल पर एक गंभीर सवाल है क्योंकि अपराध पर नियंत्रण को एक तरह से उनकी यूएसपी की तरह प्रचारित किया जाता है।
बैठक में नीतीश ने थाने में लैंडलाइन फोन और स्टेशनरी आदि के लिए फंड की व्यवस्था करने की बात भी कही। इतने दिनों के ‘सुशासन’ में भी बिहार के थानों की इस बदहाली के लिए कोई चर्चा नहीं हुई।
एक जमाने में नीतीश कुमार अपने पुलिस अधिकारियों से यह कहते हुए अपराध नियंत्रण पर जोर देते थे कि उन्हें वोट ही इसी के लिए मिला है। पुलिस अधिकारी और व्यापारी वर्ग के लोग यह कहते हैं कि नीतीश कुमार के शासन के शुरुआती 5-6 सालों में अपराध नियंत्रण का पता चलता था। लेकिन इसके बाद अपराध की घटनाएं बढ़ने लगीं।
नीतीश कुमार के शासन में अपराध के बारे में यह तर्क दिया जाता है कि यह संगठित नहीं है। पूर्व संपादक और वरिष्ठ पत्रकार सुकान्त नागार्जुन कहते हैं कि यह सब उच्च वर्ग और उच्च वर्ण संपोषित मीडिया के गढ़े हुए शब्द हैं या उन राजनीतिज्ञों को खुश करने की कोशिश में प्रचारित शब्द हैं जो सत्ता में हैं और अखबारों की आर्थिक हालत के लिए महत्वपूर्ण हैं। उनका मानना है कि लालू राज के बहुत से सरगना ऐसे थे जो वर्तमान शासन से जुड़े दल में थे।
बिहार विधानसभा चुनाव के दौरान लालू-राबड़ी शासन काल के बार में यह बात खूब प्रचारित की गयी थी कि उस समय शाम के समय के बाद कोई घर से निकलता नहीं था। इसके बारे में वरिष्ठ पत्रकार सुरूर अहमद कहते हैं कि यह सब एक माहौल बनाने का मामला है। वे पूछते हैं कि रणवीर सेना के ब्रह्मेश्वर मुखिया की हत्या किस तरह का अपराध था? उनके अनुसार उसके बाद मचाये गये उत्पात से जो भय का माहौल बना था उसे मीडिया ने उजागर करना तो दूर, उसे पूरी तरह दबा दिया। इसी तरह मुजफ्फरपुर में पूर्व मेयर समीर कुमार को गोलियों से छलनी करने का मामला संगठित अपराध था या असंगठित? ऐसे और कई उदाहरण दिये जा सकते हैं।
सुरूर अहमद कहते हैं कि लालू-राबड़ी राज में पटना में क्रिकेट वर्ल्ड कप हुआ। उस जमाने में और कई बड़ी गतिविधियां हुईं। आरोप लगता है कि लोग शाम के बाद घरों से बाहर नहीं निकलते थे तो उस जमाने में जेनरेटर से रौशन बाजार किनके लिए खुले रहते थे। लोग शाम के शो देखकर सिनेमाघरों से निकलते थे।
अहमद कहते हैं कि इसका अर्थ यह नहीं कि अपराध की बात को झुठलाया जाए लेकिन हो यह रहा है कि एक राज के अपराध को बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया जाता है और दूसरे के शासन में अपराध को कम दिखाने के लिए तर्क ढूंढे जाते हैं।
आम आदमी को इससे क्या मतलब कि अपराधी संगठित हैं या असंगठित, उनके साथ जो घटनाएं हो रही हैं उसे रोकने में विफलता को देखना चाहिए। सुकान्त कहते हैं कि जिस दिन नीतीश कुमार ने भूमि सुधार की सिफारिशों से हाथ खींच लिया उनके काम करने के संकल्प पर असर पड़ना शुरू हो गया। शुरू में नीतीश कुमार ने जरूर अपराध पर काबू पाने पर जोर दिया लेकिन बाद में वे न सिर्फ शिथिल पड़ गये बल्कि कई चीजें उनके सामने होती रहीं। अब आर्थिक अपराध बढ़े हैं और ऐसे लोगों को कहीं न कहीं से संरक्षण प्राप्त रहता है। वे पूछते हैं कि चुनाव में इतने बड़े पैमाने पर नकदी का खेल कैसे होता है।
बिहार के पूर्व डीजीपी अभयानंद कहते हैं, ‘अपराध आंकड़ों की नहीं बल्कि एहसास की बात होती है। अपराध बढ़ा है या घटा है, इसे जानने के लिए आंकड़ों के साथ-साथ यह भी देखा जाना चाहिए कि समाज का क्या एहसास है।’
अभयानंद कहते हैं कि मोटे तौर पर 2006 से 2010 और इसके एक-दो साल बाद तक अपराध पर नियंत्रण का जो तरीका अपनाया गया था, वह इसके बाद खिसकते गया। वे कहते हैं किसी स्तर पर एक चेहरा होना चाहिए जो यह संदेश देने में कामयाब हो कि चाहे भगवान भी चाह लें तो सबूत के साथ पकड़ा गया अपराधी छूट नहीं पाएगा। शायद इसकी कमी बिहार में महसूस की जा रही है। अभयानंद कहते हैं कि अपराधियों को छुड़ाने के लिए पैरवी तो अब भी होती है।
उन्होंने कहा कि 2006 से अगले 5-7 साल तक अपराधियों के स्पीडी ट्रायल पर बहुत जोर था। इससे अपराधियों में एक भय का माहौल बना था। इसके अलावा आर्म्स एक्ट के तहत अपराधियों को पकड़कर सजा दिलाने का काम जल्दी होता था। उन्हें लगता है कि अब माॅनिटरिंग का काम ढीला पड़ गया है। इन कारणों से अपराध पर काबू पाने में जो सफलता पहले मिली थी, वह अब नहीं है।
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