सुप्रीम कोर्ट ने अयोध्या विवाद पर जो फ़ैसला सुनाया उसे मानना और सर झुकाकर मानना तो भारत के हर नागरिक का कर्तव्य है। उसमें किंतु-परंतु का कोई सवाल ही नहीं उठता। मगर आज नहीं तो कल इस फ़ैसले की मीमांसा ज़रूर होगी। सराहना भी होगी तो आलोचना भी हो सकती है।
मेरी राय में सुप्रीम कोर्ट ने बहुत बड़ा काम किया है। यह एक बहुत अच्छा फ़ैसला है। आज जिन पाँच न्यायाधीशों ने यह फ़ैसला सुनाया उन्होंने अपने कर्तव्य का धर्मपूर्वक पालन किया है। आज की परिस्थिति में कोई भी अदालत, कोई भी जज या कोई भी पंचायत इससे बेहतर फ़ैसला नहीं दे सकती थी। इलाहाबाद हाईकोर्ट के फ़ैसले में जो विसंगतियाँ थीं उन्हें बख़ूबी दूर किया गया है। विवादित ज़मीन को तीन हिस्सों में बाँटने जैसी बेतुकी सिफ़ारिश को नकारा गया और एक ऐसा हल निकाला गया जिसमें सभी पक्षों को संतुष्ट होने की एक न एक वजह मिल जाए।
कहा जा सकता है कि इस फ़ैसले में बहुत कुछ ग़लत है। टाइटल सूट यानी ज़मीन के मालिकाना हक़ का फ़ैसला होना था, आस्था का नहीं। यह बात सुप्रीम कोर्ट के पिछले मुख्य न्यायाधीश कह गए थे। फिर अगर बाबरी मसजिद (विवादित ढाँचे) को गिराना अपराध था तो फिर यह ज़मीन उन्हीं को क्यों नहीं दी गई जिनके पास मसजिद थी? अगर मसजिद वाले पक्ष का कोई दावा ही नहीं बनता तो उन्हें ज़मीन किस ख़ुशी में दी जा रही है। अदालत को अगर टाइटल सूट का ही फ़ैसला करना था तो फिर उसने आस्था की चर्चा क्यों की? और एक सवाल यह भी है कि अदालत ने मालिकाना हक़ का फैसला करके बात ख़त्म क्यों नहीं कर दी? क्यों उसने केंद्र सरकार को निर्देश दिया कि अपनी देखरेख में ट्रस्ट बनवाकर मंदिर निर्माण की रूपरेखा बनवाए?
ये सारे सवाल जायज़ हैं। लेकिन अगर कोर्ट इस बार भी इन सवालों के चक्कर में पड़ता तो शायद फ़ैसला नहीं हो पाता। सुप्रीम कोर्ट के मौजूदा मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई को इस बात के लिए बधाई दी जानी चाहिए कि उन्होंने दसियों साल से रुके हुए इस फ़ैसले को अंजाम तक पहुँचाने की हिम्मत दिखाई। उनके साथ इस बेंच में मौजूद बाक़ी न्यायाधीश भी इसी वजह से बधाई के पात्र हैं कि उन्होंने वह फ़ैसला कर दिखाया जिसके बारे में सबसे ज़्यादा विवाद था और जिसके बाद सबसे ज़्यादा आलोचना और निंदा की आशंका थी।
यहाँ प्रेमचंद की कहानी पंच परमेश्वर का वह डायलॉग याद आता है - तो क्या बिगाड़ के डर से ईमान की बात न कहोगे?
सच यही है कि यह मुक़दमा इतने सालों से इसलिए चल रहा था। यह फ़ैसला इतने वर्षों से इसलिए रुका हुआ था क्योंकि बिगाड़ के डर से कोई भी ईमान की बात कहने को राज़ी नहीं था। ख़ासकर वे लोग जो सरकार और अदालतों में ज़िम्मेदार पदों पर बैठे होते थे।
यह बात आम हो गई थी कि हर कोई इस फ़ाइल को ठंडे बस्ते में रखना चाहता था और पूरे समय इस कोशिश में रहता था कि रिटायर होने तक मामला किसी न किसी तरह ठंडा ही पड़ा रहे। और अब तक सफलतापूर्वक ऐसा होता भी रहा।
अब ईमान क्या है, इंसाफ क्या है, हुआ या नहीं हुआ? इस पर विवाद हो सकता है और लंबे समय तक चल सकता है। लेकिन एक बात साफ़ है। सुप्रीम कोर्ट की इस बेंच ने तलवार की धार पर चलने का धर्म निभाकर दिखाया है। सच कहें तो उसने अपना ही धर्म नहीं निभाया उसने इस फ़ैसले में इस लोकतंत्र के बाक़ी संस्थानों के नाकारापन का हिसाब भी कर दिया है।
फ़ैसले को कैसे देखें?
न्याय की दृष्टि से देखेंगे तो सुप्रीम कोर्ट के इस फ़ैसले में बहुत-सी कमियाँ निकाली जा सकती हैं। लोग निकाल भी रहे हैं। लेकिन वक़्त की नज़ाकत की नज़र से देखें, देश में अमन-चैन की नज़र से देखें और इस देश समाज की बेहतरी की नज़र से देखें तो सुप्रीम कोर्ट के इन जजों ने अपनी भूमिका से आगे बढ़कर वह ज़िम्मेदारी भी अपने कंधों पर ले ली है जिसे पूरा करने में इस देश का राजनीतिक नेतृत्व लगातार नाकाम हुआ है।
यह एक ऐसा फ़ैसला है जो इस विवाद पर मिट्टी डालने और आगे एक बेहतर समाज बनाने की दिशा में चलने का रास्ता खोल सकता है। लेकिन सिर्फ़ रास्ता खोल सकता है। उसपर चलना या न चलना हम सब को ही तय करना होगा।
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