ऑल इंडिया यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट (एआईयूडीएफ) के नेता बदरुद्दीन अजमल असम विधानसभा चुनाव के केंद्र बिंदु बन गए हैं। उन्होंने कांग्रेस के साथ गठबंधन कर सब कुछ दांव पर लगा दिया है। दूसरी तरफ इस गठबंधन से आशंकित बीजेपी खुलकर सांप्रदायिक कार्ड खेल रही है।
"बदरुद्दीन कौन है?" 2006 के विधानसभा चुनाव से ठीक पहले असम के पूर्व मुख्यमंत्री और दिग्गज कांग्रेसी तरुण गोगोई ने यह बात पूछी थी। जब गोगोई की यह उपेक्षापूर्ण टिप्पणी परफ्यूम बैरन कहे जाने वाले मौलाना बदरुद्दीन अजमल के कानों तक पहुंची, तो उन्होंने कोई प्रतिक्रिया जाहिर नहीं की।
इसके बजाय उन्होंने चुनाव परिणामों का इंतजार किया। अजमल ने कांग्रेस विरोधी रुख के साथ चुनाव लड़ा था और इसके परिणाम सामने आए। 2005 में उन्होंने जिस एआईयूडीएफ की स्थापना की, उसने सत्तारूढ़ कांग्रेस के खिलाफ अपनी पहली चुनावी लड़ाई में 126 विधानसभा सीटों में से 10 पर जीत हासिल की थी।
2011 में किया और बेहतर प्रदर्शन
अजमल ने अपनी अहमियत को साबित कर दिया था। अब गोगोई परफ्यूम बैरन के बारे में थोड़ा और जान गए थे। अगले कुछ वर्षों के दौरान अजमल की पार्टी ने कई उतार-चढ़ाव के साथ चुनाव परिदृश्य में अपने लिए जगह बनाई। 2011 के विधानसभा चुनाव में एआईयूडीएफ आगे बढ़ी और 18 सीटें जीतकर सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी के रूप में उभरी। बीजेपी ने तब केवल पांच सीटें जीती थीं।
2016 में जीती बीजेपी
2014 के आम चुनाव में अजमल को अधिक सफलता मिली। अजमल, उनके भाई सिराजुद्दीन और राधेश्याम विश्वास ने 14 लोकसभा सीटों में से तीन पर जीत हासिल की और इसके बाद उनका अच्छा समय समाप्त हो गया। बीजेपी आक्रामक तरीके से राज्य में बढ़ती गई और उसने "अवैध आप्रवासियों" को लेकर बयानबाजी के साथ सांप्रदायिक ध्रुवीकरण को बढ़ावा दिया। 2016 के विधानसभा चुनाव में राज्य में बीजेपी की जीत के बाद कांग्रेस और एआईयूडीएफ स्तब्ध रह गए थे।
2016 में अजमल की पार्टी 13 सीटों पर जीत पाई। 2019 के लोकसभा चुनाव में और भी बुरी खबरें आईं, क्योंकि बांग्लादेश के साथ सीमा साझा करने वाले मुसलिम बहुल निर्वाचन क्षेत्र धुबड़ी से केवल अजमल लोकसभा के लिए चुने गए।
तब से 65 वर्षीय अजमल को बीजेपी का मुकाबला करने के लिए अपनी चुनावी रणनीति को फिर से बनाना पड़ा है। बीजेपी, अजमल और उनकी पार्टी पर ऐसे अवैध मुसलिम आप्रवासियों की रक्षा करने का आरोप लगाने के अलावा "अवैध आप्रवासियों" के खतरे को चुनावी मुद्दा बनाती रही है।
समझौते की ओर बढ़े अजमल
2019 के लोकसभा चुनाव में असफलता के साथ एआईयूडीएफ को महसूस हुआ कि उसका अस्तित्व संकट में है। बीजेपी के जातीय समुदाय बनाम आप्रवासी मुसलमान के आख्यान का मुकाबला करने के लिए एक समझौते की आवश्यकता थी और यही अजमल ने किया। उन्होंने अपने कांग्रेस विरोधी रुख को नरम किया। तब तक, अजमल यही कहते रहे कि उनकी पार्टी कांग्रेस और बीजेपी दोनों से समान दूरी बनाए रखेगी।
यह महसूस करते हुए कि 2021 के चुनाव में अकेले लड़ने से पार्टी के अस्तित्व और उनके राजनीतिक रसूख को चोट पहुंच सकती है, अजमल ने नवंबर में तरुण गोगोई के निधन से एक हफ्ते पहले "महागठबंधन" के लिए गोगोई की तरफ से दिये गए प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया।
कई लोग कहते हैं कि अगले विधानसभा चुनाव में अधिक सीटों के नुकसान का मतलब न केवल राजनीति में अजमल के प्रभाव का घटना होगा, बल्कि यह भारत और अरब देशों में इत्र कारोबार के उनके साम्राज्य के लिए भी परेशानी खड़ी कर सकता है।
दिसंबर 2019 में असम में हुए सीएए विरोधी आंदोलन ने बीजेपी और उसके सहयोगियों के खिलाफ मुसलिम वोटों (कुल वोटों का 30% से अधिक) को एकजुट करने के लिए अजमल को कांग्रेस और वाम दलों के साथ हाथ मिलाने का अवसर प्रदान किया। जातीय समुदाय और मुसलमान सीएए से नाराज हैं क्योंकि यह 2014 तक ही गैर-मुसलिम प्रवासियों को नागरिकता देता है।
कम से कम 18 निर्वाचन क्षेत्रों में बीजेपी उम्मीदवारों को हराने पर "महागठबंधन" की नजर है, इन सीटों पर बीजेपी 2016 में मुख्य रूप से कांग्रेस और अजमल के एआईयूडीएफ के बीच मुसलिम वोटों के विभाजन के कारण जीती थी।
हालाँकि अजमल ने यह घोषणा करके अपनी राजनीतिक चालाकी दिखाई कि मुख्यमंत्री का उम्मीदवार उनकी पार्टी का नहीं होगा। ऐसा यह सुनिश्चित करने के लिए किया गया था कि जातीय समुदायों के वोटों पर नजर रखी जा सके।
"महागठबंधन" ने विधानसभा चुनाव में बीजेपी के खिलाफ मुसलिमों को एकजुट करने की संभावना पैदा कर दी है, इसके विरोध में राज्य में एक अत्यधिक सांप्रदायिक ध्रुवीकरण अभियान चल रहा है। बीजेपी ने अजमल पर बार-बार हमले किए हैं, उन्हें बार-बार "बांग्लादेशियों का रक्षक" कहा जा रहा है।
सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की कोशिश
केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने 23 जनवरी को नलबाड़ी में एक रैली को संबोधित करते हुए जातीय समुदायों के बीच भय पैदा करने की कोशिश की और कहा कि एआईयूड़ीएफ-कांग्रेस "घुसपैठियों" के लिए दरवाजे खोल देंगी।
असम के मंत्री हिमंता बिस्वा सरमा, जो पूर्वोत्तर में बीजेपी के रणनीतिकार हैं, जातीय पहचान के लिए अजमल और उनकी पार्टी को खतरे के तौर पर पेश करने की कोशिश कर रहे हैं। सरमा ने एक रैली में कहा, "वे असम में बाबर का शासन स्थापित करने की कोशिश कर रहे हैं।" एक अन्य कार्यक्रम में सरमा ने कहा कि अगर अजमल की पार्टी जीतती है, तो हिंदू मंदिरों में नहीं जा पाएंगे। अजमल ने इन मोर्चों पर एक मूकदर्शक नहीं बने रहने का फैसला किया और कहा कि अगर बीजेपी चुनाव जीतती है तो मुसलमान मसजिदों में नहीं जा पाएंगे।
अपनी राय बतायें