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असम पत्रकार को बेल: एससी-एसटी एक्ट का दुरुपयोग न करे पुलिस- कोर्ट 

असम के पत्रकार की गिरफ़्तारी मामले में गुवाहाटी की एक अदालत ने पुलिस को फटकार लगाते हुए उन्हें जमानत दे दी है। गुवाहाटी की एक अदालत ने असम पुलिस की कार्रवाई पर सवाल उठाते हुए इसे मनमानी करार दिया। कोर्ट ने साफ़ कहा कि यह क़ानून दलितों और आदिवासियों के ख़िलाफ़ अत्याचार रोकने के लिए बनाया गया था, न कि इसका इस्तेमाल लोगों को बिना ठोस आधार के गिरफ्तार करने के लिए किया जाए। यह घटना न केवल पत्रकारिता की स्वतंत्रता पर सवाल उठाती है, बल्कि विशेष क़ानूनों के दुरुपयोग की गंभीर समस्या को भी उजागर करती है।

यह मामला असम के पत्रकार दिलावर हुसैन मजुमदार की गिरफ्तारी से जुड़ा है। उन्हें अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम के तहत 25 मार्च को गिरफ्तार किया गया था। वह असम डिजिटल मीडिया प्लेटफ़ार्म 'द क्रॉसकरेंट' के लिए काम करते हैं। उनकी यह गिरफ्तारी तब हुई थी जब वह असम को-ऑपरेटिव एपेक्स बैंक यानी एसीएबी के ख़िलाफ़ एक प्रदर्शन को कवर करने गए थे।

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गिरफ़्तारी के समय मजुमदार पर आरोप था कि उन्होंने बैंक के एक सुरक्षा गार्ड के ख़िलाफ़ 'आपत्तिजनक टिप्पणी की, जिसमें उसकी जाति का ज़िक्र था। इसके बाद उन्हें एससी/एसटी एक्ट के तहत मामला दर्ज कर हिरासत में लिया गया। द इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के अनुसार हालाँकि, 26 मार्च को ही मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट कामरूप की अदालत ने उन्हें जमानत दे दी। इसके बाद भी उनकी मुश्किलें ख़त्म नहीं हुईं, क्योंकि बैंक के प्रबंध निदेशक ने उन पर दूसरा मामला दर्ज कराया, जिसमें आरोप था कि उन्होंने बैंक में ग़ैरक़ानूनी तरीक़े से प्रवेश किया और दस्तावेज चुराने की कोशिश की। इस मामले में भी उन्हें जमानत मिल गई है।

अंग्रेज़ी अख़बार की रिपोर्ट के अनुसार अदालत ने अपने फ़ैसले में असम पुलिस को कठघरे में खड़ा किया। कोर्ट ने कहा कि जाँच अधिकारी गिरफ्तारी के लिए कोई ठोस सबूत पेश नहीं कर सके। जज ने यह भी टिप्पणी की कि एससी/एसटी एक्ट का उद्देश्य समाज के कमजोर वर्गों को संरक्षण देना है, न कि इसे व्यक्तिगत या राजनीतिक बदले के हथियार के रूप में इस्तेमाल करना। 

कोर्ट ने पुलिस के दावों को खारिज करते हुए कहा कि गार्ड के बयान से यह साबित नहीं होता कि पत्रकार ने जानबूझकर जातिगत अपमान किया। यह टिप्पणी क़ानून के दुरुपयोग पर एक बड़ा सवाल खड़ा करती है।
यह मामला तब और जटिल हो जाता है जब इसे राजनीतिक पहलू से जोड़कर देखा जाता है। असम के मुख्यमंत्री हिमंता बिस्वा सरमा एसीएबी के निदेशक हैं, और बैंक का अध्यक्ष एक बीजेपी विधायक है। 'द क्रॉसकरेंट' राज्य सरकार की नीतियों और कथित भ्रष्टाचार पर अपनी खोजी पत्रकारिता के लिए जाना जाता है। ऐसे में इस गिरफ्तारी को सरकार के ख़िलाफ़ सवाल उठाने वाले पत्रकारों को चुप कराने की कोशिश के रूप में देखा जा रहा है। यह घटना भारत में प्रेस की आज़ादी पर बढ़ते दबाव को भी दिखाती है, जहां पत्रकारों को कानूनी और प्रशासनिक उत्पीड़न का सामना करना पड़ रहा है।
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एससी/एसटी एक्ट जैसे विशेष क़ानून सामाजिक न्याय सुनिश्चित करने के लिए बनाए गए हैं, लेकिन इसका ग़लत इस्तेमाल नई चुनौतियाँ पैदा कर रहा है। यह पहली बार नहीं है जब इस क़ानून के दुरुपयोग की बात सामने आई हो। कई मामलों में इसे निजी दुश्मनी या दबाव बनाने के लिए हथियार बनाया गया है। 

असम के इस मामले ने न केवल पुलिस की कार्यप्रणाली पर सवाल उठाए हैं, बल्कि यह भी दिखाया है कि पत्रकारिता जैसे संवेदनशील पेशे को निशाना बनाना कितना आसान हो गया है। कोर्ट का फ़ैसला एक सकारात्मक कदम है, लेकिन यह घटना प्रेस की स्वतंत्रता और कानून के दुरुपयोग जैसे बड़े मुद्दों पर बहस को तेज करती है।

(इस रिपोर्ट का संपादन अमित कुमार सिंह ने किया है)

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क़मर वहीद नक़वी
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