असम विधानसभा के चुनाव के लिए मतदान हो चुका है और अब इंतज़ार है दो मई का, जब नतीजे सामने आएँगे। मुक़ाबला काँटे का रहा है इसलिए कोई भी यह कहने की स्थिति में नहीं है कि कौन सरकार बनाने जा रहा है। हालाँकि अटकलें लगाने का सिलसिला जारी है, मगर सारी संभावनाएं खुली हुई हैं, यानी कोई भी जीत सकता है और किसी की भी सरकार बन सकती है।
दरअसल, तीन चरणों के मतदान की कहानी अलग-अलग रही हैं। उनमें कोई एक तरह का ट्रेंड दर्ज़ नहीं किया गया। पहले चरण में ऊपरी असम के लिए वोट डाले गए, जिसमें बीजेपी की बढ़त सब मानते हैं, मगर बढ़त कितनी होगी, इसको लेकर कोई भी पक्के तौर पर कुछ नहीं कह रहा है। अगर वह आगे रहते हुए भी पिछले चुनाव की तुलना में दस सीटें गँवाती है तो सत्ता उसके हाथ से निकल सकती है।
दूसरे चरण में महागठबंधन थोड़ा आगे दिखा है, जबकि तीसरा चरण महागठबंधन का माना जा रहा है।
कहा जा रहा है कि चुनाव खर्च के हिसाब से ये चुनाव अभूतपूर्व रहा है। बीजेपी ने एक-एक चुनाव क्षेत्र पर बीस-बीस करोड़ रुपये तक खर्च किए हैं। फिर भी उसकी साफ़ जीत नहीं दिखाई दे रही है?
कांग्रेस का महागठबंधन
इस प्रश्न के उत्तर में सात बड़ी वज़हें गिनाई जा सकती हैं। इसमें सबसे अव्वल तो ये है कि कांग्रेस ऑल इंडिया यूनाईटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट यानी एआईयूडीएफ तथा दूसरे आठ दलों के साथ गठबंधन बनाकर मज़बूत चुनौती देने में कामयाब रही है। इस गठबंधन के आकार लेते ही बराक घाटी और निचले असम में बीजेपी की स्थिति कमज़ोर हो गई।
पिछले चुनाव में वह और उसके सहयोगी दल वोटों के बँटवारे का लाभ उठाकर छत्तीस सीट जीतने में सफल रहे थे। कम से कम पंद्रह सीटें तो ऐसी थीं कि अगर वोट न बँटे होते तो बीजेपी या उसके सहयोगी दल उन्हें जीत ही नहीं सकते थे। अब इन तमाम सीटों पर महागठबंधन ने ख़तरे का निशान लगा दिया है।
सरकार बनाने का विश्वास
फिर महागठबंधन के बनते ही जनमानस में ये भरोसा पैदा हो गया कि वह सरकार भी बना सकता है। मतदाताओं के निर्णय लेने की प्रक्रिया में सरकार बनाने की क्षमता एक बड़े कारक के रूप में काम करता है। इस भरोसे के पैदा होते ही वे मतदाता तो उसे विकल्प की तरह देखने ही लगे जो किन्हीं वज़हों से बीजेपी से नाराज़ हो गए थे, मगर डाँवाडोल मतदाताओं को भी निर्णय लेने में इसने भूमिका निभाई। चुनावी परिदृश्य को बदलने की ये दूसरी सबसे बड़ी वज़ह मानी जा सकती है।
हालाँकि ये सही है कि अगर महागठबंधन राइज़ोर दल और असम जातीय परिषद (एजेपी) को साथ ले पाता तो उसकी जीत सुनिश्चित हो जाती, मगर वह दोनों में से एक को भी इसके लिए तैयार नहीं कर पाया। हाँ, ये ज़रूर माना जा रहा है कि अगर ज़रूरत पड़ी कम से कम राइजोर दल तो महागठबंधन का साथ देगा ही।
सीएए का मुद्दा
तीसरी वज़ह बीजेपी द्वारा नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) को थोपना रहा। वैसे तो ये नहीं कहा जा सकता कि सत्ता विरोधी कोई लहर इस चुनाव में थी, मगर सीएए ने दो तरह से बीजेपी विरोधी माहौल बनाने में सहायता की। अव्वल तो ये कि असमिया समाज में इसकी वज़ह से व्यापक असंतोष फैला और वह अभूतपूर्व प्रदर्शनों में व्यक्त भी हुआ।
सीएए विरोधी आंदोलन की तपिश पिछली सदी के अस्सी के दशक में हुए असम आंदोलन से भी ज़्यादा महसूस की गई। इसने असमिया समाज को बीजेपी और उसकी गोद में बैठी एजीपी के ख़िलाफ़ लामबंद कर दिया।
बीजेपी के ख़िलाफ़ गुस्सा
इस आंदोलन का दूसरा प्रभाव ये हुआ कि 2016 में जो कांग्रेस विरोधी भावनाएं उबाल पर थीं, वे ठंडी पड़ गईं। कांग्रेस ने सीएए विरोधी आंदोलन में जमकर हिस्सा लिया, जिससे उसकी साख पूरी तरह से तो नहीं, मगर आंशिक रूप से बेहतर हुई। चुनाव में उसके विरुद्ध वैसी भावनाएं मतदाताओं में नहीं देखी गईं। बीजेपी के ख़िलाफ़ गुस्से ने स्वाभाविक रूप से उसे एक विकल्प के रूप में खड़ा कर दिया।
हालाँकि ये सच है कि कोरोना महामारी की वज़ह से सीएए विरोधी आंदोलन स्थगित हो गया और जो जनज्वार उठा था वह भी थम सा गया। एक साल के अंतराल ने संगठित विरोध और चुनाव में उसकी अभिव्यक्ति की संभावना को भी सीमित कर दिया। फिर बीजेपी ने लड़कियों को स्कूटी बाँटने समेत बहुत सी ऐसी लोक-लुभावन घोषणाएं करके भी ध्यान बँटाने की कोशिशें कीं। उसने विकास का भी एक नैरेटिव प्रचारित करके मतदाताओं को भ्रमित किया।
उधर, सीएए विरोधी आंदोलन से पैदा हुई दो पार्टियों राइजोर दल एवं एजेपी के कारण भी अनिश्चितता बढ़ गई। राजनीतिक प्रेक्षकों और चुनाव विशेषज्ञों को अभी तक समझ में नहीं आ रहा कि सीएए विरोधी आंदोलन का क्या असर चुनाव पर पड़ेगा, उससे किसको कितना फ़ायदा या नुक़सान होगा।
ऊपरी असम बेहद अहम
आंदोलन का सबसे अधिक ज़ोर ऊपरी असम में था, जहाँ की बयालीस सीटें दाँव पर लगी हुई हैं। पिछली बार बीजेपी-एजीपी यहाँ से छत्तीस सीटें जीतने में कामयाब रही थीं। माना जा रहा है कि अगर वे अपना प्रदर्शन दोहराने में कामयाब रहती हैं तो सरकार बना लेंगी, मगर यदि उन्हें दस सीटों का भी नुक़सान हुआ तो बाज़ी हाथ से निकल जाएगी।
अनिश्चितता की चौथी वज़ह चाय बागानों में काम करने वाले मज़दूरों के रुझान को लेकर पैदा हुई है। बीजेपी सरकार ने उन्हें लुभाने के लिए सीधे नगद भुगतान से लेकर कुछ दूसरी सुविधाएं दी हैं, मगर न्यूनतम मज़दूरी को लेकर उसने अपना वादा पूरा नहीं किया।
2016 में उसने वादा किया था कि वह मजदूरी को 351 रुपये प्रतिदिन कर देगी, मगर 167 रुपये ही किया। कांग्रेस ने सरकार में आने के तुरंत बाद इसे 365 रुपये करने का एलान करके एक तरह से उसे झटका दिया है। उसके एलान के बाद बीजेपी ने 50 रुपये की बढ़ोतरी का एलान कर दिया, मगर चाय बागानों के मालिकों ने अदालत में उसे चुनौती देकर मामले को लटका दिया। अब सवाल उठता है कि मज़दूरों ने बीजेपी से मिली सौगातों पर वोट डाला होगा या फिर कांग्रेस के वादे पर।
पाँचवी वज़ह ये मानी जा रही है कि बीजेपी ने सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का जो हथकंडा आज़माया है वह कितना और कहाँ-कहाँ काम करेगा। ऊपरी असम चूँकि हिंदू बहुल है और बीजेपी का गठबंधन पहले से ही मज़बूत था इसलिए उसे उसका और लाभ मिलेगा इसमें संदेह है।
बराक घाटी, निचले और मध्य असम में इसका फ़ायदा मिलने की गुंज़ाइश अधिक है। लेकिन सीएए की वज़ह से वह ज़्यादा कारगर होता नज़र नहीं आया। बराक घाटी और निचले असम में तो उसे नुक़सान होना ही है, मध्य असम में भी शायद ये हथकंडा उस तरह से काम न कर पाए, जिसकी अपेक्षा वह कर रही है।
बीजेपी से छिटका बीपीएफ
बीजेपी ने पिछले चुनाव में बोडोलैंड क्षेत्रीय परिषद की बारह की बारह सीटें जीतने वाली बीपीएफ से नाता तोड़कर भी अपनी संख्या को घटाने का जोखिम मोल लिया था। बीपीएफ के महागठबंधन में शामिल होने से उसकी ताक़त में और भी इज़ाफ़ा हो गया है। इन सीटों पर मुसलिम मतदाताओं की संख्या अच्छी-ख़ासी है, जिससे बीपीएफ का वोट बैंक बढ़ गया है।
बीजेपी ने यूपीपीएल के ज़रिए बोडो मतदाताओं के साथ-साथ हिंदी और बांग्लाभाषियों के ध्रुवीकरण की कोशिश सांप्रदायिक आधार पर करने की पूरी कोशिश की है। ये कितनी कामयाब होगी, इसका सही आकलन का न होना संशय की छठी वज़ह है।
सातवीं वज़ह ये है कि बीजेपी की सहयोगी असम गण परिषद इस समय बेहद अलोकप्रिय और कमज़ोर स्थिति में है। पिछली बार उसने 14 सीटें जीती थीं, लेकिन प्रेक्षकों को लग रहा है कि इस बार उसकी संख्या दहाई का आँकड़ा पार नहीं कर पाएगी।
त्रिशंकु विधानसभा?
उपरोक्त सात कारणों से ये तो साफ़ है कि बीजेपी के नेतृत्व वाले गठबंधन की सीटें घट सकती हैं और महागठबंधन की सीटें बढ़ेंगी। लेकिन ये कहना मुश्किल हो रहा है कि क्या बीजेपी इतनी सीटें गँवाएगी कि उसके लिए सरकार का गठन करना ही असंभव हो जाए या महागठबंधन इतनी सीटें बढ़ा सकेगा कि आसानी से सरकार बना ले। इसी अनिश्चितता की वज़ह से प्रेक्षकों को तीसरी संभावना यानी त्रिशंकु विधानसभा भी दिख रही है।
ऑपरेशन लोटस?
अगर ऐसी स्थिति बनी तो बीजेपी फ़ायदा उठा सकेगी। बीजेपी के चरित्र और धनबल आदि को देखते हुए वह यहाँ भी गोवा, मणिपुर आदि की तर्ज़ पर सरकार बना लेगी। ये भी तय माना जा रहा है कि कांग्रेस अगर कुछ सीटों से आगे निकल गई और उसने सरकार बना भी ली तो वह उसे ज़्यादा दिन टिकने नहीं देगी। कर्नाटक तथा मध्यप्रदेश की तर्ज़ पर वह तख़्ता पलट कर सकती है।
वास्तव में बीजेपी ने इसकी तैयारी पहले से ही शुरू कर दी थी। बीच चुनाव में बीपीएफ के प्रत्याशी को पार्टी में शामिल करके बीपीएफ की तय एक सीट को उसने हड़पने की चाल चल दी थी। चुनाव आयोग ने भी इसमें उसका साथ दिया है। ये भी माना जा रहा है कि महागठबंधन की कई पार्टियों में बीजेपी का साथ देने वाले प्रत्याशी शामिल हैं। बदरुरद्दीन अजमल इस तरह की आशंका ज़ाहिर कर चुके हैं।
कांग्रेस के ही सूत्रों का कहना है कि उन्हें कोई आश्चर्य नहीं होगा अगर उसके दस-पंद्रह प्रत्याशी हिमंत बिस्व सरमा के आदमी हों। इस सबके बावजूद मामला करीबी है और फ़ैसला दस-बारह सीटों के अंतर से ही होगा। लेकिन ये अंतर किसी भी तरफ हो सकता है, इसमें ये जोड़ लिया जाए तो बेहतर होगा।
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