विधानसभा चुनावों के नतीजे आ गए हैं। बीजेपी तीनों हिंदी भाषी राज्य हार गई है। मरी हुई कांग्रेस में नई जान आ गई। उसकी चाल में थिरकन है। नया आत्मविश्वास है। राहुल गाँधी मोदी को चुनौती दे रहे हैं कि 2019 के लोकसभा चुनाव वे उन्हें नहीं जीतने देंगे। क्या कहा जाए इसे? क्या महज़ तीन राज्य जीतने से कांग्रेस में इतना अहंकार आ गया है कि वह मोदीमुक्त भारत की बात करने लगी है?मेरा मानना है कि मोदी के लिए ख़तरा बड़ा है। इसलिए नहीं कि कांग्रेस अपने पुराने तेवर में लौट आई है, बल्कि इसलिए कि पिछले साढ़े चार साल में जो किया है, अब उसका हिसाब देने का वक़्त आ गया है। मोदी को 2014 चुनावों के समय जो बड़े-बड़े वादे किए गए थे, उन वादों पर खरा उतरना होगा। कांग्रेस तो ‘डिफ़ॉल्ट चॉइस’ है। हालाँकि इसमें दो राय नहीं है कि पिछले डेढ़ साल में कांग्रेस और राहुल ने अपने में काफी तबदीली की है, मोदी से लड़ने का नया जोश और नई हिम्मत दिखाई है।
तीन राज्यों में हार के बाद बीजेपी को ये आत्ममंथन करना होगा कि ग़लती कहाँ हो गई या हो रही है। बीजेपी के बड़े नेता यह कहते अघाते नहीं कि उनकी सरकार ने ख़ूब काम किया है। वे आँकड़े भी जी भर के देते हैं। पर क्या आँकड़ों से मतदाताओं का पेट भर जायेगा?
आँकड़ों का सच
इस चुनाव में बीजेपी की हार का सबसे बड़ा कारण ग्रामीण संकट बताया जा रहा है। किसान की आय नहीं बढ़ी। क़र्ज़ ने उस पर इतना बोझ बढ़ा दिया कि वे आत्महत्या करने पर मजबूर हो गया। देश के तमाम हिस्सों में किसान नाराज़ है। वह सड़क पर आंदोलन कर रहा है। पिछले दिनों वे कई बार दिल्ली अपना आक्रोश जताने के लिए आए। पर बीजेपी और मोदी सरकार का कहना है कि उनकी सरकार ने ग्रामीण विकास पर काफ़ी ज़ोर दिया है। चाहे वह गाँवों में सड़क बनाने का काम हो या फिर गाँवों में बिजली देने और मकान बनाने का काम हो या फिर टॉयलेट का। आँकड़ों में अगर कहानी कहनी हो तो मोदी सरकार का काम काफ़ी प्रभावशाली लग सकता है।
किसानों ने दिल्ली और देश के अलग अलग हिस्सों में कई बार प्रदर्शन किए।
आँकड़ों की राजनीति
अंग्रेजी अख़बार ‘इंडियन एक्सप्रेस’ ने एक रिपोर्ट छापी है। इस रिपोर्ट में कुछ दिलचस्प आँकड़े दिए गए हैं। इन आँकड़ों में यह दावा किया गया है कि गाँवों में मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद काफ़ी काम किया गया। फिर चाहे वह मकान बनाने का हो या फिर सड़क निर्माण का या फिर बिजली पहुँचाने का आँकड़ा हो, ये आँकड़े मनमोहन सिंह की सरकार के मुक़ाबले काफ़ी बेहतर लगते हैं।ये आँकड़े साफ़ बताते हैं कि गाँवों में मकान बनाने के काम में काफ़ी तेज़ी आई है। मनमोहन सिंह के समय 2013-14 में कुल मकान बने साढ़े 10 लाख जबकि मोदी के समय 2017-18 में बने साढ़े 44 लाख। इसी तरह गाँवों में सड़क बनाने के आँकड़ों में भी काफ़ी फ़र्क़ हैं। 2013-14 में 27 हज़ार किमी सड़क बनी जबकि 2017-18 में 48.5 हज़ार किमी सड़क बनी है। प्रधानमंत्री उज्ज्वला योजना के तहत गैस सिलिंडर कनेक्शन की संख्या 2015 में 15.33 करोड़ थी जो 2018 में बढ़कर हो गई 24.72 करोड़। मोदी ने प्रधानमंत्री बनने के बाद भारत स्वच्छता अभियान को बड़े ज़ोर-शोर से लॉन्च किया था। इसके नतीजे भी मिल रहे हैं। प्रधानमंत्री ने स्वच्छ भारत अभियान को खूब प्रचारित किया
9 करोड़ टॉयलेट
बडी संख्या में गाँवों में टॉयलेट बने हैं। साल 2014 से अब तक कुल 8.98 करोड़ टॉयलेट बनाने का दावा किया गया है। इसी तरह जनधन योजना के अंतर्गत अकेले गाँवों में 19.75 करोड़ खाते खोले गए हैं। आँकड़ों में तो यह भी दावा किया गया है कि देश के कुल 21.69 करोड़ ग्रामीण घरों में से 20.87 करोड़ घरों को बिजली से जोड़ दिया गया यानी तक़रीबन 96% घरों का बिजलीकरण हुआ।
आज ये आँकड़े काफी मायूस होंगे कि इतना काम किया, फिर भी जनता ने उन्हें नकार दिया। लोकतंत्र की परीक्षा में फ़ेल कर दिया। यह सवाल आम जन भी पूछ सकता है कि आख़िर हुआ क्या? कहाँ चूक हो गई? यह चूक नज़रिए की है।
ये वे आँकड़े हैं जो आँखों से दिखते हैं और जिनके आधार पर बड़े-बड़े विज्ञापन किये जा सकते हैं। पर इनके बीच एक सच्चाई यह है कि ये सारे आँकड़े निर्जीव चीज़ों के हैं। इस दौरान उनका क्या हुआ या उनके लिए क्या किया गया जिनमें जान है, जो साँस लेता है, जिनके बीवी-बच्चे हैं और जिनको दिन में दो वक़्त की रोटी खानी होती है, ज़िन्दा रहने के लिए।
जीना मुश्किल
इन आँकड़ों को जब क़रीब से देखते हैं तो पता चलता है कि सजीव का जीवन पिछले साढ़े चार सालों में मुश्किल हुआ है। गाँवों में किसानों की आय घटी है। सड़क-मकान बनने के बाद भी जीवन दुरूह हुआ है। ग्रामीण उत्पाद के दामों में वृद्धि दर में अप्रत्याशित कमी आई है। मनमोहन सिंह के समय 2013-14 में अनाज की कीमतों की वृद्धि दर 12.26% थी जबकि 2107-18 में ये आँकड़ा घट कर 2.07% हो गया। यानी 80 फ़ीसदी से अधिक की कमी। इसी तरह अ-खाद्य पदार्थों की मूल्य वृद्धि दर भी 4.50% से घट कर -2.13% रह गई। अगर गाँव में वेतन वृद्धि दर की तुलना करें तो पता चलता है कि यह कमी भयानक है। 2013-14 में वेतन वृद्धि दर 15.87% थी। 2017-18 में ये अंक सिकुड़ जाते हैं और घट कर रह जाते हैं 5.20%। यानी वेतन वृद्धि दर में दो-तिहाई की कमी। ये आँकड़े कहते हैं कि पाँच सालों में गाँव के आदमी की हालत बद से बदतर हुई। इस दौरान महँगाई बढ़ी पर उसकी आय तुलनात्मक रूप से घट गई। ज़रूरतें बढ़ीं पर उसके ख़र्च की ताक़त काफ़ी घट गई। ऐसे में अगर गाँव-देहात का आदमी मोदी सरकार से नाराज़ है तो वह स्वाभाविक है। उसे जीवन चलाने के लिए कर्ज़ पर क़र्ज़ लेना पड़ा है। उसकी भरपाई न होने पर सूद बढ़ता ही रहा और अंत में जब उसके सब्र का बाँध टूटा तो वह आत्महत्या करने पर मजबूर हो गया। अब यह बात वे कैसे समझेंगे जो विज़न के नाम पर बुलेट ट्रेन चलाने की बात करते हैं या फिर बड़ी-बड़ी मूर्तियाँ लगा कर आम जन को संतुष्ट करना चाहते हैं। मूर्तियों और बुलेट ट्रेन से लोगों का पेट नहीं भरता, उसे दो वक़्त की रोटी कैसे आसानी से मिले, यह ज्यादा अहम है। पर यह वे कैसे समझेंगे जिन्हें हवा में सपनों का महल बनाने में महारत हासिल है।
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