कर्नाटक विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की धमाकेदार जीत की गूँज राष्ट्रीय राजनीतिक परिदृश्य को बड़े पैमाने पर प्रभावित करने जा रही है। कर्नाटक के नतीजों ने भ्रष्टाचार को सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की चादर से ढकने की बीजेपी की राजनीति को तगड़ा झटका दिया है। इसी के साथ प्रधानमंत्री मोदी के विभाजनकारी इरादों को भी नकारा है। लेकिन सबसे बड़ी बात है कि कर्नाटक ने आर्थिक और सामाजिक न्याय की राजनीति के नये दौर का ऐसा फाटक खोल दिया है जिससे गुज़रे बिना किसी भी दल को राह नहीं मिल पाएगी। कर्नाटक के चुनाव की जीत भारतीय आकाश में एक नयी कांग्रेस के उदय की भी घोषणा है जो अपने मुद्दों पर स्पष्ट है और उनके लिए ज़बरदस्त तरीक़े से जूझना जानती है।
कर्नाटक में राहुल गाँधी की भारत जोड़ो यात्रा को जबरदस्त समर्थन मिला था। जनता ने नफ़रत के बाज़ार में मुहब्बत की दुकान खोलने का फ़ैसला तभी कर लिया था। इसी के साथ प्रचार के चढ़ते तापमान के बीच मध्य अप्रैल में राहुल गाँधी ने जब ‘जितनी आबादी-उतना हक़ का नारा दिया’ तो वे कांग्रेस के इतिहास में आये एक अभूतपूर्व मोड़ की मुनादी कर रहे थे। ऐसा नहीं है वंचित जमातों की भागीदारी की माँग कोई नयी माँग रही है लेकिन अतीत में हमेशा ऐसी माँग के निशाने पर कांग्रेस ही रही है। सामाजिक न्याय की राजनीति की सतह के नीचे गैरकांग्रेसवाद की एक धारा हमेशा बहती रही है। यह पहली बार है कि कांग्रेस ख़ुद सामाजिक न्याय का नारा इस तरह बुलंद करती दिखी।
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‘मोदी सरनेम विवाद’ के चलते अपनी सांसदी गँवाने वाले और बीजेपी की ओर से ‘पिछड़ा विरोधी’ होने की तोहमत झेल रहे राहुल गाँधी ने जब बीच चुनाव ये सवाल उठाया कि “भारत सरकार में मात्र 7% सचिव दलित, आदिवासी या OBC क्यों हैं? क्या भारत में इन वर्गों की आबादी बस 7% है? अगर हमें देश में सबको भागीदारी देनी है, तो किस जाति की कितनी आबादी है, ये पता लगाना पड़ेगा। प्रधानमंत्री जातीय जनगणना के आंकड़े सार्वजानिक क्यों नहीं कर रहे हैं?” तो वे एक ऐसी बड़ी लकीर खींच रहे थे जिसके सामने बीजेपी का पूरा चुनावी अभियान फ़ीका नज़र आने लगा। 2011 मे हुए जातिसर्वे के नतीजों को सार्वजनिक करने, जातिजनगणना कराने और आरक्षण कोटा 50 फ़ीसदी से बढ़ाकर आबादी के हिसाब से करने की राहुल गाँधी की माँग का कोई जवाब बीजेपी के पास नहीं था। प्रधानमंत्री मोदी चाहते तो इसका सकारात्मक जवाब दे सकते थे क्योंकि 2018 में बतौर गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने उनकी सरकार की ओर से जाति जनगणना कराने का वादा किया था, लेकिन उन्होंने इस पर चुप्पी साधते हुए कभी बजरंगदल को बजरंगबली का पर्याय बताया तो कभी फ़िल्म ‘द केरला स्टोरी’ की तारीफ़ में कसीदा काढ़ना शुरू किया। इस भंगिमा को जनता, ख़ासतौर पर दलितों, पिछड़ों, अल्पसंख्यकों और अन्य वंचित वर्गों ने अपने ख़िलाफ़ माना।
ऐसा नहीं है कि कांग्रेस कभी सामाजिक न्याय के ख़िलाफ़ थी। संविधान ख़ुद सामाजिक न्याय का सबसे बड़ा दस्तावेज़ है जो कांग्रेस के अभूतपूर्व उपनिवेशवाद विरोधी संघर्ष के साथ नत्थी रहे संकल्पों का नतीजा है। आज़ादी के तुरंत बाद दलितों और आदिवासियों के लिए राजनीति, शिक्षा और नौकरियों में आरक्षण देकर उसने बिल्कुल नये भारत का नक्शा गढ़ा था। बाद में पिछड़े वर्गों को शिक्षा में आरक्षण देने का काम भी कांग्रेस सरकार ने ही किया था, लेकिन इसे अपनी उपलब्धि बतौर प्रचारित-प्रसारित करने की उसने कोशिश नहीं की थी। अब रायपुर अधिवेशन में लिये गये फ़ैसलों के बाद एक नयी कांग्रेस सामने है जिसने संगठन और राजनीति, दोनों ही मोर्चों पर सामाजिक न्याय को अपनी वैचारिक मशाल बनाया है। यह नयी कांग्रेस ‘जितनी आबादी-उतना हक़’ के नारे को धुरी बनाते हुए पूरे विपक्ष को गोलबंद करने में जुटी है जो 2024 के लोकसभा चुनाव का रंग बदल देगा, इसमें शक़ नहीं है।
इसके अलावा कर्नाटक चुनाव ने यह भी साबित किया है कि बुनियादी मुद्दों को दरकिनार करने के लिए सांप्रदायिक विभाजन की राजनीति की मियाद पूरी हो गयी है। तमाम सर्वेक्षण के नतीजे बताते हैं कि कर्नाटक में कम आय वर्ग के लोगों और महिलाओं ने बड़े पैमाने पर कांग्रेस के पक्ष में मतदान किया। हिजाब, नकाब से शुरू होकर बजरंगबली तक पहुँचे बीजेपी अभियान को यह ग़रीबों की ओर दिया गया मुँहतोड़ जवाब है। ‘40 फ़ीसदी कमीशन की सरकार’ का आरोप जनता के अनुभव पर था और कांग्रेस ने पाँच गारंटियाँ देकर एक नयी विश्वसनीयत हासिल कर ली। ‘गृहज्योति योजना’ के तहत हर महीने 200 युनिट मुफ़्त बिजली, ‘गृहलक्ष्मी योजना’ के तहत परिवार की बुज़ुर्ग महिला को दो हज़ार रुपये प्रति माह, ‘उचिता प्रयाण योजना’ के तहत महिलाओं के लिए मुफ़्त बस यात्रा, ‘अन्न भाग्य योजना’ के तहत हर बीपीएल परिवार को दस किलो चावल प्रतिमाह, ‘युवा निधि योजना’ के तहत बेरोज़गार स्नातक को प्रति माह 3000 रुपये और डिप्लोमा धारक को दो साल के लिए 1500 प्रति माह देने की गारंटी ने चुनाव को किसी पार्टी की जीत-हार के मसले की जगह जनता के भविष्य से जोड़ दिया।
कर्नाटक की राजनीति से ही निकले पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे के प्रति उमड़े उत्साह के साथ पूर्व सिद्धारमैया और डी.के.शिवकुमार की ‘कन्नड़’ ने इस विश्वसनीयता को धार देने में कोर-कसर नहीं छोड़ी। साथ ही पार्टी महासचिव प्रियंका गाँधी के तीखे तेवरों ने भी कमाल दिखाया जिन्होंने भाषण देने में माहिर माने जाने वाले प्रधानमंत्री मोदी को तुर्की-ब-तुर्की जवाब दिया। 91 बार गाली खाने की दुहाई देकर सहानुभूति लहर पैदा करने से लेकर बजरंगबली को बीजेपी का चुनावी एजेंट बनाने की उनकी कोशिशों को अपनी मुहावरेदार भाषा के ज़रिए प्रियंका गाँधी ने बार-बार नाकाम किया। हिमाचल प्रदेश के बाद कर्नाटक चुनाव ने भी जनता को आकर्षित करने की प्रियंका गाँधी की क्षमता पर मुहर लगा दी है।
हमेशा की तरह कर्नाटक चुनाव में भी कथित मुख्यधारा मीडिया का पूरा समर्थन बीजेपी को मिला। जो लोग सिर्फ़ न्यूज़ चैनलों के भरोसे थे, उन्होंने तो मान ही लिया था कि प्रधानमंत्री मोदी के ‘बजरंग दाँव’ के बाद कांग्रेस की सारी गुंजाइश समाप्त हो चुकी है। मीडिया के लिए यह सवाल भी नहीं था कि मणिपुर को आग में धधकता छोड़कर देश का गृहमंत्री और प्रधानमंत्री किसी विधानसभा चुनाव में ख़ुद को कैसे झोंक सकता है? मीडिया के ‘मोदी राग’ में थोड़ी कमी एग़्ज़िट पोल के नतीजे आने के बाद ही आ पायी जब बीजेपी की हार की संभावना को देखते हुए उसने बीजेपी के चेहरा बतौर मोदी की जगह पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष जे.पी.नड्डा को सामने कर दिया। लेकिन बहुत दिनों तक राहुल गाँधी की ओर से उठे सवालों से मुँह मोड़ पाना न मीडिया के लिए संभव हो पाएगा और बीजेपी के लिए। गरीबों के जीवन को बेहतर बनाने वाले स्पष्ट आर्थिक पैकेज, जाति जनगणना, ‘जितनी आबादी, उतना हक़’ का सिद्धांत 2024 के लोकसभा चुनाव के मूल मुद्दे होंगे जिस पर सभी को कसा जाएगा।
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कुल मिलाकर कर्नाटक चुनाव के नतीजों ने बीजेपी और मोदी की विभाजनकारी राजनीति को पराजित करने का मंत्र दे दिया है। यह मंत्र है आर्थिक और सामाजिक न्याय के मुद्दों पर बेबाक और विश्वसनीय अभियान चलाना। कर्नाटक में इस मंत्र को सिद्ध करने के बाद कांग्रेस विपक्षी एकता के सफल सूत्रधार की भूमिका में आ गयी है। बाक़ी विपक्षी दल भी इस सूत्र को जल्द समझ लें तो 2024 धर्मनिरपेक्ष संसदीय गणतंत्र के रूप में भारत के अस्तित्व को चुनौती देने वाली शक्तियों के निर्णायक पराजय का वर्ष बन सकता है, इसमें संदेह नहीं है।
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