कार्ल वॉन क्लाउज़विट्स (1 जून 1780 –16 नवम्बर 1831) जर्मनी (प्रुशिया) के सेनानायक, सैन्य-सिद्धान्तकार तथा रचनाकार थे। उन्होंने अपनी रचनाओं में युद्ध के मनोवैज्ञानिक तथा राजनैतिक पक्ष को उभारा। 'ऑन वार' उनकी प्रसिद्ध रचना है जो 1832 में उनकी मृत्यु के बाद प्रकाशित हुई। 'ऑन वॉर' में क्लाउज़विट्स युद्ध में राष्ट्र की राजनीति द्वारा निभाई जाने वाली केंद्रीय भूमिका पर ध्यान आकर्षण करते हैं। युद्ध शुरू करने में राष्ट्र की राजनीति का विश्लेषण करते हुए, क्लाउज़विट्स मानते हैं कि युद्ध अपने-आपमें किसी भी राष्ट्र का एकमात्र लक्ष्य नहीं हो सकता, बल्कि राजनीतिक उद्देश्यों को प्राप्त करने का एक साधन है। वह मानते हैं कि "राजनीतिक लक्ष्य हासिल करना सिर्फ़ सरकार का काम है।" हालांकि क्लाउज़विट्स यह भी मानते हैं कि युद्ध में जाने का नीतिगत निर्णय विशेष रूप से सरकार द्वारा लिया जाता है, उन्होंने सुझाव दिया कि इस सरकारी ताक़त को युद्ध में इस्तेमाल करने की इच्छा को पूरी तरह से नहीं तो कम से कम आंशिक रूप से नियंत्रित किया जाना चाहिए। वे कहते हैं, ‘युद्ध कोई खेल नहीं है; यह केवल साहस दिखाने और जीतने का आनंद लेने के लिए नहीं है, गैर-ज़िम्मेदार उत्साही लोगों के लिए युद्ध में कोई जगह नहीं है।’
क्लाउज़विट्स युद्ध की क्रूरता को जानते थे इसलिए वह सरकारों को लापरवाही से युद्ध में प्रवेश करने से भी सावधान करते हैं। युद्ध अज्ञात संस्थाओं के विरुद्ध नहीं, बल्कि जीवित लोगों द्वारा जीवित लोगों के विरुद्ध लड़े जाते हैं: ''युद्ध किसी एक निर्जीव वस्तु जैसे कि ज़मीन के टुकड़े पर एक जीवित शक्ति की कार्रवाई नहीं है, बल्कि हमेशा दो जीवित शक्तियों का टकराव है।" इस गतिशीलता को ध्यान में रखते हुए, क्लाउज़विट्स युद्ध में शामिल नहीं हुए देशों के साझा प्रयासों को राज्यों की युद्ध में क्रूरता को कम करने का एकमात्र तरीका मानते हैं जिससे युद्ध में भाग नहीं लेने वाले नागरिकों की रक्षा हो सके।
उनका कहना है, "सभ्य राष्ट्रों के बीच का युद्ध, जंगली लोगों के बीच युद्धों की तुलना में बहुत कम क्रूर और विनाशकारी होने चाहिए, और इसका कारण स्वयं राज्यों की सामाजिक स्थिति और एक-दूसरे के साथ उनके संबंधों में निहित है।" क्लॉउज़विट्ज़ ने बताया कि युद्ध अंधाधुंध तरीके से नहीं किया जाना चाहिए, बल्कि, ऐसे उदाहरण होने चाहिए जहाँ नागरिकों को, अपनी सरकारों पर अंकुश लगाकर, अन्य नागरिकों के ख़िलाफ़ और उनके बीच सीमित बल का ही उपयोग हो सके, ऐसी स्थिति बनानी चाहिए। यह वही विषय है जिससे निपटने के लिए जिनेवा कन्वेंशन बनाया गया था और कालांतर में संयुक्त राष्ट्र की स्थापना की गई।
तक़रीबन 200 साल बाद क्लाउज़विट्स द्वारा कही गयी सैद्धांतिक बातें इज़राइल-हमास के संघर्ष में काफ़ी हद तक लागू होती दिख रही हैं। हमास अपनी लड़ाई मनोवैज्ञानिक और राजनीतिक स्तर पर लड़ रहा है, उसका अंतिम लक्ष्य इज़राइल से यहूदियों को निकालना है। उधऱ दूसरी तरफ इज़राइल सैन्य बल का इस्तेमाल कर हमास का ख़ात्मा चाहता है। एक सबसे बड़ा फ़र्क़ क्लाउज़विट्स के समय और आज की परिस्थिति में नॉन स्टेट एक्टर के उदय का है। हमास समस्त फ़िलिस्तीनियों का प्रतिनिधित्व नहीं करता है जबकि इज़राइल में चुनाव द्वारा स्थापित संसद (कनेसेट) और सरकार है। हालाँकि 2006 के चुनाव में हमास को पीएलओ द्वारा स्थापित अल फ़तेह के मुक़ाबले अधिक समर्थन मिला था पर इज़राइल की ज़मीन से यहूदियों को पूरी तरह निकालने वाली वाली विचारधारा के चलते आपस में झगड़ा बढ़ा और बाद में हमास सिर्फ ग़ज़ा पट्टी तक ही सीमित रह गया।
इज़राइल और अमेरिका हमास को आतंकवादी संगठन मानते हैं और 7 अक्टूबर को हमास के हमले में मारे गए नागरिकों का प्रतिशोध लेने के लिए चलाए जा रहे सैन्य अभियान को सम्पूर्ण रूप से जायज़। यहाँ इज़राइल, अमेरिका एवं उनका समर्थन करने वाले देशों का राजनीतिक उद्देश्य हमास का पूर्ण ख़ात्मा है।
इज़राइल अपने सैन्य अभियान के तीसरे चरण में ग़ज़ा से हमास के ख़ात्मे के बाद वहाँ का शासन स्थानीय फ़िलिस्तीनियों को देकर बाहर होने की घोषणा कर चुका है।
7 अक्टूबर के हमास के हमले में मारे गए अनुमानित 1400 लोगों में से 40 देशों के 328 लोगों के मृत या लापता होने की पुष्टि की गई। इन लापता और बंधक लोगों की राष्ट्रीयता उजागर कर इज़राइल ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर माहौल बनाने की कोशिश की ताकि जिन देशों के ये नागरिक थे, उन देशों की सरकारें इज़राइल का साथ दें। लेकिन अमेरिका को छोड़ कर बाक़ी देशों ने संयुक्त राष्ट्र संघ में युद्धविराम के पक्ष में ही वोटिंग की।
अब देखना यह है कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इतने विरोध के बावजूद क्या इज़राइल अपने अभियान को जारी रखेगा। उधर यह भी देखना होगा कि इज़राइली और अन्य विदेशी बंधकों के मामले में हमास क्या रुख़ अपनाता है। वह इज़राइल में फ़िलिस्तीनी कैदियों की रिहाई की शर्त रख सकता है या ग़ज़ा पट्टी में प्रवेश के लिए अधिक मानवीय सहायता और ईंधन टैंकर पर ज़ोर दे सकता है। क़तर, मिस्र और अन्य देश ग़ज़ा में इन बंधकों को मुक्त कराने के लिए हमास के साथ बातचीत कर रहे हैं। दोनों पक्षों को आने वाले दिनों में किसी समझौते पर पहुँचने की उम्मीद है, लेकिन अभी तक बातचीत गतिरोध में है।
संकट की शुरुआत में बंधकों के भाग्य पर चर्चा की गई, तो हमास ने कहा था कि उनका इस्तेमाल इज़राइली जेलों में बंद फ़िलिस्तीनियों की रिहाई के लिए सौदेबाज़ी के तौर पर किया जाएगा। लेकिन हमास ने देखा कि बंधकों की भारी संख्या और उनके बारे में वैश्विक रुचि के चलते इजराइल की सैन्य अभियान योजना में बाधा पड़ रही है। हमास इस मामले में दोतरफ़ा नीति अपना रहा है। एक तरफ़ उसने कुछ बंधक रिहा किए तो दूसरी तरफ़ दावा किया कि इज़राइली हमलों में कई बंधक मारे गए हैं।
हमास ने अपना बंधक कार्ड जिस भी उद्देश्य के लिए खेला हो, वह जानता है कि उनके सुरक्षित रिहाई पर ही उसकी सफलता निर्भर करती है। 23 अक्टूबर को रिहा की गई 85 वर्षीय महिला द्वारा वर्णित "अच्छे व्यवहार" की मीडिया रिपोर्टों से हमास को लाभ हुआ है।
इज़राइल हमास द्वारा बंधक बनाए गए सभी नागरिकों की एकतरफा रिहाई की योजना पर आगे बढ़ रहा है, लेकिन हमास के साथ बातचीत में शामिल सूत्रों के लिए यह अनुमान लगाना चुनौतीपूर्ण है कि उनमें से कितनों को रिहा किया जाएगा और किन शर्तों के तहत। यह भी स्पष्ट नहीं है कि बड़ी संख्या में बंधकों को रिहा कराने के लिए इज़राइल को क्या क़ीमत चुकानी होगी। इज़राइल का कहना है कि वह बंधकों की रिहाई के लिए रियायतें देने को तैयार नहीं है। वह चाहता है कि बंधक मुद्दे का हमास के 'संपूर्ण उन्मूलन’ की योजना से कोई संबंध न हो। इज़राइल की इंटेलिजेंस एजेंसी सीन बाथ का दावा है कि उसने अधिकांश बंधकों की लोकेशन का सही पता लगा लिया है और सैन्य कार्रवाइयाँ उसी दिशा में बढ़ रही हैं।
संघर्ष में अगले क़दम को लेकर इज़राइल के भीतर और बाहर दोनों जगहों पर मतभेद उभरकर सामने आ रहे हैं। कहा जाता है कि इज़राइली प्रधानमंत्री नेतन्याहू हमास के साथ एक सीमित संघर्ष चाहते हैं जबकि देश के सेनाध्यक्ष लेबनान के साथ दूसरे मोर्चे पर लड़कर हिज़्बुल्लाह और हमास दोनों को जड़ से उखाड़ने के लिए तैयारी कर रहे हैं। कई यूरोपीय देश युद्धविराम की कामना कर रहे हैं, क्योंकि लम्बे संघर्ष का प्रभाव ऊर्जा की कीमतों पर पड़ेगा। इस बीच, बाइडेन प्रशासन को ऐसी स्थिति का डर है कि इज़राइल ग़ज़ा में जाकर फँस न जाए।
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