चीनी कम्युनिस्ट पार्टी इस महीने अपनी स्थापना शताब्दी मना रही है। पार्टी की स्थापना शंघाई की फ़्रांसीसी कॉलोनी के पास हुआंगपू नदी की एक नाव में हुई थी जहाँ माओ-त्से दोंग और दर्जन भर युवा क्रांतिकारियों ने पुलिस से बचते-बचाते एक बैठक की थी। कहते हैं कि माओ इस बैठक की तिथि को भूल गए थे। इसलिए चीनी कम्युनिस्ट पार्टी का स्थापना दिवस पहली जुलाई को मनाया जाता है।
राजधानी बीजिंग के तियानन्मैन चौक में हुए भव्य शताब्दी समारोह में बोलते हुए राष्ट्रपति शी जिन्पिंग ने चीन को घेरने की कोशिश में लगी ताक़तों को चेतावनी देते हुए कहा, ‘चीन किसी की धौंस में नहीं आएगा। जो चीन को दबाने की ज़ुर्रत करेगा उसका सिर तोड़ दिया जाएगा।’ उन्होंने अमेरिका की तरफ़ इशारा करते हुए कहा कि ‘हम नैतिक पाठ नहीं पढ़ेंगे और हमारा अटल संकल्प है कि हम ताइवान को चीन में मिलाएँगे। कोई इसे हल्के में न ले।’
शताब्दी समारोह के अवसर पर शी जिन्पिंग के इस तेवर के दो लक्ष्य थे। पहला, लोगों में चीनी अस्मिता और राष्ट्रवाद की भावना जगाना और यह याद दिलाना कि वह चीनी कम्युनिस्ट पार्टी और उनकी सरकार के हाथों में ही सुरक्षित है। उन्होंने अपने भाषण में कहा, ‘समाजवाद ही चीन को बचा सकता है और चीनी ख़ूबियों वाला समाजवाद ही चीन का विकास कर सकता है।’ चीनी ख़ूबियों वाले समाजवाद का मतलब पूँजीवादी उद्योगनीति और समाजवादी राजनीति का वह दिलचस्प मिश्रण है जो चीन में पिछले 40 साल से चल रहा है। दूसरा लक्ष्य दुनिया को यह संकेत देना था कि चीन अब अपनी नई आर्थिक और सैनिक ताक़त का प्रयोग अपने प्रभाव और हितों के साम्राज्य को फैलाने में करेगा।
ध्यान देने की बात है कि यह वही चीनी कम्युनिस्ट पार्टी की सरकार है जिसे 1949 में सत्ता में आने के बाद 21 वर्षों तक संयुक्त राष्ट्र में अपनी सीट पर नहीं बैठने दिया गया था। सत्ता के आरंभिक वर्षों में जिसकी आर्थिक दशा उत्तरी कोरिया से भी ख़राब थी, जिसने मुख्यतः माओ के नेतृत्व वाले पहले 30 वर्षों में ‘ग्रेट लीप फ़ॉरवर्ड’ और ‘सांस्कृतिक क्रांति’ जैसे ऊल-जलूल प्रयोगों से देश को भुखमरी और बरबादी के गर्त में धकेला। माओ के मार्चों से बरबाद हुई खेती और भीषण अकाल ने, और एक वर्ग के लोगों को दूसरे वर्ग के लोगों पर छोड़ने की नीति ने कम-से-कम साढ़े चार करोड़ लोगों की जान ले ली। मानव इतिहास में इससे बड़ी जनहानि नहीं हुई।
लेकिन पिछले चालीस सालों के आर्थिक विकास ने पहले तीस सालों के ज़ख़्म भर दिए हैं। चीन का आर्थिक विकास इतिहास में सबसे तेज़ और अनवरत चलने वाला आर्थिक विकास है। 1980 में चीन का सकल घरेलू उत्पाद केवल 191 अरब डॉलर था और प्रति व्यक्ति आय 195 डॉलर प्रति वर्ष थी और वह भारत से पीछे था। आज उसकी अर्थव्यवस्था 143 खरब डॉलर और प्रति व्यक्ति आय 10,261 डॉलर हो गई है जो भारत से पाँच गुना है।
चीन दुनिया का सबसे बड़ा तैयार माल का उत्पादक और निर्यातक है। सबसे बड़े विदेशी मुद्रा भंडार का मालिक है। सबसे बड़े बाँध, सबसे बड़े बिजलीघर, सबसे ऊँचे रेल मार्ग, सबसे लंबे पुल – यानी जो-जो बड़ा है उस सब का मालिक है।
आख़िर फ़र्श से अर्श की इस उड़ान का रहस्य क्या है? ऐसा क्या है जो दुनिया की कोई और कम्युनिस्ट पार्टी नहीं कर पाई और चीन ने कर लिया? चीनी कम्युनिस्ट पार्टी की प्रेरणास्रोत सोवियत कम्युनिस्ट पार्टी ने चीनी कम्युनिस्ट पार्टी से भी लंबे समय तक शासन किया। पर अपने 74 साल के शासन में उसने सोवियत संघ का दिवाला निकाल दिया। यही हाल उत्तरी कोरिया, क्यूबा और वेनेज़ुएला जैसे देशों का हुआ। चीन के अलावा कोई ऐसा कम्युनिस्ट देश नहीं है जो चीन जैसी आर्थिक उन्नति कर पाया हो जो पूँजीवादी देशों को सोचने पर मजबूर कर दे। चीनी कम्युनिस्ट पार्टी ने यह काम सत्ता पर अपनी पकड़ बनाए रखते हुए किया है। मज़दूरों को अपने हक़ों के लिए लड़ने, लोगों को अपने विचार और असहमति प्रकट करने और असहमत लोगों को सरकार की आलोचना करने का अधिकार नहीं है। फिर भी लोगों से बात करके देखने पर लगता है कि वे ख़ुश हैं।
हालाँकि लोगों के असंतोष के भी बहुतेरे कारण रहे हैं। जैसे चीन ने जनसंख्या नियंत्रण के लिए कुछ दूर-दराज़ के कबाइली इलाक़ों को छोड़ सब जगह एक संतान की नीति को कड़ाई से लागू किया। जिसका सबसे बड़ा नुक़सान देहाती इलाक़ों में किसानों और मज़दूरी करने वालों को हुआ। क्योंकि परिवारों में काम के लिए हाथों की कमी पड़ गई। इसी तरह जब तटवर्ती शहरों में तेज़ औद्योगीकरण होने लगा तो काम के लिए लोग देहातों से शहरों की तरफ़ पलायन करने लगे। पलायन की रोकथाम के लिए परमिट लेना ज़रूरी कर दिया गया। जो लोग बिना परमिट के शहरों में काम करने गए वे सज़ा के डर से वापस गाँव जा ही नहीं पाए। चीन में करोड़ों ऐसे परिवार हैं जो छोटे बच्चों को गाँवों में बूढ़े माँ-बाप के साथ छोड़कर काम करने शहरों में गए और लौट ही न सके। पूरी की पूरी पीढ़ियाँ माँ-बाप की अनुपस्थिति में दादा-दादी और नाना-नानी ने पाली हैं।
लेकिन शहरों में रहकर लोगों ने पैसा कमाया और जीवन स्तर बेहतर बनाया। चीनी कम्युनिस्ट पार्टी ने दो-तीन काम और ऐसे किए जो भारत की सरकारें नहीं कर पाईं। पूर्ण साक्षरता और सस्ती दर पर प्राथमिक चिकित्सा की सुविधा ऐसे ही काम थे। सबके लिए न्यूनतम पेंशन की व्यवस्था भी की गई ताकि बुढ़ापे में लोग आर्थिक बदहाली का शिकार न हों। इन सब कामों ने और बड़े पैमाने पर तेज़ी से बिछाए गए बुनियादी सुविधाओं के जाल ने लोगों के जीवन को बेहतर बनाया है जिसकी वजह से लोग ‘एक संतान क़ानून’ और शहरों में काम के लिए परमिट के क़ानून की नाराज़गी को भूल गए हैं।
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कुल मिला कर देखें तो चीनी कम्युनिस्ट पार्टी की अभूतपूर्व कामयाबी के तीन प्रमुख कारण रहे हैं। पहला, विरोध को कुचलने की निष्ठुरता जिसकी नींव ख़ुद माओ ने रखी थी। चीनी कम्युनिस्ट पार्टी ही क्या किसी भी कम्युनिस्ट पार्टी में आज तक माओ जैसा निष्ठुर नेता नहीं हुआ। सत्ता मिलने से पहले के उनके ‘लाँग मार्च’ से लेकर ‘लीप फ़ॉरवर्ड’ और ‘सांस्कृतिक क्रांति’ जैसे उनके सारे अभियान अपने विरोधियों को कुचलने के हथकंडे थे। डंग शियाओं पिंग को उन्होंने दो बार जेल भेजा। डंग ने अपने विरोधियों के साथ और तियानन्मैन के छात्रों के साथ वही किया। शी जिन्पिंग तो सोवियत कम्युनिस्ट पार्टी के पतन का मज़ाक उड़ाते हुए कहते हैं कि वहाँ के नेताओं के पास विरोधियों का सामना करने और उन्हें ठिकाने लगाने की मर्दानगी नहीं थी।
माओ के सामने तो उनकी एक न चली लेकिन उनके जाते ही चीन के भीतर हांगकांग और सिंगापुर जैसे औद्योगिक क्षेत्र बनाने का प्रयोग शुरू किया गया जहाँ निवेशकर्ता पूंजीवादी देशों की तरह कारोबार लगा सकें और मुनाफ़ा कमा सकें।
इन क्षेत्रों में न मज़दूरों के अधिकार लागू होते थे और न पर्यावरण की रक्षा के क़ायदे-क़ानून। यानी उत्पादन और निर्यात के लिए शुद्ध पूँजीवाद अपनाया गया और राजनीति के लिए समाजवाद। इस दोहरी व्यवस्था के नाटकीय नतीजे निकले। चीन दुनिया की फ़ैक्टरी बन गया।
तीसरा कारण था, चीनी कम्युनिस्ट पार्टी को ख़ानदानी जागीर और चोरतंत्र न बनने देना। जैसा कि दूसरे कई तानाशाही कम्युनिस्ट देशों और एक हद तक भारत में हुआ। चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के साढ़े नौ करोड़ सदस्य देश के हर विभाग और इलाक़े पर नज़र रखते हैं और उस पर नियंत्रण रखते हैं। कम्युनिस्ट पार्टी के लिए घूस की एक नियत व्यवस्था है। लेकिन ऐसा नहीं है कि पार्टी के नेता देश को लूट कर अपनी जेबें ही भरें और हर अच्छे पद पर कम्युनिस्ट पार्टी कार्यकर्ताओं के ही सगे-संबन्धी दिखाई दें। डंग शियाओं पिंग और जियांग ज़ेमिन के कार्यकाल में पार्टी के भीतर भिन्न विचार रखने वालों की बात भी सुनी जाने लगी थी। लेकिन शी जिन्पिंग ने उस पर ताला लगा दिया है। दूसरी तरफ़ भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने के लिए सख़्त क़दम भी उठाए हैं।
डंग शियाओं पिंग ने पार्टी नेता के पद पर दो कार्यकाल यानी दस साल से ज़्यादा न रहने की परंपरा भी क़ायम की थी। जिसके चलते पार्टी नेता के साथ-साथ विचारधारा में थोड़ी सी लोच की गुंजाइश रहती थी। शी ने उस परंपरा को भी बंद कर दिया है जिसके परिणाम स्वरूप वे चाहें तो आजीवन नेता बने रह सकते हैं। अभी तक उनके उत्तराधिकार की कोई तैयारी दिखाई नहीं दे रही है। इसके अलावा जिस तरह से सोशल मीडिया और इंटरनेट पर अंकुश कसा जा रहा है; हांगकांग में विचारों की आज़ादी का गला घोंटा जा रहा है; पार्टी विचारधारा की ‘शी-विचार’ या ‘शी-सोच’ कह कर ब्रांडिंग की जा रही है, उससे ऐसा लगता है कि विचारधारा के मामले में चीन उल्टे पाँव माओ युग की तरफ़ लौट रहा है।
उसकी कई वजहें हो सकती हैं। एक तो चीन की अर्थव्यवस्था की विकास दर पिछले दो दशकों के मुक़ाबले अब धीमी पड़ती जा रही है। काम की उम्र वाले लोगों का अनुपात घट रहा है और बुज़ुर्गों का अनुपात बढ़ रहा है जिससे सरकार पर पेंशन और स्वास्थ्य सेवा का बोझ बढ़ेगा और आमदनी घटेगी। बुनियादी आर्थिक प्रगति ने लोगों की महत्वाकांक्षाएँ और बढ़ा दी हैं। ये सब कारण असंतोष की चिंगारी को हवा दे सकते हैं। इसलिए शी जिन्पिंग किसी भावी विरोध की संभावना को साकार होने से पहले ही दबा देना चाहते हैं।
चीन की पुरानी पीढ़ी ने बदहाली के दिन देखे हैं। इसलिए वह आर्थिक विकास की चकाचौंध से चुप है। लेकिन अगली पीढ़ी को चुप रखने के लिए केवल आर्थिक ख़ुशहाली शायद काफ़ी न हो।
इसलिए कम्युनिस्ट पार्टी अपनी लोकप्रियता कायम रखने के लिए अब हांगकांग और ताइवान के मुद्दे उठाकर और बेल्ट एंड रोड और दक्षिण चीनी सागर के द्वीपों में पाँव पसार कर चीनी राष्ट्रवाद को हवा देना चाहती है। शी जिन्पिंग अपने आप को आज के युग के चीनी सम्राट के रूप में पेश कर रहे हैं। अमेरिका और यूरोप को माल बेच कर हासिल हुई अपनी आर्थिक ताक़त से अमेरिका और यूरोप को ललकारा जा रहा है। ताकि चीनी लोग राजनीतिक सुधारों और अपने नागरिक अधिकारों की माँग की बात को भूल कर चीन के ख़िलाफ़ गोलबंद हो रहे लोकतांत्रिक देशों का सामना करने में चीनी कम्युनिस्ट पार्टी का साथ दें।
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