कहा जाता है कि युद्ध प्रोपेगेंडा से भी जीते जा सकते हैं। प्रथम विश्वयुद्ध हो या द्वितीय या फिर इराक वार या अन्य कोई भी युद्ध, प्रोपेगेंडा हर युद्ध में सामने आता रहा है। तो क्या अब हमास-इज़राइल के बीच लड़ी जा रही लड़ाई में प्रोपेगेंडा का इस्तेमाल हो रहा है? ऐसी कई ख़बरें आई हैं जिसमें सोशल मीडिया से लेकर मेनस्ट्रीम मीडिया तक में फेक न्यूज़ के माध्यम से प्रोपेगेंडा फैलाने की कोशिश नज़र आई है। दोनों तरफ़ से ऐसा हुआ है। लेकिन इस प्रोपेगेंडा वार में अब अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन का नाम आ गया है।
दरअसल, अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने कह दिया कि इज़राइल पर हमास का हमला सरासर दुष्ट कार्रवाई है और उन्होंने कभी नहीं सोचा था कि वह 'बच्चों के सिर काटते आतंकवादियों की तस्वीरें' देखेंगे। अब यदि अमेरिका का राष्ट्रपति ऐसा बयान देता है तो मानकर यह चलना चाहिए कि उन्होंने इसकी पुष्टि की होगी। बिना पुष्टि के ऐसे बयान का मतलब कुछ और ही निकलेगा।
लेकिन बाइडेन के इस बयान के बाद ह्वाइट हाउस को इस पर सफ़ाई देनी पड़ी। व्हाइट हाउस के एक अधिकारी ने बीबीसी को साफ़ किया कि बाइडेन ने वास्तव में ऐसी तस्वीरें नहीं देखीं, बल्कि वह इज़राइल की रिपोर्टों का ज़िक्र कर रहे थे। बाइडेन के बयान पर तीखी प्रतिक्रिया में हमास ने कहा है कि बाइडेन की टिप्पणियाँ इज़राइल के अपराधों को कवर करने का प्रयास थीं। यानी हमास ने एक तरह से आरोप लगा दिया कि अमेरिकी राष्ट्रपति ग़लत ख़बर को फैला रहे हैं।
कहा जा रहा है कि हमास-इज़राइल दोनों तरफ़ से प्रोपेगेंडा ख़बरें फैलाकर दुनिया की सहानुभूति बटोरने की कोशिश की जा रही है। सोशल मीडिया पर ऐसे सैकड़ों वीडियो वायरल हैं जहाँ दोनों पक्षों की ओर से अपुष्ट दावे किए जा रहे हैं। मुख्य धारा के मीडिया में भी ऐसा प्रयास किए जाने के आरोप दोनों पक्षों की ओर से लगते रहे हैं।
इससे पहले इराक युद्ध के समय बड़े पैमाने पर प्रोपेगेंडा ख़बरें फैलाई गईं। अमेरिका ने यह कहते हुए इराक पर हमला किया था कि इराक़ के पास सामूहिक विनाश के हथियार हैं और यह अंतरराष्ट्रीय शांति के लिए ख़तरा है।
लेकिन ज़्यादातर देशों ने इसके ख़िलाफ़ सैन्य कार्रवाई का समर्थन करने से इनकार कर दिया था। इसके बावजूद हमला किया गया और सद्दाम हुसैन की सरकार को गिरा दिया गया।
दरअसल इसकी शुरुआत हुई थी 1990-1991 के खाड़ी युद्ध में, जब अमेरिका के नेतृत्व वाले उसके गठबंधन ने इराक़ी सेना को कुवैत छोड़ने के लिए मजबूर किया था। इसके बाद संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद ने इराक़ को सामूहिक विनाश के अपने सभी हथियारों को नष्ट करने का आदेश दिया था। 1998 में इराक़ ने संयुक्त राष्ट्र के हथियार निरीक्षकों के साथ सहयोग करने से इनकार कर दिया और इसके बाद अमेरिका और ब्रिटेन ने इराक़ पर हवाई हमले कर दिए।
लेकिन 90 के दशक में पूरा पश्चिमी मीडिया, टीवी से लेकर प्रिंट तक पर सामूहिक विनाश के हथियारों की कहानी भरी होती थी। इसका असर काफ़ी ज़्याता हुआ था। अमेरिकी लोगों पर मैरीलैंड विश्वविद्यालय के एक अध्ययन में पाया गया था-
- मुख्यधारा के मीडिया दर्शकों में से 57 प्रतिशत का मानना था कि इराक ने अल-कायदा को पर्याप्त समर्थन दिया था, या 11 सितंबर के हमलों में सीधे तौर पर शामिल था (आक्रमण के बाद 48%)।
- 59 प्रतिशत का मानना था कि सद्दाम हुसैन 11 सितंबर के हमलों में व्यक्तिगत रूप से शामिल थे।
- 22 प्रतिशत का मानना था कि इराक में सामूहिक विनाश के हथियार पाए गए हैं।
- 21 प्रतिशत का मानना था कि 2003 के दौरान इराक में अमेरिकी सैनिकों के खिलाफ वास्तव में रासायनिक/जैव हथियारों का इस्तेमाल किया गया था।
इससे पहले प्रथम और द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान भी प्रोपेगेंडा का ख़ूब इस्तेमाल हुआ। हिटलर ने तो प्रोपेगेंडा फैलाने की सारी हदें पार कर दी थी। द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान ब्रिटेन ने नाज़ी प्रोपेगेंडा से पार पाने के लिए सूचना मंत्रालय का सहारा लिया। हिटलर जैसी ताक़तों से लड़ने के लिए ब्रिटिश सूचना मंत्रालय ने कई हथकंडे अपनाए। इसके बाद से दुनिया भर के युद्धों में ऐसे हथकंडे अपनाए जाने लगातार जारी हैं।
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